धर्म-अध्यात्म

हरे कृष्ण महामन्त्र – एक अर्थ

 

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥

 

अनुष्टुप्छन्द में रचा गया, ३२ अक्षरों वाला यह मन्त्र ’हरे कृष्ण महामन्त्र’ के नाम से सुप्रसिद्ध है । कहीं कहीं पर दोनों पङ्क्तियों के क्रम को बदल कर भी कहा जाता है, और विद्वानों के मत में ऐसा करने से मन्त्र के अर्थ, प्रभाव आदि में कोई परिवर्तन नहीं आता । आज हम संस्कृत व्याकरण के अवलम्बन से इस मन्त्र के अर्थ पर कुछ प्रकाश डालेंगे ।

 

सम्बोधन प्रथमा विभक्ति

 

हरे कृष्ण महामन्त्र में प्रत्येक पद (शब्द) ’सम्बोधन प्रथमा’ विभक्ति में है । संस्कृत में किसी भी शब्द के अनेक ’रूप’ होते हैं, और प्रत्येक रूप कुछ भिन्न अर्थ सूचित करता है । उदाहरण के लिए ’राम’ शब्द को लेते हैं । यदि राम शब्द ’कर्ता’ के अर्थ में प्रयुक्त हो, तो ’रामः’ बन जाता है । जैसे, ’राम पूछता है’ इति संस्कृत में बन जाता है, ’रामः पृच्छति’ इति । यदि राम ’कर्म’ के अर्थ में प्रयुक्त हो, तो ’रामम्’ बन जाता है । जैसे, ’कृष्ण राम को पूछता है’ इति, बन जाएगा ’कृष्णः रामम् पृच्छति’ इति । और यदि कोई राम को सम्बोधित करते हुए या पुकारते हुए कुछ कहना चाहता है, जैसे कि ’राम, इधर आओ’ इति, तो संस्कृत में वह ऐसे बोल सकता है, ’राम, अत्र आगच्छ’ इति । ध्यान दें, यहाँ सम्बोधन करते हुए ’राम’ शब्द का रूप ’राम’ ही रहा । यह रूप, जो सम्बोधन के अर्थ में प्रयुक्त होता है, कहलाता है ’सम्बोधन प्रथमा विभक्ति’ का रूप । परन्तु, ध्यान दें कि यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक शब्द का सम्बोधन प्रथमा विभक्ति का रूप उस शब्द के समान ही हो । किसी भी शब्द के सम्बोधन प्रथमा विभक्ति के रूप को हम तीन अंशों को ध्यान में रख कर कुछ उदाहरणों की सहायता से सरलतापूर्वक ही निकाल सकते हैं । ये तीन अंश हैं –

 

१. शब्द का अन्तिम वर्ण – जैसे ’राम = र् + आ + म् + अ’ में अन्तिम वर्ण है ’अ’, ’सीता = स् + ई + त् + आ’ में अन्तिम वर्ण है ’आ’, ’मुनि = म् + उ + न् + इ’ में अन्तिम वर्ण है ’इ’, इत्यादि । अतः राम ’अकारान्त’ शब्द है, सीता ’आकारान्त’ शब्द है और मुनि ’इकारान्त’ शब्द है ।

 

२. शब्द का लिङ्ग – संस्कृत में पुंलिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग, ये तीन लिङ्ग होते हैं । हमारे उदाहरण में ’राम’ और ’मुनि’ पुंलिङ्ग शब्द हैं, और ’सीता’ स्त्रीलिङ्ग शब्द है ।

 

३. शब्द का वचन – संस्कृत में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन, ये तीन प्रकार के वचन (या सङ्ख्या) होते हैं । इस लेख में हम केवल एकवचन पर ही ध्यान केन्द्रित करेंगे ।

 

सम्बोधन प्रथमा विभक्ति रूपों के कुछ उदाहरण

 

१. ’अकारान्त पुंलिङ्ग शब्द, एकवचन’ – इन शब्दों के सम्बोधन प्रथमा विभक्ति के रूपों में कोई परिवर्तन नहीं होता । जैसे – ’राम’, ’श्याम’, ’गौरव’, ’अङ्कित’ और ’मनोहर’ को सम्बोधित करते हुए या पुकारते हुए हम क्रम से ’राम’, ’श्याम’, ’गौरव’, ’अङ्कित’ और ’मनोहर’ ही कहेंगे ।

