-प्रमोद भार्गव-
संदर्भः कोख में पल रहे शिशु को शिक्षा देने की पहला के निहितार्थः-
पिछले कुछ दिनों से मां के गर्भ में विकसित हो रहे शिशु को शिक्षा देने की खबरे आ रही हैं। ये प्रयोग इंदौर में अभिभावक प्रशिक्षण संस्थान में गर्भस्थ शिशु को तकनीक के जरिए गणित और विज्ञान जैसे जटिल विषयों में दक्ष किए जाने के उद्देश्य से किए जा रहे हैं। कोख में पल रहे शिशु से ये संवाद बुद्धिमान बालक पैदा करने के उपाय हैं। इस प्रयोग को क्रियान्वित करने के दौरान महाभारतकालीन अर्जुन पुत्र अभिमन्यु द्वारा गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदने की कला सीख लेने के उदाहरण दिए जा रहे हैं। लेकिन इसी उदाहरण के परिप्रेक्ष्य में प्रशिक्षक संस्थाओं को महाभारत के लेखक वेदव्यास की दूरदृष्टि को समझने की जरूरत है। मां की कोख में अभिमन्यु का चक्रव्यूह में प्रवेश के तरीके को सुनना और चक्रव्यूह भेदने की सफलता के बाद, बाहर निकलने की विधि सुनने के समय मां का सो जाना, ऐसा दूरदर्शी संदेश है, जिसका दिया जाना कालजयी लेखक से ही संभव है। इसका तात्पर्य है कि मां की कोख से कोई संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करके नहीं आता। सारा ज्ञान जीवन की जटिलताओं से जूझते हुए ही सीखा जा सकता है। तय है, ऐसे उपाय अंततः शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देने वाले ही साबित होंगे। क्योंकि शिक्षा को रूढ़ प्रतीकों और तकनीक आधारित बुद्धि से संपूर्णता में हासिल नहीं किया जा सकता है। यह विद्या स्व-विवेक और आत्मनिर्णय लेने की क्षमता विकसित नहीं करती है, इसलिए कृत्रिम उपायों से बुद्धि विकसित करना, व्यक्ति का यांत्रिकीकरण करना है। लिहाजा यह बौद्धिकता न तो स्थापित विचारों से आगे बढ़ पाएगी और न ही इससे मौलिक सोच का सहज प्रगटीकरण होगा ?
यह सही है कि महाभारतकाल में अर्जुन ने सुभद्रा को गर्भवस्था के दौरान च्रकव्यूह में प्रवेश करने की प्रक्रिया सुनाई थी,जिसे अभिमन्यू ने गर्भ में ही सीख लिया था। तभी से यह अवधारणा चली आ रही है कि गर्भस्थ शिशु को शिक्षा दी जा सकती है। लेकिन सच्चाई यह है कि महाभारत युद्ध के बाद से लेकर अब तक कोई दूसरा अभिमन्यू पैदा नहीं हुआ। प्रकृति की यही वह विलक्षणता है कि वह मनुष्य की हुबहु प्रकृति पैदा नहीं करती। अन्यथा मानव क्लोन पैदा करके पूरी मनुष्य जाति को एकरूपता में ढाल देने के उपाय चल निकलेंगे।
महाभारत के इस प्रसंग में एक खास बात यह भी है कि अर्जुन गर्भस्थ शिशु को बलपूर्वक शिक्षा नहीं दे रहे हैं,बल्कि पत्नी सुभ्रद्रा के हठ के चलते च्रकव्यूह भेदने की गोपनीय विधि सुना रहे हैं। यदि सुभ्रदा को यह भान होता कि गर्भस्थ शिशु चक्रव्यूक भेदने के गुर सीख रहा है तो वे सोती नहीं और अर्जुन भी उन्हें सोने नहीं देते। गोया, अनजाने में दी जा रही शिक्षा अधूरी नहीं रहती। यदि जन्मने के बाद चक्रव्यूह भेदने के अधूरे ज्ञान को अभिमन्यु गुरु या पिता से पूरा ज्ञान ले लेते तो शायद वे चक्रव्यूह में प्रवेश के बाद उलझकर काल की गति को प्राप्त नहीं हुए होते। दरअसल द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना इतनी जटिल की है की इसमें एक चक्र जिस दिशा में गोल घूमता है,उसके भीतर वाला चक्र विपरीत दिशा में गोल घूमता है। अतः व्यूह तोड़ने को उद्धत योद्धा विपरीत दिशा के लड़ाकों से घिर जाता है और मारा जाता है। गोया, अभिमन्यु तो इसे संयोगवश सुनता है और सुनाए हिस्से को स्मृति से विलोपित नहीं होने देता है और अंततः धर्म आधारित मूल्यों की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त होता है इस प्रसंग से यह संदेश मिलता है कि सहजता से दी गई सीख बच्चों की स्मृति में आसानी से जगह बना लेती है। क्योंकि सहज शिक्षा से बच्चों का मन खुलता व खिलता है।
