संत और राष्ट्र जागरण
जब-जब देश-धर्म की हानि हुई है तब-तब भारत के संत महात्माओं ने भी अपने राष्ट्रधर्म का पालन करते हुए धर्म जागरण और राष्ट्र जागरण करने का पुनीत कार्य करने में अग्रणी भूमिका निभाई है। वैसे भी राष्ट्र में शांति और सुव्यवस्था का सुंदर परिवेश ही व्यक्ति को धर्मशील बनाता है, और तभी वह मुक्ति का अधिकारी भी बन पाता है। इसलिए संत महात्माओं के लिए तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति की सर्वांगीण उन्नति के लिए वह राष्ट्र जागरण और धर्म जागरण के अपने पुनीत दायित्व का निर्वाह करें।
‘मुक्ति’ हमारा मौलिक जन्मसिद्घ अधिकार है
भारत की ऋषि प्रणीत पुण्य प्रणाली में व्यक्ति ‘स्व’ की मुक्ति का ही अभिलाषी यदि है तो वह ‘स्वार्थी’ है यहां तो प्रत्येक व्यक्ति को मुक्ति का अधिकारी माना गया है। इस प्रकार मुक्ति हमारा जन्मसिद्घ मौलिक अधिकार माना गया है। इस जन्मसिद्घ मौलिक अधिकार में जिस प्रकार की भी बाधाएं आती हैं, उन्हें दूर करना भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, इन्हीं जन्मसिद्घ अधिकारों के एकीभूत स्वरूप का नाम धर्म है।
स्वतंत्रता के इस एकीभूत स्वरूप धर्म की रक्षा का महती दायित्व प्राचीन काल से हमारे ऋषियों और संत महात्माओं पर रहा है। जिसे उन्होंने इतनी सुंदरता से निभाया है कि भारत के विषय में पढक़र अक्सर लोगों को यह भ्रांति हो जाया करती है कि यह देश राजा महाराजाओं और विराट सम्राटों का न होकर ऋषियों, संतों और महात्माओं का देश है। हम ऋषियों को ‘परमपूज्य महाराज’ कहते हैं तो राजा को केवल महाराज या महाराजा कहते हैं, अंतत: इन दोनों शब्दों के कहने का कोई तो अर्थ होगा, कोई तो इनकी गरिमा होगी?
भारत को ऋषियों या संतों का देश मानने की ऐसी भ्रांति हो भी क्यों नही? क्योंकि यहां के हर राजा महाराजा राट-विराट सम्राट के पीछे एक ‘चाणक्य या समर्थ गुरू रामदास’ खड़ा है।
राष्ट्र संत स्वामी महेश्वरानंद
बाबर के काल में भी ऐसे कई संत या महात्मा थे जिन्होंने राष्ट्र जागरण और धर्म जागरण के अपने पुनीत दायित्व का निर्वाह बड़ी सुंदरता से किया था। ‘क्या कहती सरयू धारा’ के लेखक ‘दशनामी नागा संन्यासियों का इतिहास’ लाला सीताराम रचित ‘अयोध्या का इतिहास’ जैसे कई ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर हमें उस समय के एक राष्ट्र संत स्वामी महेश्वरानंद के विषय में बताते हैं कि वह स्वामीजी एक बहुत ही ओजस्वी वक्ता थे। वह अपने भक्तों से कहते थे-शरीर पर चंदन तिलक और भस्म लगाना आवश्यक है। ये मन में पवित्रता का भाव उत्पन्न करते हैं, ईश्वर के चरणों में पूर्ण समर्पण के संकल्प को दृढ़ करते हैं और व्यक्ति का मनोबल और सामथ्र्य बढ़ाते हैं, इसमें कोई संदेह नही। किंतु जब देश व समाज पर शत्रुओं का आक्रमण हो, तब धर्म की रक्षा करना ही हमारी प्राथमिक आवश्यकता होती है। राष्ट्र के शत्रुओं और धर्मद्रोहियों को साम, दाम, दण्ड भेद से जैसे भी हो नष्ट कर देश के बाहर निकालना, प्रत्येक नागरिक का धर्म है।’’