 

२. ’आकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्द, एकवचन’ – इन शब्दों के सम्बोधन प्रथमा विभक्ति के रूप में अन्तिम वर्ण ’आ’ ’ए’ में परिवर्तित हो जाता है । जैसे – ’सीता’, ’राधा’, ’रमा’, ’अङ्किता’ और ’शारदा’ को सम्बोधित करते हुए क्रम से ’सीते’, ’राधे’, ’रमे’, ’अङ्किते’ और ’शारदे’ कहा जाता है ।

 

३. ’इकारान्त पुंलिङ्ग शब्द, एकवचन’ – इन शब्दों के सम्बोधन प्रथमा विभक्ति के रूप में अन्तिम वर्ण ’इ’ ’ए’ में परिवर्तित हो जाता है । जैसे – ’मुनि’, ’हरि’ और ’ऋषि’ को सम्बोधित करते हुए क्रम से ’मुने’, ’हरे’, और ’ऋषे’ कहा जाता है ।

 

४. ’ईकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्द, एकवचन’ – इन शब्दों के सम्बोधन प्रथमा विभक्ति के रूप में अन्तिम वर्ण ’ई’ ’इ’ में परिवर्तित हो जाता है । जैसे – ’लक्ष्मी’, ’गौरी’, ’पार्वती’, ’देवी’ और ’जानकी’ को सम्बोधित करते हुए क्रम से ’लक्ष्मि’, ’गौरि’, ’पार्वति’, ’देवि’ और ’जानकि’ कहा जाता है ।

 

५. ’उकारान्त पुंलिङ्ग शब्द, एकवचन’ – इन शब्दों के सम्बोधन प्रथमा विभक्ति के रूप में अन्तिम वर्ण ’उ’ ’ओ’ में परिवर्तित हो जाता है । जैसे – ’भानु’, ’विष्णु’ और ’प्रभु’ को सम्बोधित करते हुए क्रम से ’भानो’, ’विष्णो’ और ’प्रभो’ कहा जाता है ।

 

महामन्त्र का अर्थ

 

महामन्त्र में तीन भिन्न शब्द प्रयुक्त हैं – ’हरे’, ’राम’ और ’कृष्ण’ । अब हम ये जान चुके हैं कि इन तीन शब्दों के माध्यम से मन्त्र में भगवान् श्रीविष्णु को तीन भिन्न नामों से पुकारा जा रहा है, और ये नाम हैं – ’हरि’, ’राम’ और ’कृष्ण’ ।

 

तो अब ये आप स्वयं ही सोच सकते हैं, कि जब हम किसी को पुकारते हैं, तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है । किसी को पुकारने से हम उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते हैं । वह जन हमारी ओर देखता है । तो बस, यही तो इस मन्त्र का पाठक कर रहा है – प्रभु का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है, उसे बता रहा है कि देखिए प्रभु, इस मोह माया वाले संसार में मैंने तुम्हें याद रखा है, और इसी से मैं अत्यन्त सुखी हूँ ।

 

प्रायः आप सोच रहे होंगे, कि जब हम किसी को सम्बोधित करते हैं, तब उसका नाम लेने के बाद अपने मन की बात को वाणी के माध्यम से स्पष्ट कहते हैं । परन्तु महामन्त्र में तो हमने केवल नाम ही लिया है । क्या प्रभु भी ये सोचते होंगे, कि ये किस प्रयोजन से बार बार मेरा नाम ले रहा है ? ये स्पष्ट क्यूँ नहीं कहता ? इस का उत्तर मैं एक उदाहरण के माध्यम से देता हूँ । एक छोटा बच्चा जब भी अपने पिता के साथ आपण (बाजार) जाता था, एक टॉफी के लिए जिद्द करता था । पिताजी उसे टॉफी क्रय करके खिला तो देते थे, पर घर आकर समझाते थे कि प्रिय पुत्र, इससे तुम्हारे दन्त नष्ट हो सकते हैं, तो इसे न खाया करो । फिर भी, बच्चा तो बच्चा ही होता है । कुछ समय बाद पिता के साथा आपण जाने पर बच्चे के स्वभाव में एक परिवर्तन आया । यद्यपि उसकी टॉफी खाने की इच्छा वैसी ही रही, वह ये जान गया कि टॉफी खाने के लिए पिता को मनाना ही मुख्य कार्य है, स्पष्ट कहना नहीं । क्यूँकि वह यह जानता था कि पिता भी उसकी इच्छा से अवगत तो हैं ही । तो पिता को मनाने के लिए उसने इतरा कर व प्रेम से केवल पिता को भिन्न भिन्न नामों से पुकारना आरम्भ किया । वह बोला –

 

पिताजी.. पापा.. पिताजी.. पापा.. पापा.. पापा.. पिताजी.. पिताजी..

