यूनान की अर्थव्यवस्था का पतन

greeceडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पश्चिमी देशों के मानकों के अनुसार यूनान विकसित देशों की कोटी में आता है । वह यूरोपीय यूनियन का सदस्य भी है । विकसित देशों के माडल का उदाहरण आम तौर विकासशील और पिछड़े देशों को इसलिये दिया जाता है ताकि वे भी इसका अनुसरण करें और प्रगति की सीढ़ियाँ फलांगते हुये उस की ऊँचाई तक पहुँचे । इस प्रकार की छलाँगें लगाने के लिये विकसित देश आम तौर पर पिछड़े व विकासशील देशों को क़र्ज़ा भी देते हैं । लेकिन यूनान के पतन ने विकास के इस माडल के आगे ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । यह माडल ज़्यादा से ज़्यादा उपभोग पर आधारित है । जितना ज़्यादा उपभोग , उतना ज़्यादा विकास । ऐसा नहीं कि भारत में इस माडल के समर्थक नहीं हैं । महर्षि चार्वाक भारत में विकास के इस माडल के प्रणेता ही कहे जा सकते हैं । उन्होंने ही सबसे पहले घोषणा कर दी थी कि क़र्ज़ा लेकर भी पिया जा सकता है तो घी पियो । उनके कहने में एक और संकेत भी छिपा हुआ था कि जो क़र्ज़ा लिया है , उसको वापिस करने की भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । वर्तमान ही सब कुछ है , भविष्य को कौन जानता है । चार्वाक को कुछ वाममार्गियों के सिवा , ज़्यादा शिष्य नहीं मिले लेकिन लगता है यूरोप में चार्वाक के विचार दर्शन को उर्वरा ज़मीन मिल गई । आज यूनान के पास विश्व बैंक से लिया हुआ उधार चुकाने की क्षमता नहीं है । इसलिये विश्व संस्था उसे दिवालिया घोषित करने जा रही है । कुछ समय पहले मंदी के दौर में अमेरिका समेत यूरोप में इससे मिलती जुलती स्थिति आई थी । लेकिन तब पूरे के पूरे देश दिवालियाँ नहीं हुये थे बल्कि वहाँ की वित्तीय संस्थाएँ डगमगा गई थीं ।
बैंकों के पास लोगों का जमा किया हुआ पैसा वापिस करने की कूबत नहीं रही थी क्योंकि उनके पैसे को क़र्ज़ा लेने वाले लोग खा गये थे । मामला कुछ कुछ क़र्ज़ा लेकर घी पियो जैसा ही था । पश्चिम में क़र्ज़ा लेकर घी पीना ही विकास का ‘प्रतीक बन गया । लेकिन असली सवाल तो यही है कि आख़िर कितना घी पिया जाये ? उतार भी उतना ही सरल है । यदि अपने पैसे से घी पीना होगी तब तो उसकी सीमा बाँधी जा सकती है लेकिन जहाँ घी पीना ही क़र्ज़ा लेकर हो , वहाँ तो कोई सीमा नहीं होगी । इसी सीमाहीन उपभोग को यूरोप ने विकास का नाम दे दिया । लेकिन उपभोग के सभी साधन तो प्रकारान्तर से प्रकृति पर ही निर्भर करते हैं । जहाँ उपभोग सीमा में होगा और उपयोगिता व आवश्यकता पर निर्भर करता होगा , वहाँ सारा काम प्रकृति के साथ तालमेल बिठा कर ही हो सकता है । लेकिन जहाँ उपभोग की कोई सीमा नहीं होगी , वहाँ तो उपभोग के लिये प्रकृति का अन्धाधुुन्ध विनाश होगा है । इसके कारण पर्यावरण व प्रदूषण की तमाम समस्आएं पैदा होती हैं । इसीलिए यूनान अन्ततः अपने ही बनाए विकास के माडल का शिकार हो गय़ा । पूँजीवाद पर आधारित विकास का यह माडल तो है ही जन विरोधी परन्तु इस माडल पर जब समाजवाद की छौंक लगेंगी तो निश्चय ही यूनान का यह विकास माडल पूरे देश को दिवालिया बना देगा । यूनान में समाजवादी सरकार सरकारी कर्मचारियों को पैंशन देती है । यह अच्छी बात है । यह पैंशन अच्छी खासी होती है । क्योंकि यह पचास साल के बाद ही मिलने लगती है , इसलिये ज़्यादा कर्मचारी इसी यौवन काल में रिटायर हो जाते हैं । धीरे धीरे रिटायर मेंट के बाद पैंशन लेने वाले युवकों की संख्या बढ़ रही है और काम करके वेतन पाने वालों की संख्या कम होती जा रही है । काम तरने की संस्कृति समाप्त होने लगी और क़र्ज़ा लेकर घी पीने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी । इस रास्ते पर चलते हुये यूनान अन्ततः जहाँ पहुँच सकता था , वहाँ पहुँच गय़ा है । शताब्दियों पहले यूनान सांस्कृतिक रुप से समाप्त हुआ था और आज आर्थिक संकट में फँस कर दिवालिया हो गया है । पूँजीवाद-समाजवाद की चाशनी से उपजे विकास माडल का यही हश्र हो सकता था ।
महात्मा गान्धी और दीनदयाल उपाध्याय विकसित देशों के इसी विकास माडल के विरोधी थे । उन्होंने इसकी भीतर छिपे ख़तरों को सही वक़्त पर पहचान लिया था । यही कारण था कि महात्मा गान्धी ने ग्राम आधारित अर्थ व्यवस्था का समर्थन किया और दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन की बहस चलाई । इसी को आधार बना कर नानाजी देशमुख ने तो चित्रकूट में ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना कर भारतीय विकास माडल की व्यवहारिकता को परखना शुरु कर दिया था । भारत में अमर्यादित उपभोग अभी तक यहाँ की सामान्य संस्कृति का अंग नहीं बना है । यही कारण है कि कुछ अरसा पहले यह देश विश्वव्यापी मंदी की मार को झेल गया था ।

1 COMMENT

  1. हमारे यहाँ यह प्रदर्श अभी साधारण रूप से तो प्रचलित नहीं हुआ है किन्तु,जो लोग गलत तरीके से पैसा कमाते हैं उन परिवारों में यह आम होने लगा है.मसलन बिना जरूरत के ४-५ मोबाइल ,३=४ दो पहियया वाहन ,१०-२० – जोड़ी कपड़े, ५=१० जोड़ी पदुकाएँ. हफ्ते में एक दो बार बाहर भोजन ,२=४=साल में टीवी बदलना यह तो आम हो चूका है, गलत तरीके से पैसा कमाने वाले अपने अक्षम बच्चों को ऊँची डोनेशन देकर जो लाखों में होती है ,उच्च और तथाकथित प्रतिष्ठित संस्थाोनो में प्रवेश दिलवाते हैं. हमारा भारतीय समाज धीरे धीरे उपभोक्तावाद की गिरफ्त में आ रहा है। ग्रीस की पहिली सीढ़ी संस्कृत और संस्कृति से तो हम दूर जा रहें हैं, इसमें हमारे कथाकार और धर्मोपदेशक अवनति में साथ दे रहे हैन्य़े भगवन राम और कृष्ण की कथाएं तो खूब कहते हैं किन्तु आम जनता को यह नहीं कहते की जमीन पर अतिक्रमण मत करो /गलत तरीके से पैसा मत कमाओ /अपने गरीब रिश्तेदारों को अपने यहाँ बुलाकर पढ़ाओ/ आज नहीं कल हम यूनान का रास्ता अपनाएंगे.

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