नवभवन द्वारा प्रकाशित महात्मा गांधी की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ का नौवां पाठ
पाठक: आपने रेल को रद्द कर दिया? वकीलों की निन्दा की, डाक्टरों को दबा दिया! तमाम कल-काम को भी आप नुकसानदेह मानेंगे, ऐसा मैं देख सकता हूं। तब सभ्यता कहें, तो किसे कहें?
संपादक: इस सवाल का जबाव मुश्किल नहीं है। मैं मानता हूं कि जो सभ्यता हिन्दुस्तान ने दिखायी है उसको दुनिया में कोई नहीं पहुंच सकता। जो बीज हमारे पुरखों नें बोये हैं उनकी बराबरी कर सके, ऐसी कोई चीज देखने में नहीं आयी। रोम मिट्टी में मिल गया। ग्रीस का सिर्फ नाम ही रह गया। मिस्र की बादशाहत ही चली गई। जापान पश्चिम के शिकंजे में फंस गया और चीन का कुछ भी कहा नहीं जा सकता। लेकिन गिरा टूटा जैसा भी हो। हिन्दुस्तान आज भी अपनी बुनियाद में मजबूत है।
जो रोम और ग्रीस गिर चुके हैं, उनकी किताबों से यूरोप के लोग सीखते हैं। उनकी गलतियां वे नहीं करेंगे। ऐसा गुमान रखते हैं। ऐसी उनकी कंगाल हालत है जब कि हिन्दुस्तान अचल है, अडिग है। यही उसका भूषण है। हिन्दुस्तान पर आरोप लगाया जाता है कि वह ऐसा जंगली, ऐसा अज्ञान है कि उससे जीवन में कुछ फेरबदल कराये ही नहीं जा सकते। यह आरोप हमारा गुण है, दोष नहीं। अनुभव से जो हमें ठीक लगा है, उसे हम क्यों बदलेंगे? बहुत से अकल देनेवाले आते जाते रहते हैं पर हिन्दुस्तान अडिग रहता है। यह उसकी खूबी है, यह उसका लंगर है।
सभ्यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के मानी है नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इन्द्रियों को बस में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को (अपनी असलियत को) पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उल्टा है वह बिगाड़ करनेवाला है।
बहुत से अंग्रेज लेखक लिख गये हैं कि ऊपर की व्याख्या के मुताबिक हिन्दुस्तान को कुछ भी सीखना बाकी नहीं रहता, यह बात ठीक है। हमने देखा कि मुनष्य की वृत्तिया चंचल है। उसका मन बेकार की दौड़ धूप किया करता है। उसका शरीर जैसे जैसे ज्यादा दिया जाय, वैसे वैसे ज्यादा मांगता है। ज्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता। भोग भोगने से भोग की इच्छा बढ़ती जाती है। इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बांध दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुख-दुख तो मन के कारण हैं। अमीर अपनी अमीरी की वजह से सुखी नहीं है। गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं है। अमीर दुखी देखने में आता है और गरीब सुखी देखने में आता है। करोड़ो लोग तो गरीब ही रहेंगे। ऐसा देखकर उन्होंने भोग की वासना छुड़वाई।
हजारों साल पहले जो हल काम में लिया जाता था उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोंपडे थे, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आई। हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी, सब अपना अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूर के मुताबिक दाम लिये। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरा की खोज करना ही नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरा की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगें। उन्होंने सोच-समझकर कहा कि हमें अपने हाथ पैरो से जो काम हो सके वही करना चाहिये। हाथ पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तन्दुरुस्ती है।