भारत के ‘स्व’ की साक्षात प्रतिमा बन गये थे स्वामी जी
राष्ट्र के ‘स्व’ को झकझोरकर जगाना राष्ट्रप्रचेता का कत्र्तव्य होता है। जिस राष्ट्र का ‘स्व’ सजग-सचेत और जागरूक रहता है समझो वहां का ब्रह्मबल अपना दायित्व पूर्ण निष्ठा से निर्वाह कर रहा है, और वहां का क्षात्रबल पूर्णत: सजग है। महेश्वरानंद भारत की आत्मा के ‘स्व’ की साक्षात प्रतिमा बन गये थे। उनके संबोधन राष्ट्र को मचलने के लिए आंदोलित और विचलित कर डालते थे। जो भी उन्हें सुनता वही उनका होकर रह जाता।
वैचारिक क्रांति के अग्रदूत के रूप में वह भारत की आत्मा को झकझोर रहे थे और ‘राम’ के नाम पर भारत मचल उठता था। अभी भी लोगों के अंतर्मन में भीटी के महाराजा महताब सिंह और देवीदीन पाण्डे जैसे वीर योद्घाओं की स्मृृतियां एक बिजली की भांति कौंधती थीं और उन्हें हिलाकर रख जाती थीं।
सुहेलदेव की लोककथाएं भी लोगों के मनमस्तिष्क पर अभी भी ऐसा चमत्कारिक प्रभाव डालती थीं, कि उसका नाम आते ही युवा देश और धर्म पर बलिदान देने के लिए मचल उठते थे।
इसी प्रकार की परिस्थितियों के मध्य स्वामी महेश्वरानंद विशाल क्रांति यज्ञ का आयोजन कर रहे थे। लोग किसी भी मूल्य पर अपने राष्ट्र के ‘स्व’ को क्षत विक्षत या आहत होता देखना नही चाहते थे। इसलिए जो भी स्वामी जी को सुनता वही राष्ट्रवेदी की पुकार को सुनकर उस ओर अनायास ही बढऩे लगता।
रानी जयराज कुमारी भी स्वामी जी से हुईं प्रभावित
हंसवर की रानी जयराज कुमारी भी स्वामी जी महाराज के राष्ट्र और धर्म से प्रेरित ओजस्वी भाषणों से बहुत प्रभावित रहती थीं। वह बचपन से ही बहुत वीर और साहसी महिला थीं। अपने देश के ऊपर म्लेच्छों का शासन या विदेशी लोगों का राज उसे एक क्षण के लिए भी प्रिय नही था। इसलिए रानी अक्सर स्वामी जी महाराज के प्रवचनों में उपस्थित रहती थीं। जिससे नारी जागरण को प्रोत्साहन मिलता था।
रानी और उसकी अनेकों सहेलियों तथा समाज की अनेकों महिलाओं का जत्था स्वामी जी के प्रवचनों को सुनता और देश की स्वतंत्रता की ज्योति को जलाये रखने के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने वाली अनेकों ‘पदमिनियों’ के रोमांचकारी किस्से कहानी सुनकर उनका रोम-रोम मचलने लगता था।
महर्षि दयानंद जी महाराज का कथन है-‘‘अयं खलु पशुपक्षिणामपि स्वभावो अस्ति यदा कश्चित् तदगृहादिक ग्रहीतुमिच्छेत् तदा यथाशक्ति युद्घयंत एव’’ अर्थात यह तो पशुपक्षियों का भी स्वभाव है कि जब कोई उनके घर (घोंसले) आदि को छीन लेने की इच्छा करता है तब वे यथाशक्ति युद्घ करते ही हैं।’’
स्वामी दयानंद जी महाराज का मंतव्य स्पष्ट है कि किसी भी स्वाभिमानी देश के नागरिकों को अपने देश के किसी भू भाग को छिनते देखकर या अपने धर्म और संस्कृति पर किसी प्रकार के प्रहार के क्षणों में मौन नही बैठना चाहिए।
राष्ट्र विखण्डन कब होता है?
