कर्मठ कार्यकर्त्ता  श्री बालासाहब देवरस

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जन्मदिवस 11 दिसम्बर पर विशेष

संघ शिक्षा वर्ग की दिनचर्या में प्रतिदिन होने वाले बौद्धिक वर्ग का बहुत महत्त्व होता है। प्रायः वर्ग के सर्वाधिकारी ही उनका परिचय कराते हैं; परन्तु 1943 में पूना के वर्ग में जब एक दिन वक्ता का परिचय कराने के लिए सरसंघचालक श्री गुरुजी स्वयं खड़े हुए, तो स्वयंसेवक चकित रह गये।

श्री गुरुजी ने कहा, ”आप में से अनेक ने पूज्य डा. हेडगेवार को नहीं देखा होगा; पर आज के वक्ता को देखिये और सुनिये, आपको लगेगा कि स्वयं डाक्टर जी आपके सम्मुख खड़े हैं।“ यह केवल एक बार की बात नहीं। श्री गुरुजी प्रायः उनका परिचय ‘असली सरसंघचालक’, ‘‘जिनके कारण मुझे सरसंघचालक के नाम से पहचाना जाता है, ऐसे श्री बालासाहब“ तथा ”एक साथ संघ में दो सरसंघचालक नहीं हो सकते, इसलिए ये सरकार्यवाह हैं“ इसी प्रकार कराते थे।

बालासाहब शुरू से ही बहुत खुले विचारों के थे। उस समय छुआछूत, जातिभेद, खानपान में विभिन्न प्रकार के बन्धन आदि का सामान्य रूप से प्रचलन था; पर बालासाहब इन कुरीतियों एवं रूढ़ियों के घोर विरोधी थे। अतः सबसे पहले उन्होंने अपने घर का वातावरण ठीक किया। उनके सभी जाति के मित्र, स्वयंसेवक तथा कार्यकर्त्ता उनके घर जाते थे; भोजन का समय होने पर सब साथ-साथ रसोई में बैठकर भोजन भी करते थे। माँ ने प्रारम्भ में कुछ आपत्ति की; पर बालासाहब के स्पष्ट एवं दृढ़ विचारों के आगे उन्हें भी चुप होना पड़ा।

 

बी.ए. तथा एल.एल.बी. करने के बाद बालासाहब ने डाक्टर जी के परामर्श पर नागपुर के ‘अनाथ विद्यार्थी वसतीगृह’ में दो वर्ष तक पढ़ाया। इसी समय उन्हें नागपुर के नगर कार्यवाह का दायित्व भी दिया गया। 1939 में वे प्रचारक बनकर कोलकाता गये; परन्तु 1940 में डाक्टर जी के स्वर्गवास के कारण उन्हें पुनः नागपुर बुला लिया गया। तब से नागपुर ही उनकी गतिविधियों का केन्द्र रहा।

 

संघ का केन्द्र होने के कारण बाहर से आने वाले लोग नागपुर से प्रेरणा लेकर जायें, इस कल्पना के साथ बालासाहब ने काम सँभाला। अगले तीन-चार वर्ष में नागपुर में शाखाओं की संख्या पर्याप्त बढ़ गयी। शीत-शिविर, सहभोज, वन-विहार, नैपुण्य वर्ग आदि कार्यक्रमों की ओर उनका बहुत ध्यान रहता था। उन दिनों सभी व्यवस्था स्वयंसेवक खुद ही करते थे। शिविर में बांस-बल्ली गाड़ना, डेरे-तम्बू लगाना, शौचालय के लिए गड्ढे करना तथा बाद में उन्हें भरना भी, भोजनालय में रोटी-सब्जी बनाना, बर्तन साफ करना आदि। बालासाहब भी इनमें बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे।

 

एक अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य था नागपुर से प्रचारक तैयार कर पूरे देश में भेजना। संघ-कार्य के प्रारम्भिक 20-25 वर्ष तक विभिन्न प्रान्तों के संघ शिक्षा वर्गों में नागपुर से तीन-चार प्रमुख शिक्षक भेजे जाते थे। ऐसे कार्यकर्त्ताओं के घर-परिवार की वे सारे वर्ष चिन्ता करते थे। स्वयं बालासाहब भी अनेक बार नागपुर तथा पुणे के वर्गों में शिक्षक एवं मुख्यशिक्षक रहे।

 

