हिमाचल राजभवन में राष्ट्रनीति की गूंज

राकेश कुमार आर्य



हिमाचल राजभवन में राष्ट्रनीति की गूंजहमारा मानना है कि भारत को ‘विश्वगुरू’ बनाने का हमारा संवैधानिक लक्ष्य तभी पूर्ण हो सकता है जबकि हमारे राजभवनों में तपे हुए संत प्रकृति के और दार्शनिक बुद्घि के राजनेता विराजमान होंगे। राजभवनों में यदि निकृष्ट चिंतन के लोगों को भेजा जाएगा तो उनसे भारतीयता का भला होने वाला नहीं है। संस्कृति पुरूषों से ही राष्ट्र का कल्याण होता है। जो लोग राजभवनों में रहकर मांस और मद्य की दावतें करते हैं वे राजभवनों में बैठकर भारतीयता की हत्या करने वाले मान्यता प्राप्त ‘कसाई’ हैं। ऐसे लोगों से देश को खतरा है, गांधीजी की अहिंसा को खतरा है, और देश के मूल्यों को खतरा है। अत: राजभवनों में दार्शनिक बुद्घि के तपस्वी लोगों का प्रवेश अनिवार्य होना चाहिए।

हमने अपने प्यारे भारत की वैश्विक संस्कृति का विश्व में प्रचार-प्रसार कर भारत के मानवतावाद को विश्व की अनिवार्यता बनाने का ‘शिव संकल्प’ अपने संविधान के माध्यम से लिया है। जब हम भारत की ‘सामासिक संस्कृति’ को विश्व संस्कृति बनाकर उसे समष्टि के अनुकूल बनाने का संकल्प लेते हैं, अथवा भारत के ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श को अपनाकर विश्व को एक परिवार के रूप में देखते हैं तो उस समय हम ‘देव व्रत’ लेते हैं कि ऐसा करना हमारे जीवन का उद्देश्य है।

बात देवव्रत की चली है तो आइये-एक देव व्रती व्यक्तित्व के धनी राज्यपाल की कार्यशैली पर विचार करते हैं। जिन्होंने ‘देव व्रत’ लेकर भारत को विश्वगुरू बनाने का महासंकल्प लिया है और उसे अपने स्तर पर लागू भी किया है। जी हां, हम हिमाचल प्रदेश के महामहिम राज्यपाल आचार्य देवव्रत की ही बात कर रहे हैं। आचार्यवर अगस्त 2015 से हिमाचल प्रदेश के गवर्नर हैं। वह आर्य समाज के प्रचारक रहे हैं और गुरूकुल कुरूक्षेत्र के प्राचार्य भी रहे हैं। स्पष्ट है कि आर्य पृष्ठभूमि होने के कारण आचार्यवर का जीवन भारत की सनातन संस्कृति के मूल्यों की रक्षार्थ समर्पित है और वह भारत के राजधर्म और राष्ट्रधर्म से भली प्रकार परिचित हैं। महर्षि दयानंद के राजधर्म को उन्होंने अपने संस्कारों में और विचारों में रचा बसा लिया है। अत: वे राजभवन में रहकर किसी प्रकार की निकृष्ट राजनीति न करके ‘राष्ट्रनीति’ की आराधना करते हैं। बस यही वह अंतर है जो उनके व्यक्तित्व को निरालापन देता है। अपने व्यक्तित्व के इसी निरालेपन के कारण उन्होंने हिमाचल प्रदेश के राजभवन को अन्य प्रदेशों के राजभवनों की अपेक्षा विशिष्टता प्रदान की है।

ग्रेटर नोएडा के परी चौक पर चल रहे ‘राजसूय यज्ञ’ में वक्ता के रूप में मेरी ओर से राजस्थान के राज्यपाल मा. कल्याणसिंह के द्वारा अपनी सरकार को प्रदेश के विद्यालयों के पाठ्यक्रम में अपने महान ऋषि पूर्वजों के जीवन चरित्र को सम्मिलित करने के सराहनीय निर्णय की जानकारी उपस्थित धर्मानुरागी सज्जनों को दी गयी तो कार्यक्रम में मुख्यवक्ता के रूप में उपस्थित रहे आर्यजगत के मूर्धन्य विद्वान संन्यासी स्वामी श्रद्घानंद जी महाराज ने हिमाचल प्रदेश के महामहिम राज्यपाल आचार्य देव व्रत जी द्वारा किये जा रहे प्रशंसनीय कार्यों की जानकारी देकर लोगों को देर तक करतल ध्वनि करने के लिए प्रेरित व बाध्य कर दिया।