देश के कई पेरेंटस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में गर्भवती महिलाओं को यह शिक्षा कंप्यूटर आधारित तकनीक के जरिए दी जा रही है। वैज्ञानिक अनुसंधान ऐसा दावा करते हैं कि गर्भ के तीसरे महीने से शिशु में शिक्षा या संस्कार आत्मसात करने की क्षमता विकसित होने लगती है। क्योंकि इस समय तक शिशु की मस्तिष्क कोशिकाएं, आंखें और श्रवण-इंद्रियां विकसित हो जाती हैं। मां के हाथ का स्पर्श भी शिशु अनुभव करने लगता है। मसलन उसकी संवेदनशीलता भी जीवंत होने लगती है। इसलिए शिक्षा देने की तकनीक के जरिए शिशु के मस्तिष्क और आंख के बीच की जो रक्त-शिराएं होती हैं, उनमें परस्पर अल्पविकसित अवस्था में समन्वय बिठाने का काम यह तकनीक करती है। इन सुप्त पड़ी शिराओं पर लेजर किरणों के जरिए वाश्पित ऊर्जा का संचार किया जाता है। जो दिमाग,आंख और कान के मार्ग में आने वाली सुप्त पड़ी कोशिकाओं को जागृत करती है। यह जागृति आते ही शिशु दृष्यों को समझने लगता है। तकनीकी शिक्षा की भाशा में इस प्रक्रिया को ‘विजुअल आई पाथ वे स्टीम्युलेट‘ कहते हैं। इसके बाद शिशु को मां पेट पर हाथ रखकर लिखे हुए शब्द और अंक फ्लैश व डाॅट कार्ड के जरिए पढ़कर जोर-जोर से सुनाती है, जैसे कोई पाठ बोल कर रटा रही हो। लेकिन यहां खतरा यह भी है कि इस पथ की कोशिकाओं को कहीं गलती से ज्यादा ऊर्जा मिल गई तो ये जलकर खाक हो सकती हैं और फिर इन्हें जीवित नहीं किया जा सकता है। यह स्थिति शिशु के दिमाग, दृष्टि और सुनने की क्षमता,तीनों को समान रुप से प्रभावित कर सकती है।
यह सही है कि वर्तमान परिदृष्य में शिक्षा प्रत्येक क्षेत्र की बुनियाद है। शिक्षा के बिना न तो व्यक्त्वि का संपूर्ण विकास संभव है और न ही बिना शिक्षा के व्यक्ति व्यवस्था में आवश्यक हस्तक्षेप कर सकता है। लेकिन क्या शिक्षा की ऐसी होड़ आवश्यक है कि गर्भस्थ शिशु को भी शिक्षा ग्रहण करने के लिए विवश कर दिया जाए ? दरअसल यह सब तकनीकी उपकरण खपाने के लिए शिक्षा का नया व्यावसायिक ढांचा खड़ा करने के उपाय लगते हैं। क्योंकि तकनीक द्वारा सिखाई सीख को मनुश्य द्वारा सिखाई जाने वाली सीख से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण माना जा रहा है। जबकि अर्जुन किसी तकनीक का सहारा नहीं लेते, हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि मषीन प्रशिक्शु को उतना ही सिखाएगी जितनी उसमें सामग्री भरी हो। मषीन द्वारा सिखाई जाने वाली कृत्रिम बौद्धिकता उससे आगे नहीं जा सकती ? बल्कि ऐसे कथित प्रयासों से विद्यार्थी में जो वास्तविक अथवा मौलिक बौद्धिक सोच है,उसके कुंठित या पंगु हो जाने के खतरे बढ़ जाते हैं। वैसे भी विचार हृदयहीन मशीन से उत्सर्जित नहीं होते हैं,उनके प्रगटीकरण के लिए संवेदनशील भावभूमि की उर्वरता जरूरी है।
कंप्यूटर आधारित तकनीकी शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में हम बिल गेट्स का उदाहरण ले सकते हैं। बिल उच्च शिक्षित नहीं थे। गणित और विज्ञान विषयों में वे कमजोर थे। लेकिन वे बिल गेट्स ही थे, जिन्होंने कंप्युटर के माइक्रोसॉफ्ट यानी कृत्रिम बुद्धि का विकास किया। बिल की जीवन गथा पढ़ने से पता चलता है कि वे जब काॅलेज से घर आते थे तो अपनी किताबें टेबिल पर पटककर गैराज में चले जया करते थे। घंटों ध्यानमग्न, वहीं बैठे रहते थे। एक दिन जब मां ने गेट्स को भोजन के लिए पुकारा तो गेट्स ने कुछ सुना नहीं। तब मां ने बगल में जाकर पूछा ‘ बिल तुम ऐसे शांत क्यों बैठे हो ?‘ बिल ने उत्तर दिया, ‘मां मैं कुछ विचार कर रहा हूं।‘ यही एकाग्रता विचारों की वह संचित सोच थी, जिसने कंप्यूटर की बुद्धि को विकसित किया। जबकि गैराज में न कंप्यूटर था और न ही पुस्तकालय। मसलन मनुष्य की स्वाभाविक मानवीय बौद्धिकता ही कृत्रिम बौद्धिक यंत्र को गढ़ने में सहायक बनी। जाहिर है, यदि बिल भिन्न-भिन्न शिक्षा पद्धतियों से महज गणित और विज्ञान सीखने में लगे रहते तो न तो माइ्रकोसॉफ्ट बनाने में सफल हो पाते और न ही आज विश्व के सबसे अमीर लोगों में से एक होते।