राष्ट्र विखण्डन के तत्वों पर यदि विचार किया जाए तो कोई भी सुसंगठित राष्ट्र तभी विखंडित होता है जब एक शास्त्र के स्थान पर उसमें अनेक शास्त्र, एक देवता के स्थान पर अनेक देवता, एक राष्ट्र के नाम पर अनेक राष्ट्र, एक भाषा के नाम पर अनेक भाषाएं प्रचलित होकर अनेकतावाद को प्रोत्साहित करने लगते हैं। भारत के विखण्डन के लिए ये तत्व सहायक रहे हैं। जिनका उल्लेख यहां उचित और प्रासंगिक नही होगा।
संत देते हैं राष्ट्र को विसंगतियों का समाधान
राष्ट्र के सदिच्छा संपन्न ब्रह्म बल के धनी संत महात्मा लोगों की इच्छा रहती है कि राष्ट्र में व्याप्त होने वाली अनेकतावाद की किसी भी प्रकार की विसंगतियों का वह समय रहते समाधान देते हैं। जब राष्ट्र का ‘स्व’ और ‘स्व’ का राष्ट्र एक है तो देश में बहुलतावाद का समर्थन करने वालों को ऋषि और महात्मा लोग समझाया करते हैं कि बहुलतावाद एक भयानक प्रवृत्ति है, जिसे स्वीकार नही किया जा सकता। स्वामी महेश्वरानंद इसी ‘स्व’ को जागृत कर भारत की आत्मा के प्रतिनिधि विराट पुरूष बन चुके थे। जिसे रानी जयराज कुमारी ने हृदय से स्वीकार किया।
रानी का उत्कृष्ट चिंतन
रानी जयराजकुमारी अपने पूर्वज राजा सुहेलदेव के पावन नाम का सिमरण करती और वेद के शब्दों में अपनी भावनाओं का यूं प्रकटन करती-
‘यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे यस्यां देवा असुरान श्यवत्र्तमन। गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्च: पृथिवी नो दधातु।’ (अथर्व. 12/1/5)
अर्थात जिस हमारी मातृभूमि में पुराने समय में हमारे पूर्वज लोग बल, बुद्घि, ऐश्वर्य से प्रसिद्घ सब भांति पराक्रम रूप कत्र्तव्य अच्छी प्रकार करते रहे हैं, जिसमें विद्वान और वीर पुरूष राक्षसी स्वभाव वाले लोगों को जीतते रहे हैं, जो गौओं, घोड़ों और विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों को विशेष सुख देने का स्थान है, वह हमारी मातृभूमि हम को ऐश्वर्य, तेज और शौर्य प्रदान करे। अर्थात हमारे पूर्वजों ब्राह्मणों ने अपने ज्ञान द्वारा क्षत्रियों ने अपनी वीरता के माध्यम से, वैश्यों ने वाणिज्य द्वारा और कारीगर व शिल्पकारों ने कारीगरी द्वारा श्रेष्ठ आदर्शों एवं मापदण्डों को स्थापित किया है, जिन्हेांने मिलकर दुष्ट घातकी, हिंसक और आततायी लोगों को नष्ट किया है ऐसी मातृभूमि हमें सर्वांगीण समृद्घि प्रदान करे।
इसका अभिप्राय है कि मातृभमि कभी भी पराधीन ना रहे। क्योंकि यदि मातृभूमि पराधीन है तो वह अपने लोगों की सर्वांगीण समृद्घि में सहायक नही हो सकती। इसलिए लोगों की सर्वांगीण समृद्घि के लिए भारत प्राचीन काल से ही राष्ट्र की स्वतंत्रता का समर्थक रहा है।
रानी बचपन से ही वीरांगना थी
रानी जयराजकुमारी पर अपने पूर्वज राजा सुहेलदेव और भारत की संस्कृति के साथ-साथ स्वामी महेश्वरानंद के विचारों का प्रभाव पड़ रहा था। उसने अपने बचपन में एक मुस्लिम सैनिक की हत्या केवल इसलिए कर दी थी कि वह उसके पूजा स्थल में जूता सहित प्रवेश कर गया था। इस दृश्य को देखकर मारे भय के उस मुसलमान सैनिक के अन्य साथी भाग गये थे। अब वही जयराजकुमारी हंसवर के शासक रणविजयसिंह की रानी थी।
रानी का विवाह संस्कार