स्वामी जी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा कि महामहिम राज्यपाल आचार्य देवव्रत भारतवर्ष के संभवत: एकमात्र ऐसे राज्यपाल हैं जो राजभवन में प्रतिदिन यज्ञ करते-कराते हैं और यज्ञ के अवसर पर स्वयं उपस्थित रहते हैं। जब से वह राज्यपाल के रूप में वहां पहुंचे हैं तब से हिमाचल प्रदेश के राजभवन में मद्य-मांस का पूर्णत: निषेध हो गया है। जिससे अब वहां पूर्णत: सात्विकता का परिवेश व्याप्त हो गया है। इतना ही नहीं आचार्य देवव्रत ने अंग्रेजों के काल से चली आ रही उस यज्ञशाला का पुन: जीर्णोद्घार कराया है जिसमें बैठकर लोग मद्य-मांस का सेवन किया करते थे। राज्यपाल को जैसे ही यह पता चला कि इस यज्ञशाला का प्रयोग आजकल देशी-विदेशी अतिथियों को मद्यमांस का सेवन कर मनोरंजन करने के लिए प्रयोग किया जा रहा है, तो उन्होंने तुरंत उस स्थान को खुदवाकर वहां पुन: एक भव्य यज्ञशाला बनाने का आदेश दिया। जिसका कुछ संस्कृति विरोधियों ने विरोध भी किया, परंतु राज्यपाल अपनी बात कर अडिग रहे, फलस्वरूप भारत के इस प्रांत के राजभवन में यज्ञशाला का निर्माण हो गया। जिससे आजकल वहां नित्य-नियम से वेदमंत्रों की गूंज निकलती है और विश्वकल्याण के मंगलगीत गाये जाते हैं। ऐसी स्थितियां और राजभवनों में बैठे संविधान के रक्षकों की कार्यशैली निश्चय ही प्रशंसनीय है। भारत की राष्ट्रनीति आचार्य देवव्रत जैसे से राष्ट्रनायकों की ही आराधिका रही है। दुर्भाग्य से हमारे देश के लोकतंत्र की चोर-गलियों और उसकी दुर्बलताओं का लाभ उठाकर अपात्र लोगों को सम्मानित स्थान मिल जाते हैं, जिससे देश में अपूजनियों के पूजन करने का प्रचलन बढ़ा है और यह सर्वमान्य सत्य है कि जहां अपूजनियों का पूजन होता है, अपात्रों का सम्मान होता है, नालायकों का सत्कार होता है, वहां दुर्भिक्ष, मरण और भय का साम्राज्य होता है। देश से भय, भूख और भ्रष्टाचार नहीं मिटने वाले, ये तो तभी मिटेंगे जब राजभवनों में राष्ट्रनीति के तपे हुए आप्तपुरूषों को बैठाया जाएगा, क्योंकि राष्ट्रनीति मानवता की साधिका होती है, जिसे कोई ऐसा व्यक्तित्व ही पूर्णत: समझ सकता है-जिसके जीवन का आदर्श मानवतावाद हो और जो सभी प्राणियों के जीवन का सम्मान करना अपना जीवन ध्येय मानता हो।

आचार्य देवव्रत भारतीय राजधर्म के अनुकूल राजकीय गुणों से सुभूषित पूर्ण व्यक्तित्व के धनी हैं। ऐसे राज्यपालों से ही संविधान की मूलभावना का सम्मान होते रहने की संभावना होती है। हमें आशा करनी चाहिए कि हिमाचल प्रदेश का राजभवन अन्य प्रदेशों के राजभवनों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगा। क्या खूब कहा गया है-
बागे आलम में तमाशा बन, तमाशाई न बन।
तुझपे शैदा हो जमाना खुद तू शैदाई न बन।।

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