कृत्रिम बौद्धिकता के ऐसे खतरों को हमारे शिक्षाविद् डाॅ राधाकृष्णन और पंठित मदनमोहन मालवीय ने बींसवीं सदी की शुरूआत में ही भांप लिया था। इसलिए डाॅ राधाकृष्णन ने सरकारी नौकरियों में उपाधियां मसलन डिग्रियों के महत्व को नकारा था। उनका मानना था कि डिग्री के बजाय अभ्यर्थी से विशय की परीक्षा लेनी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति संबंधित विषय में पारंगत है, तो नौकरी में ले लेना चाहिए। मालवीय ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा की डिग्री नहीं होने के बावजूद रामचंद्र शुक्ल (इंटर), बाबू श्यामसुंदर दास (बीए) और अयोध्या सिंह उपाघ्याय ‘हरिऔध‘ (मिडिल) को उनकी विशयजन्य योगयता के आधार पर ही विवि में प्राध्यापक बनाया था। इसी तरह के देवेंद्र सत्यार्थी को ‘आजकल‘ का संपादक बना दिया गया था। इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका ने महज योग्यता के बूते ही दसवीं पास प्रभाश जोशी को पहले ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ और फिर ‘जनसत्ता‘ का संपादक बनाया था। वे प्रभाश जोशी ही थे, जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता को नए तेवर दिए और दिल्ली में बहिष्कृत पड़ी हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी पत्रकारिता के समतुल्य स्थान दिलाया।
अमेरिका के प्रसिद्ध शिक्षाविद् निकोलस कार अपनी पुस्तक ‘द शैलोज‘ में कहते हैं कि ‘हम चीजों को टुकड़ों में देखने,खानों में बांटने और रूढ़ प्रतीकों को समझने में तो दक्षता प्राप्त कर रहे हैं लेकिन स्मरण शक्ति, शब्द भंडार, सामान्य ज्ञान और मामूली गणित में काफी पिछड़ गए हैं। इन क्षेत्रों में हम आज वहीं है जहां सौ साल पहले थे।‘ हमारे यहां भी रामानुजम जैसे गणितज्ञ और जागदीश चंद्र बोस एवं चंद्रशेखर वेंकटरमण जैसे वैज्ञानिक 85-90 साल पहले ही हुए थे। प्रसिद्ध शिक्षाविद् और कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी इन्हीं चिंताओं की व्याख्या करते हुए कहते हैं, ‘टेक्नोलाॅजी के तमाम उपकरण और कंप्यूटर दिमाग को मशीन की तरह प्रयोग में लाने वाली वस्तु बना देते हैं। इसमें आंकड़े, प्रतीक और खांचे होते हैं। आप मशीन की तरह, एक छोटे पुर्जे के रूप में उससे जुड़ जाते हैं। सवाल उठता है कि क्या नई प्रोद्यौगिकी मसलन इंटरनेट हमारे पढ़ने और सोचने की क्षमता को प्रभावित कर रहा है। कभी-कभार ऐसा भी लगता है कि हम बहुत तेजी के साथ नई दुनिया में जाने के चक्कर में रास्ता भटक रहे हैं, क्योंकि आशंका यह भी हैं कि अतिमशीनीकरण, सोचने-समझने, विचार करने और गहराई में उतरकर चीजों को देखने की हमारी क्षमता को लगातार शिथिल करते हुए कहीं हमें पंगु न बना दे।‘ इसी आशंका के चलते निकोलस कार ने आगाह किया है कि ‘यदि ऐसा चलता रहता है तो कृत्रिम बौद्धिकता मशीन में नहीं, मनुष्य में होगी।‘ गर्भ में अल्प विकसित शिशु को हठपूर्वक ज्ञानी बनाने की दी जा रही शिक्षा बालक की प्रकृति प्रदत्त मेधा को नष्ट करने के उपायों के अलावा कुछ नहीं है। लिहाजा बौद्धिकता बढ़ाने वाली इस कथित तकनीकी शिक्षा से बचने की जरूरत है।