राजा रणविजयसिंह एक शौर्य संपन्न वीर और पराक्रमी शासक थे। उधर रानी जयराज कुमारी सौंदर्य की प्रतिमा तो थी ही वह भी एक वीरांगना थी। इस प्रकार इन दोनों की जोड़ी ईश्वर ने किसी शुभकर्म के आधार पर बहुत अच्छी प्रकार से मिलायी थी, रणविजय सिंह पर भी रानी की भांति ही स्वामी महेश्वरानंद जी महाराज का विशेष प्रभाव था।
हमारे देश में ऋषि महर्षियों और संत महात्माओं की प्राचीन काल से ही प्रवृत्ति रही है कि वे अपने मंतव्य को क्षत्रिय राजाओं से पूरा कराने के लिए उन्हें कई प्रकार से उत्तेजित व प्रेरित करते रहे हैं।
स्वामी दयानंद जी महाराज भी अक्सर राजा महाराजाओं के अतिथि हुआ करते थे। वह जानते थे कि यदि राजा महाराजा सुधर गये और इनके भीतर राष्ट्र और धर्म के प्रति लगाव उत्पन्न हो गया तो जनता में तो अपने आप ही क्रांति फैल जाएगी।
मंदिर प्रकरण पर लोगों को आंदोलित कर देते थे स्वामी जी
स्वामी महेश्वरानंद भी यही कह रहे थे। वह रामजन्म भूमि के मंदिर के प्रकरण को लेकर जब बोलते थे तो राजाओं के रोंगटे खड़े हो जाते थे। इस प्रकार पूरा देश उस समय महेश्वरानंदमय था। उस महात्मा को आज का इतिहास एक पंक्ति के माध्यम से उसका गुणगान करके महिमामंडन करने के लिए स्मरण करना उचित नही समझता।
राममंदिर के प्रति मीर बंकी खान के दृष्टिकोण की जानकारी शनै: शनै: राजा रणविजयसिंह और रानी जयराज कुमारी को भी हो गयी थी। उनका राज्य हंसवर यद्यपि रामजन्मभूमि अयोध्या से 75-80 किमी की दूरी पर स्थित था, परंतु जब बात राष्ट्रधर्म के निर्वाह की हो तो उसमें दूरी नही देखी जाती है, उसमें देखी जाती हैं जिम्मेदारियां। उसमें किसी प्रकार का सिर पर बोझ नही होता है-अपितु होता है केवल कत्र्तव्य -बोध, धर्मबोध, इतिहासबोध, राष्ट्रबोध और दायित्व बोध। आज ये सारे ‘बोध’ एकीभूत होकर उनकी राष्ट्रभक्ति की परीक्षा लेना चाहते थे, इसलिए ये सब बलिदान और वीरता की भाषा बोल रहे थे।
राजा और रानी करने लगे सैनिक तैयारियां
फलस्वरूप रणविजयसिंह और रानी जयराजकुमारी ने बाबरी सेना के साथ संघर्ष की तैयारियां आरंभ कर दीं। उन्हें ज्ञात था कि उनके पूर्वजों ने सालारमसूद के विरूद्घ भी किस प्रकार संघर्ष में भाग लिया था, और किस प्रकार सालारमसूद की सेना के छक्के छुड़ा दिये थे। आज वह दोनों पुन: अपने पूर्वजों की बलिदानी गाथा की पुनरावृत्ति कर देना चाहते थे। इसलिए रणविजयसिंह ने तो सेना एकत्र करनी आरंभ की ही, रानी जयराजकुमारी ने भी लगभग तीन हजार वीरांगनाओं की एक अच्छी सेना का गठन कर लिया।
‘क्या कहती सरयू धारा’ के लेखक ने हमें बताया है-‘‘महाराजा रणविजयसिंह और विशेष रूप से महारानी जयराजकुमारी ने अपनी सेना को आधुनिकतम शस्त्रों से सुसज्जित किया था। हंसवर राज्य केपूर्वज भी सालार मसूद से लड़े थे। रणभूमि में उनकी तौबा-तौबा करा दी थी। महारानी जयराजकुमारी ने तीन हजार नारियों की रण निपुण सशस्त्र सेना तैयार की थी। कौशल राज्य में यह उनका अभिनव प्रयोग था। मीर बांकी ने बहुत हाथ पैर चलाये कि हंसवर राज्य को हस्तगत कर ले पर उसकी आकांक्षा पूरी न हो सकी।’’
बाबर से युद्घ हो गया आरंभ