उन्होंने सोचा कि बड़े शहर खडे क़रना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगें। उनमें धूर्तों की टोलियां और वेश्याओं की गलियां पैदा होंगी। गरीब अमीरों से लूटे जायेंगे। इसलिए उन्होंने छोटे देहातों से संतोष माना।
उन्होंने देखा कि राजाओं और उनकी तलवार के बनिस्बत नीति का बल ज्यादा बलवान है। इसलिए उन्होंने राजाओं को नीतिवान पुरुषों, ऋषियों और फकीरों से कम दर्जों का माना। ऐसी जिस राष्ट्र की गठन है वह राष्ट्र दूसरों को सिखाने लायक है। वह दूसरों से सीखने लायक नहीं है।
इस राष्ट्र में अदालतें थीं, वकील थे, डाक्टर-वैद्य थे। लेकिन वे सब ठीक ढंग से नियम के मुताबिक चलते थे। सब जानते थे कि ये धन्धे बड़े नहीं हैं और वकील डाक्टर वगैरा लोगों में लूट नहीं चलाते थे। वे तो लोगों के अश्रित थे। वे लोगों के मालिक बनकर नहीं रहते थे। इन्साफ काफी अच्छा होता था। अदालतों में न जाना यह लोगों का ध्येय था। उन्हें भरमाने वाले स्वार्थी लोग नहीं थे। इतनी सड़न भी सिर्फ राजा और राजधानी के आसपास ही थी। यों आम प्रजा तो उससे स्वतंत्र रहकर अपने खेत का मालिकी हक भोगती थी। उसके पास सच्चा स्वराज्य था और जहां यह चांडाल सभ्यता नहीं पहुंची है, वहां हिन्दुस्तान आज भी वैसा ही है।
उसके सामने आप अपने नये ढोंगों की बात करेंगे तो वह आपकी हंसी उड़ायेगा। उस पर न तो अंग्रेज राज करते हैं, न आप कर सकेंगे। जिन लोगों के नाम पर हम बात करते हैं, उन्हें हम पहचानते नहीं है, न वे हमें पहचानते हैं। आपको और दूसरों को, जिनमें देश प्रेम है, मेरी सलाह है कि आप देश में, जहां रेल की बाढ़ नहीं फैली है, उस भाग में छह माह के लिए घूम आयें और बाद में देश की लगन लगायें। बाद में स्वराज्य की बात करें। अब आपने देखा कि सच्ची सभ्यता मैं किस चीज को कहता हूं। ऊपर मैंने जो तस्वीर खींची है वैसा हिन्दुस्तान जहां हो, वहां जो आदमी फेरफार करेगा उसे आप दुश्मन समझिये। वह मनुष्य पापी है।
पाठक: आपने जैसा बताया वैसा ही हिन्दुस्तान होता, तब तो ठीक था। लेकिन जिस देश में हजारों बाल विधवायें हैं, जिस देश में दो बरस की बच्ची की शादी हो जाती है, जिस देश में बारह साल की उम्र के लड़के लड़किया घर संसार चलाते हैं, जिस देश में स्त्री एक से ज्यादा पति करती है, जिस देश में नियोग की प्रथा है, जिस देश में धर्म के नाम पर कुमारिकाएं बेसवाएं बनती है, जिस देश में धर्म के नाम पर पाड़ों और बकरों की हत्या होती है, वह देश भी हिन्दुस्तान ही है। ऐसा होने पर भी आपने जो बताया वह क्या सभ्यता का लक्षण है?
संपादक: आप भूलते हैं। आपने जो दोष बताये वे तो सचमुच दोष ही हैं। उन्हें कोई सभ्यता नहीं कहता। वे दोष सभ्यता के बावजूद कायम रहे हैं। उन्हें दूर करने के प्रयत्न हमेशा हुए हैं और होते ही रहेंगे। हममें जो नया जोश पैदा हुआ है, उसका उपयोग हम इन दोषों को दूर करने में कर सकते हैं।
मैंने आपको आज की सभ्यता की जो निशानी बताई उसे इस स्भ्यता के हिमायती खुद बताते हैं। मैंने हिन्दुस्तान की सभ्यता का जो वर्णन किया, वह वर्णन नई सभ्यता के हिमायतियों ने किया है।
किसी भी देश में किसी भी सभ्यता के मातहत सभी लोग संपूर्णता तक नहीं पहुंच पाये हैं। हिन्दुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है। पश्चिम की सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है, इसलिए मैंने उसे हानिकारक कहा है। पश्चिम की सभ्यता निरीश्वरवादी है, हिन्दुतान की सभ्यता ईश्वर में माननेवाली है।
यों समझकर ऐसी श्रद्धा रखकर हिन्दुस्तान के हितचिंतकों को चाहिये कि वे हिन्दुस्तान की सभ्यता से बच्चा जैसे मां से चिपटा रहता है, वैसे चिपटे रहें।
जारी….
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