ये क्या कह रहा है अमेरिकी विदेश मंत्रालय 

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शैलेंद्र सिंह
भारत में 90 के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारवाद और भूमंडलीकरण के प्रभाव में एक नव्य राजनीतिक धारा का अद्भुत अभिभूतीकरण हुआ. जीडीपी को चमकाने की हड़बड़ी में उदारवाद की खुशफहमियां, अंततः अपने ही लोगों पर अलग अलग ढंग से टूटीं, बेरोजगारी, गरीबी, बेदखली, पलायन, अपराध, अशांति और हिंसा के रूप में. विकास का यह समावेशी मॉडल नहीं था. एक मॉलवादी उपभोग संस्कृति- शहर के भीतर शहर खड़े कर चुकी है, वो निर्बाध फैलती जा रही हैं. त्रासदी यह कि अपराध भी उसी गति से फैल रहा है. कुलीन और अभिजात प्रभामंडल से लेकर अंधेरे टूटे-फूटे कोनों तक वो घात लगाकर बैठा रहता है. कारों में अगर अय्याश हिंसक शोहदे हैं तो सड़कों पर उपद्रवी. और गलियों नुक्कड़ों पर कुंठित संभावित अपराधी. इसी विकास जनित हिंसा के समांतर आज की हिंसा का नया और घिनौना रूप, कथित राष्ट्रवादी हिंसा का है. इसकी छत्रछाया में अन्य हिंसाएं फलफूल रही हैं. पुलिस का ध्यान इन हिंसाओं से निपटने में है और उधर इसका फायदा उठाकर विकृत मनोव्यवहार वाले संभावित अपराधी, अपराधों के लिए ख़म ठोक कर निकल पड़ते हैं. उनकी शिनाख़्त कठिन नहीं है. वे हमारे ही बीच के लोग हैं. आज अगर राजनीतिक हिंसा के लिए सत्ता-राजनीति और उसकी बहुसंख्यकवादी विचारधारा जिम्मेदार है, तो समाज में दबी-छिपी इस हिंसा के लिए समाज और उसकी नैतिकता भी उतनी ही जवाबदेह है. सामंती मानसिकता के मद्देनजर इस हिंसा को परंपरा को चाहे-अनचाहे प्रश्रय मिलता रहा है, कभी संकोच और शर्म में घिरे परिवार का तो कभी समाज और राजनीति के दबंगों का. ये खाप मानसिकता है. कोई शासन, पुलिस या अदालत इसे ठीक नहीं कर सकती. घरों और परिवारों से ये सबक निकलने चाहिए. शिक्षा को पवित्रतावादी आडंबर की जरूरत नहीं है उसे एक पारदर्शी विवेक की जरूरत है, जो वर्चस्व, उन्माद, उत्तेजना और नफरत का निषेध है और लिंग, जाति, समुदाय, धर्म का फर्क मिटाता है. भारत में राजनीतिक हिंसा से लेकर सांप्रदायिक, जातीय, यौन, और घरेलू हिंसा का दुष्चक्र फैलता जा रहा है. अपराधी खुलेआम घूमते हैं, पुलिस का सुस्त रवैया आम जन का दर्द और बढ़ा देता है.
देश की राजधानी में निर्भया कांड तो जैसे एक भुलायी जा चुकी वारदात हो चुकी है, क्योंकि उसके बाद हादसों, अपराधों और हिंसक वारदातों की नयी तफ्सील आ रही हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2012 के निर्भया कांड के बाद से दिल्ली में रेप की घटनाओं में 350 प्रतिशत उछाल आया है, जो एक भयावह स्थिति है. अमेरिकी विदेश मंत्रालय के ब्यूरो ऑफ डिप्लोमेटिक सिक्योरिटी की वेबसाइट पर भारत आने वाले अमेरिकी यात्रियों को कई हिदायतें दी गयी हैं. मसलन आप सड़क पार करते हुए सावधानी बरतें, किसी राहगीर या गाय से वाहन न टकरा जाए अन्यथा गुस्साई भीड़ के जमा होते देर नहीं लगेगी जो आपको या वाहन को भारी नुकसान पहुंचा सकती है. इसी तरह महिलाओं को अंधेरा होने पर अकेले न निकलने और ‘ड्रेस कंज़रवेटली’ की हिदायत है. हैरानी है कि कथित देशभक्तों की नजर भारत के बारे में दर्ज ऐसी बहुत सी खराबियों पर कैसे नहीं पड़ी? क्या अमेरिकी आलोचना बर्दाश्त है और अगर अपना कोई कहे तो उसे कह देंगे पाकिस्तान चले जाओ? अमेरिकी नजरिए को परे रख कर अपने भीतर झांक कर देखें. क्या हम सही हैं? आज हमने समाज की क्या तस्वीर बना डाली हैं? आंकड़े भी तर्कों या साक्ष्यों की हिफाजत ज्यादा दूर तक नहीं कर पाते. मिसाल के लिए हम कहें कि भारत में प्रति एक लाख लोगों पर 