नागपुर में बाहर से प्रतिदिन अनेक कार्यकर्त्ता अपने निजी कार्य से आते थे। बहुत से स्वयंसेवक अपनी या अपने किसी सम्बन्धी की चिकित्सा हेतु वहाँ आते थे। बालासाहब सबकी बात ध्यान से सुनकर उचित व्यक्ति के पास भेजकर उसका निदान कराते थे। बीमार स्वयंसेवकों को अपने निष्ठावान कार्यकर्त्ताओं के घरों पर ठहराने की व्यवस्था की जाती थी। जो कार्यकर्त्ता प्रचारक बनकर बाहर जाते थे, उनके परिवार में कोई कठिनाई न हो तथा प्रचारक जीवन से वापस लौटने के बाद वह कार्यकर्त्ता ठीक से नौकरी-व्यवसाय आदि में लग जाये, इन सब बातों पर बालासाहब का विशेष ध्यान रहता था।

 

बिल्कुल प्रारम्भ से ही संघ तथा डाक्टर जी से जुड़े रहने के कारण बालासाहब का संघ की कार्यपद्धति के क्रमिक विकास में बहुत योगदान रहा है। संघ का गणवेश, शाखा तथा संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक/बौद्धिक कार्यक्रम एवं उनमें समय-समय पर हुए परिवर्त्तनों के वे प्रत्यक्ष साक्षी रहे। गणगीत तथा समूहगान की पद्धति बालासाहब ने ही शुरू की।

 

1937 में नगर कार्यवाह बनने पर उन्होंने पांच भावपूर्ण गीतों का चयन कर स्वयंसेवकों को उन्हें याद कराया। विजयादशमी उत्सव में 2,000 स्वयंसेवकों द्वारा उनके सामूहिक गायन से एक अद्भुत वातावरण बन गया। ”खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आँधी पानी से“ को सुनकर तो दर्शक एवं श्रोता भी रोमांचित हो उठे। इसी प्रकार शिविरों तथा प्रबुद्ध नागरिकों के कार्यक्रमों में सबसे सीधा संवाद बनाने के लिए बालासाहब ने प्रश्नोत्तर कार्यक्रम शुरू किये। कभी-कभी तो कम आयु के विद्यार्थी बड़े अजीब प्रश्न पूछ लेते थे; पर नाराज न होते हुए वे धैर्यपूर्वक उनका उचित समाधान करते थे।

 

बालासाहब किसी भी निर्णय को लेने से पूर्व संगठन एवं समाज, दोनों स्तर पर पर्याप्त विचार-विमर्श करते थे। संगठन के ‘एकचालकानुवर्ती’ स्वरूप पर वे स्पष्ट कहते थे कि संगठन की प्रारम्भिक अवस्था में यही पद्धति उत्तम है; पर अब जब हर स्तर पर सुयोग्य कार्यकर्त्ताओं की टोली खड़ी हो गयी है, तो सामूहिक चिन्तन की पद्धति ही उचित है। ऐसे ही वे संगठन के लिए संगठन (Organisation for organisation) को प्रारम्भिक अवस्था के लिए उचित एवं अपरिहार्य मानते थे; पर एक निश्चित आधार प्राप्त कर लेने पर एकत्रीकरण तथा कृति (Mobilization and action) भी आवश्यक है। अन्यथा संघ समाज से अलग एक पन्थ तथा संघस्थान के कार्यक्रम कर्मकाण्ड बन जाएंगे। उन्होंने संघ को इस द्वितीय चरण के लिए तैयार किया।

 

बालासाहब ंने अपने परिश्रम, सतत् प्रवास तथा नव-नवीन सोच के आधार पर संघ को विश्व-स्तर का एक अग्रणी सामाजिक तथा बौद्धिक संगठन बनाया। साथ ही संघ के विचार को समाज-कार्य के लिए व्यावहारिक रूप देकर, सेवा-कार्यों द्वारा उसे अपनी कार्यपद्धति में जोड़कर स्वयंसेवकों के जीवन में भी उतारा। आज पूरे देश में स्वयंसेवक जो लाखों सेवा-कार्य चला रहे हैं, इसके पीछे मूल प्रेरणा बालासाहब की ही है।

 

संघ जैसे बड़े संगठन का प्रमुख होने के बाद भी बालासाहब स्वयं को एक सामान्य व्यक्ति ही समझते थे। देहान्त से काफी समय पूर्व उन्होंने यह इच्छा प्रकट कर दी थी कि उनका अन्तिम संस्कार पू. डा. हेडगेवार तथा गुरुजी के समान रेशीम बाग संघस्थान पर न करके सामान्य श्मशान घाट में ही किया जाये। अतः नागपुर के गंगाबाई घाट पर उनकी अन्तिम क्रिया सम्पन्न हुई।

– विजय कुमार,

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