उधर बाबर को जब यह समाचार मिला कि महाराजा रणविजय सिंह और राणी जयराजकुमारी ने मीर बकी खां को ‘नाको चने चबा’ रखे हैं तो उसने मीर बकी खान के लिए एक विशाल सेना सहायक सेना के रूप में भेज दी। जिससे मीर बांकी खान को प्राण ऊर्जा मिल गयी। बाबर की ओर से भेजी गयी सेना का समाचार मिलते ही बकी खां का उत्साह दो गुणा हो गया, उसकी सेना का भी मनोबल बढ़ गया और वे उत्साहित होकर युद्घ करने लगे। रणविजय सिंह पर और उसके साहस पर बाबर की सहायक सेना के आने की सूचना का कोई प्रभाव नही पड़ा, वह न तो युद्घ से भागा और न पीछे हटा। ‘रण’ को ‘विजय’ करने हेतु वह ‘सिंह’ की भांति लड़ता रहा। राजा रणविजय सिंह को पता था कि सैनिक और सेनानायक के धैर्य की परीक्षा कब होती है, और यह भी कि हमें अत्यंत विषय परिस्थितियों में से बाहर निकल आने के लिए उस समय कौन-कौन से कार्य करने चाहिए? अत: रणविजयसिंह ने अपनी सेना को साथ लेकर शत्रु की सेना के विरूद्घ युद्घ निरंतर जारी रखा। राजा ने एक दिन रानी से कहा कि शत्रु को मार भगाना ही मेरे इस युद्घ का उद्देश्य है यदि मैं इस उद्देश्य में सफल न हो पाया, तो अपने पूर्वजों की, बलिदानी परंपरा का अनुगामी होकर उसी मार्ग का अवलंबन करूंगा जिस पर हमारे पूर्वज चले गये हैं। पर उस समय तुम्हारी सुरक्षा की चिंता मुझे अवश्य होगी।
रानी ने कह दिया-‘मैं अपना कत्र्तव्य निभाना जानती हूं’
रानी ने भी अपने पति की चिंता को समझ लिया और उस वीरांगना ने यह भी समझ लिया कि यदि कोई महारथी युद्घ के लिए जाते समय या युद्घकाल में किसी भी प्रकार के तनाव से ग्रस्त रहता है तो उस तनाव का उसके मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा करता है। इसलिए हर क्षत्राणी को अपने पति को युद्घ के लिए प्रस्थान करते समय उसे इस बात से निश्चिंत कर देना चाहिए कि उसके जाने के पश्चात भी ऐसा कुछ नही होगा, जो उसके सम्मान को या उसके पूर्वजों के यश को क्षति पहुंचाए। अत: रानी ने भी बड़े शांत भाव से परंतु वीरोचित शैली में कह दिया कि महाराज आप निश्चिंत होकर युद्घ करें, मैं वीरांगना हूं और आपके यश और कुल की मर्यादा का पूरा ध्यान करते हुए ऐसा कुछ नही करूंगी जो आपकी भावनाओं या कुल परंपरा के प्रतिकूल हो। आपके जाने के पश्चात भी युद्घ जारी रहेगा, और मुगलों से किसी भी प्रकार के संधि समझौते की बात नही होती।
राणा ने तैयार की 25 हजार की सेना
राणा अपनी वीरांगना पत्नी के वचनों से संतुष्ट हो आज अपनी सेना को साथ लेकर अपने राज्य का उत्तरदायित्व भी अपनी रानी को सौंप दिया था, और अपनी 25000 की सेना को लेकर युद्घ स्थली की ओर बढ़ा। प्रताप नारायण मिश्र हमें बताते हैं कि-‘‘मीर बकी अभी (राजा) महताब सिंह व देवीदीन पाण्डे की भयंकर मार से संभल भी नही पाया था कि इस अप्रत्याशित मार से उसकी नस-नस ढीली पड़ गयी। बांकी की बची-खुची सेना रणविजय सिंह की सेना के सामने टिक न सकी। उसके पैर उखड़ गये। जनश्रुति है कि मीर बांकी खां युद्घपटल से न जाने कैसे अदृश हो गया? कदाचित वह जान बूझकर रणनीति के अनुसार या भयग्रस्त होकर या कुमुक की प्रतीक्षा में गायब हुआ था।’’
रामजन्मभूमि के जीर्णोद्घार का कार्य हो गया आरंभ