141 पुलिसकर्मी हैं, जबकि वैश्विक औसत प्रति लाख पर 350 पुलिसकर्मियों का है. अब अगर अपराधी, चोर- उचक्के, बदमाश निर्भय हैं, संगठित गिरोह सक्रिय हैं, एक पूरा नेक्सस फैला हुआ है जो स्वीकार्य पेशे की आड़ में किसी गोरखधंधे में लिप्त है- तो जाहिर है यह पुलिस मशीनरी के विराट आलस्य की निशानी है. लेकिन ये भी देखिए कि पुलिस किन हालात में है- संख्या बल और संसाधन, कार्यस्थितियां, वेतन और प्रमोशन की विसंगतियां, दक्षता और कौशल की ट्रेनिंग का हाल, नए खतरों के प्रति नवोन्मेषी तैयारी के इंतजाम और सबसे बढ़कर जॉब सैटिस्फैक्शन. क्या शासन ये दे पा रहा है? आप यह कहकर भी खारिज नहीं कर सकते कि दंगे, हिंसा और अपराध तो पहले भी होते रहे हैं, अभी क्या ऐसी खास चिंता है- तो खास यही है कि हिंसा अब अधिक संगठित, अपराध अब अधिक सुनियोजित और भीड़ अब अधिक प्रकट हो चुकी है. और अगर आप आंकड़ों को ही सबसे पुख्ता साक्ष्य मानते हैं तो यह बता दें कि छिटपुट अपराधों से लेकर यौन हिंसा, सांप्रदायिक हिंसा, भीड़ जनित हिंसा के मामलो में पिछले पांच साल के दौरान लगातार बढ़ोत्तरी ही हुई है. इसे यह कहकर भी हल्का नहीं कर सकते कि अब ज्यादा मामले रिपोर्ट हो रहे हैं लिहाजा वह आंकड़ों में भी रिफलेक्ट हो रहा है. हिंसा का एक नया द्रुत पैटर्न इधर विकसित हुआ है जो चौतरफा हमलावर है और बर्बर भी. दिल्ली से कहीं का भी रुख करें- उत्तर का, पूर्व का, पूर्वोत्तर का, पश्चिमी या दक्षिणी राज्यों का- लगता है जैसे गोली की रफ्तार और इस हिंसा की आमद से उत्पन्न होता एक निविड़ अंधेरा है जो देश में किसी महामारी की तरह फैल रहा है. केरल में राजनीतिक हत्याएं रोजमर्रा की बात हो गयी हैं. तमिलनाडु में दलितों के खिलाफ हिंसा एक मुहावरा ही बन चुकी है. देश का कोई कोना ऐसा नहीं, जिस पर हिंसा के छींटे न पड़े न हों. बुद्ध और गांधी का देश या देवभूमि कहकर हम अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकते. आलोचनाओं पर तुनकने के बजाय सोचिए कि कहां गलती है और कैसे ठीक की जा सकती है. दिल्ली के पास गुरुग्राम में एक स्कूली बच्चे की हत्या, दिल्ली में एक बच्ची से रेप, बिहार में युवती से बलात्कार के बाद तेजाब से नहला देने की घिनौनी वारदात, अपने बाबा की गिरफ्तारी के विरोध में भक्तों का सड़कों पर उत्पात, दिनदिहाड़े गोलीकांड, बुजुर्गों की पिटाई, डायन कहकर औरतों से मारपीट और उनकी हत्या, सार्वजनिक संपत्ति की तोड़फ़ोड़, सोशल कहे जाने वाले आभासी मीडिया पर हिंसा और हत्या की धमकियां और लव-जेहाद की बर्बरताएं- कोई भी संवेदनशील नागरिक अपने देश के इस हाल पर अफसोस, कोफ्त और डर से भर उठेगा. व्यापक होती हिंसा का यह पैटर्न चिंताजनक है जिसमें क्रूर हमलावर भीड़ अक्सर जहां तहां प्रकट हो जाती है. प्रशासन उसके सामने बौना दिखाई देता है और नेता गिरगिट. एक नागरिक, कोई भाड़े का गुंडा नहीं जिसे हिंसा फैलाने के लिए तैयार  किया गया है. स्वस्थ समाज में भाड़े की नागरिकता नहीं चल सकती. इस खतरे को जितना जल्दी पहचान लें, उतना ठीक होगा. ध्यान रखें आप यदि अभद्र हैं तो अपने भीतर कुंठित और संभावित हिंसक हैं. अगर आप अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करते या सही ठहराते हैं तो जाहिर है कि आप नैतिक रूप से अस्वस्थ हैं. अगर आप गलत चीज पर तटस्थ हैं या अन्याय की तरफदारी करते हैं तो आप उस पाप में अवश्य भागीदार हैं. दरअसल शिष्टता, सहिष्णुता और शालीनता के लिए बहुत छोटी छोटी चीजों से शुरुआत करनी होगी. जो समसामयिक राजनीतिक परिस्थियों में दूर की कौड़ी ही होगी.

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