पिताजी.. डैडी.. पिताजी.. डैडी.. डैडी.. डैडी.. पिताजी.. पिताजी..

 

ऐसा सुनने पर पिता भी समझ गए कि उनका पुत्र क्या चाहता है, और मन्दहास के साथ टॉफी क्रय करके बच्चे को खिला दी ।

 

तो भाइयों और बहनों, अब आप भी समझ ही गए होंगे कि उपर्युक्त हृदयस्पर्शी कथा के माध्यम से मैं क्या आशय व्तक्त करना चाहता हूँ । प्रभु तो हमारे पिता समान ही हैं, वे हमारे हृदय की बात को तो जानते ही हैं । परन्तु जब हम भक्तिभाव से युक्त होकर उनके भिन्न भिन्न नाम लेकर उन्हें पुकारते हैं, तो हमारा ये भाव उनके हृदय को स्पर्श करता हुआ उनसे हमारी इच्छा की पूर्ति करा ही लेता है ! यदि हम कोई भौतिक अर्थ के प्रयोजन से ऐसा करते हैं, तो वे प्रभु उसकी भी पूर्ति करते हैं, और यदि हम आध्यात्मिक प्रगति की इच्छा रखते हैं, तो वह भी वो जानते ही हैं और पूरी करते हैं । जिस तरह से बच्चे के मनाने पर भी पिता उसे खेलने के लिए कोई पैनी खड्ग आदि शस्त्र या कोई और ऐसी वस्तु नहीं देते जिससे बच्चे की हानि हो, उसी प्रकार प्रभु भी हमारे हित का ही ध्यान रखते हुए हमारी इच्छा की पूर्ति या अपूर्ति का निर्णय लेते हैं । और जो भक्त उनसे यही अपेक्षा रखते हैं कि उनके प्रति भक्त की भक्ति की वृद्धि हो, वे भक्त भी अपनी मनोकामना पूरी होती हुई ही देखते हैं । मेरे मत में, यही है हरे कृष्ण महामन्त्र की महिमा ।

 

कुछ भिन्न अर्थ

 

१. आपने ऊपर प्रायः ध्यान दिया हो, कि जैसे ’हरि शब्द’ का सम्बोधन प्रथमा विभक्ति का रूप ’हरे’ है, उसी प्रकार ’आकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्द हरा’ का रूप भी ’हरे’ ही निकलता है । अतः ’हरे’ से २ आशय सम्भव हैं, ’हरि’ और ’हरा’ । ’हरि’ मानकर हमने ऊपर व्याख्या की ही है । यदि ’हरा’ माना जाए, तो एक मत के अनुसार हरा का अर्थ है ’हरि की शक्ति’ इति । अतः इस मतानुसार महामन्त्र के माध्यम से हम हरा और हरि (कृष्ण या राम के नाम से), दोनों को ही याद करते हैं । पहले हरा को, और फिर हरि (राम या कृष्ण) को ।

 

२. एक अन्य मतानुसार हरा का तात्पर्य ’राधा’ माना गया है, व ’राम’ का तात्पर्य ’राधारमण = कृष्ण = श्याम’ माना गया है । अतः इस मतानुसार अधोलिखित मन्त्र अर्थ, प्रभाव आदि सभी प्रकार से महामन्त्र के समान ही है । ध्यान दीजिए, यहाँ दोनों पङ्क्तियों का क्रम परिवर्तित है –

 

राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे ।

राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे ॥

 

आप जिस भी मत को मानें, एक अंश जो समान रहता है वह है मन्त्र के सभी शब्दों का सम्बोधन प्रथमा विभक्ति में होना । और इससे क्या अर्थ निकलता है, यह समझने में अब आप सक्षम हैं ।

 

राधे राधे ॥