राजा रणविजयसिंह ने अयोध्या स्थित रामजन्मभूमि को मुक्त करा लिया। उसे यह प्रसन्नता मिली तो सही भारी बलिदान देकर ही, पर यह प्रसन्नता उसके लिए स्थायी न रह सकी। राजा ने रामजन्मभूमि के जीर्णोद्घार का कार्य आरंभ करा दिया। काश! राजा मंदिर के जीर्णोद्घार से पूर्व बांकी खां के गायब होने के रहस्य को समझता और उसे ढूंढवाकर सर्वप्रथम उसे ही समाप्त कराता। पर राजा चूक कर गया और बांकी खां की अंतिम पराजय मानकर राममंदिर का जीर्णोद्घार कराना आरंभ कर दिया।
बांकी खान का पुन: आक्रमण और राजा का बलिदान
अभी राजा को 5-6 दिन ही हुए थे कि मीर बांकी खान ने राजा पर पुन: आक्रमण कर दिया। राजा को रामजन्म भूमि के जीर्णोद्घार का कार्य बीच में ही छोडक़र पुन: युद्घ करना पड़ा।
इस बार के प्रबल आक्रमण का सामना राजा रण विजय सिंह यद्यपि 8-9 दिन तक करते रहे, परंतु अंत में उन्हें वीरगति प्राप्त हो ही गयी। इस प्रकार राममंदिर के लिए अपने प्राणोत्सर्ग करने वाले वीर योद्घा राजा रणविजयसिंह ने मां भारती के अमर बलिदानियों में अपना नाम अंकित करा लिया। मां भारती ने अपने बलिदानी पुत्र को अपने अंक में स्थान दिया और उसे वीरों की चिरनिद्रा में सुलाकर स्वयं व्यजन ढालने लगी।
रानी नही हुई विचलित
रानी जयराजकुमारी को जब अपने पति की वीरगति का समाचार मिला तो वह सिंहनी तनिक भी विचलित नही हुई। अब उसने समझ लिया कि तेरी परीक्षा की घड़ी आ चुकी है। अत: रानी ने रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए अपने पति के पश्चात स्वयं युद्घ करने का निर्णय लिया। यद्यपि स्वामी महेश्वरानंद ने भी युद्घ में न जाने के लिए रानी से आग्रह किया, परंतु रानी अपने निर्णय पर अडिग रही और मातृभूमि व राष्ट्रमंदिर (राम मंदिर) की रक्षार्थ युद्घ करने के लिए चल दी। आज उसके समक्ष अपने पति और उन सभी योद्घाओं के बलिदानों की स्मृति की प्रेरक श्रंखला आ खड़ी हुई थी, जिन्होंने इस राष्ट्रमंदिर के लिए हंसते-हंसते अपना बलिदान दिया था। उसने अपने राज्य की बागडोर अपने पुत्र को सौंपी और स्वयं जा भिड़ी मुगलों से।
रानी ने दिया अपना बलिदान
‘दरबारे-अकबरी’ में अकबर लिखता है-‘‘सुल्ताने हिंद बादशाह हुमायूं के वक्त में संन्यासी स्वामी महेश्वरानंद और रानी जयराजकुमारी दोनों अयोध्या के आसपास के हिंदुओं को एकत्र कर निरंतर दस आक्रमण करते रहे। रानी जयराजकुमारी ने तीन हजार महिलाओं की सेना लेकर बाबरी मस्जिद पर जो अंतिम आक्रमण करके सफलता प्राप्त की थी, वह वजीर फौजी के हमराह जाने वाली शाही फौज ने रानी के हाथों से फिर बाबरी मस्जिद वापस ले ली। इस युद्घ में बड़ी खूंखार लड़ाई लड़ती हुई जयराजकुमारी मारी गयीं। स्वामी महेश्वरानंद भी (रानी के साथ) लड़ते-लड़ते अपनी साथियों सहित मारा गया।’’
स्वामी महेश्वरानंद का युद्घ में योगदान
स्वामी महेश्वरानंद जी महाराज ने इस युद्घ में रानी के लिए 24 हजार की सेना का सहयोग दिया था, और वह स्वयं भी लड़े थे। राम जन्मभूमि पर जब भी भव्य मंदिर बने, तब उसमेें उन वीर वीरांगनाओं के लिए एक श्रद्घा स्मारक अवश्य बने जिन्होंने अपने सुख और ऐश्वर्य को तिलांजलि देकर इसकी रक्षार्थ अपना बलिदान दिया। यह मांग जनसाधारण की ओर से भी उठनी चाहिए। तभी राममंदिर राष्ट्रमंदिर बन पाएगा। क्रमश: