हिन्दूराष्ट्र स्वप्नद्रष्टा : वीर बंदा बैरागी

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– अध्याय —— 3

गुरु तेग बहादुर जी और उनका बलिदान

त्याग और बलिदान की मिलती अनुपम सीख ।
देश धर्म के वास्ते पैदा की नई लीक ।।

पंजाब की गुरु परंपरा में जब गुरु तेग बहादुर जी का नाम लिया जाता है तो सिर स्वयं ही श्रद्धा से झुक जाता है । इसका कारण यही है कि गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान ने हमारे तत्कालीन समाज में भारी क्रांति मचा दी थी । उनके बलिदान ने जलती हुई आग में घी का कार्य किया था ।
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल 1621 ई0 को गुरु हरगोविंद जी के घर में हुआ था । गुरु हरगोविंद जी ने अपने इस नवजात शिशु का नाम त्यागमल रखा था । त्यागमल अपने सभी बहन भाइयों में सबसे छोटे थे । इनके सबसे बड़े भाई का नाम गुरुदित्ता ,दूसरे का सूरजमल, तीसरे का अणिराम और चौथे का अटल राम था । इनकी एक बहन भी थी , जिसका नाम कुमारी वीरो जी था।

बचपन की घटना

बालक त्यागमल जब मात्र 6 वर्ष का ही था , तब उनकी बहन वीरो जी का विवाह समारोह आ गया। इसमें एक ऐसी घटना घटित हुई जिसने बालक त्यागमल के जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया । विवाह समारोह के समय मुगल प्रशासक कुलीज खान ने एक बाज पक्षी को लेकर सिखों के साथ झगड़ा कर लिया। उसने अपने आपको झगड़े तक ही सीमित नहीं रखा , अपितु आक्रोशित होकर अमृतसर पर आक्रमण भी कर दिया । इसके पीछे कारण यही था कि मुगल किसी भी स्थिति में पंजाब में गुरुसत्ता की उपस्थिति नहीं चाहते थे। क्योंकि वह यह जानते थे कि गुरु परंपरा के चलते पंजाब में हिंदुत्ववादी शक्तियां प्रबल होती जा रही हैं , जिनसे भविष्य में निपटना बड़ा कठिन हो जाएगा। इसलिए किसी ना किसी बहाने से गुरु सत्ता को वह पंजाब से मिटा देना चाहते थे।
इधर गुरुओं की परंपरा के चलते पंजाब के सिक्खों के भीतर भी देशभक्ति का लावा धधक रहा था । वह भी मुगलों के द्वारा अपने गुरुओं के और अपने धर्म व संस्कृति के नित होते अपमान को अब सहन करने की स्थिति में नहीं थे । वह भी चाहते थे कि मुगलों से यदि दो – दो हाथ होने ही हैं तो अब हो ही जाने चाहिए । फलस्वरूप अमृतसर में दोनों पक्षों में घोर संग्राम हुआ। इस संग्राम को बालक त्यागमल ने भी देखा । चारों ओर सिक्खों की वीरता और मुगलों की क्रूरता के दृश्य परस्पर विरोधाभासी स्थिति उत्पन्न कर रहे थे । इससे बालक त्यागमल को बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था। बालक त्यागमल के लिए यद्यपि यह अवस्था खेलने की थी , परंतु उसके लिए यही अवस्था पौधशाला की अवस्था बन गई थी । उसने निश्चय कर लिया कि बड़ा होकर वह अपने विशाल राष्ट्र रुपी गमले का सुगंध देने वाला पौधा बनेगा। सच ही तो है :—-

नहीं पता कैसी दिशा किस काल में हमको मिले ,
कहां अंधकार को लिए गहरी निशा हमको मिले ।
कहां उत्कर्ष कहां अपकर्ष, कब साथ हमारे हर्ष हो, कहां प्रकाश ऐसा साथ हो जो सदा तम को हरे ।।

पिता व भाई की वीरता को निकट से देखा

जब बालक त्यागमल 9 वर्ष का हुआ तो उस समय उन्होंने गुरु हरगोविंद जी को हरगोविंदपुर नामक स्थान पर मुगलों के साथ संघर्ष करते देखा । इस युद्ध में गुरु हरगोविंद ने मुगल अधिकारी अब्दुल्ला खान को पटक कर मार डाला था । गुरु जी के इस महान और वीरता पूर्ण कृत्य को जब बालक त्यागमल ने अपनी आंखों से देखा तो उसका सूक्ष्म संस्कार भी अपने हृदय में रचा , बसा लिया । इससे उन्हें राष्ट्र , राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के प्रति आकर्षित होने का अवसर मिला । साथ ही उनके कोमल मन में यह संस्कार भी अंकित हो गया कि मुगल विदेशी सत्ता धारी हैं , जो भारत की संस्कृति ,धर्म और महान सांस्कृतिक परंपराओं के विनाश के लिए हमारे ऊपर अवैधानिक रूप से शासन कर रहे हैं।
गुरु हरगोविंद जी के साथ अक्सर रहने से बालक त्यागमल के भीतर वीरता का लावा धधकने लगा था । अब वह भी सोचने लगा था कि यदि उसे भी अवसर मिले तो मुगलों से सारे प्रतिशोध ले लिए जाएं । वास्तव में देशभक्ति का भाव ही ऐसा होता है जो व्यक्ति को 24 घंटे मचलने के लिए प्रेरित करता है , कहीं दूर चलने और कहीं कुछ बड़ा काम करने की प्रेरणा देता रहता है ,और अब बालक त्यागमल के साथ कुछ ऐसा ही होता जा रहा था । संयोगवश ऐसा अवसर भी शीघ्र ही उपस्थित हो गया। बालक त्यागमल जब 14 वर्ष के हुए तो गुरु हरगोविंद जी से संघर्ष करने के लिए पैंदा खान नाम का एक पठान अपनी सेना लेकर आ गया । जिससे संघर्ष के लिए गुरु जी ने अपने जेष्ठ पुत्र गुरुदित्ता को भेजा । गुरुदित्ता की सहायता के लिए भाई विधिचंद व अन्य वीर सिखों ने अपना विशेष योगदान दिया ।
इसी समय किशोर त्यागमल भी युद्ध क्षेत्र में कूद पड़ा और बड़ी निर्भीकता से अपनी तलवार से शत्रु का अंत करने लगा । उसने अपनी तलवार से अनेकों मुगलों को शांत कर दिया था और मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया । उस की वीरता और शौर्य का सबने लोहा माना । पिता गुरु हरगोविंद जी ने पुत्र के शौर्य प्रदर्शन को देख कर बड़ी प्रसन्नता के साथ अनायास ही कह दिया कि ‘तेगबहादुर’ है – त्यागमल । बस यहीं से त्यागमल का जग प्रसिद्ध नाम तेग बहादुर पड़ गया , तब से हम इतिहास में उन्हें इसी नाम से जानने लगे।

औरंगजेब के अत्याचार और कश्मीरी पंडित

इस समय मुगल बादशाह औरंगजेब के अत्याचार हिंदू समाज के प्रति दिन – प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे । वह अपनी क्रूरता और निर्दयता के लिए प्रसिद्ध था। उसके समय में हिंदुओं के प्रति मुगलों की कट्टरता अपने चरम पर थी । जिसके कारण औरंगजेब ने अपने शासनकाल में अनेकों हिंदू मंदिरों का विध्वंस कराया । मथुरा का केशवराय मंदिर , बनारस का गोपीनाथ मंदिर , उदयपुर के 235 मंदिर , अंबेर के 66 मंदिर , जयपुर , उज्जैन , गोलकुंडा , विजयनगर और महाराष्ट्र के अनेकों मंदिर उसकी राजाज्ञा से क्षतिग्रस्त कर दिए गए थे । सन 1669 के एक अन्य शाही आदेश के द्वारा दिल्ली के हिंदुओं को यमुना किनारे मृतकों का दाह संस्कार करने की भी मनाही कर दी गई थी । हिंदुओं को धर्म परिवर्तन के लिए उस समय बाध्य किया जा रहा था। जिससे हिंदुओं का जीवन बहुत ही कष्टमय हो चुका था।
औरंगजेब की दमनकारी नीति दिन-प्रतिदिन हिंदुओं का विनाश करती जा रही थी । तब कश्मीरी पंडित भी औरंगजेब के अत्याचारों से अत्यंत भयभीत थे। वहां पर शेर अफगान के अत्याचार दिन – प्रतिदिन कश्मीरी पंडितों का दमन और दलन करते जा रहे थे । इस प्रकार की आतंकी स्थितियों में कश्मीरी पंडित फंस चुके थे । शेर अफगन उन्हें समाप्त करने पर लगा था और शेर अफगान के विरुद्ध बादशाह कुछ भी सुनने या कुछ भी करने को कदापि उद्यत नहीं था । बादशाह से शिकायत करने का अर्थ भी मृत्यु ही था और शेर अफगान तो साक्षात मृत्यु का पर्याय बन चुका था । कश्मीरी पंडित वास्तव में किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में आ चुके थे । तब उन्होंने यह सोचा कि क्यों न् गुरु तेग बहादुर जी से मिलकर इस समस्या से मुक्ति पाने का कोई उपाय पूछा जाए ?
अपने इस मनोरथ की सिद्धि के लिए कश्मीरी पंडितों ने कृपाराम नामक एक व्यक्ति के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल पंजाब में आनंदपुर साहिब के लिए भेजा । वहां पर उन्होंने अपनी सारी व्यथा – कथा का पूर्ण विवरण गुरु तेग बहादुर के समक्ष प्रस्तुत किया। जिसे सुनकर गुरुजी भी बहुत द्रवित हो उठे थे।
जब गुरुजी कश्मीरी पंडितों की व्यथा – कथा को सुनकर व्यथित दिखाई दे रहे थे , उस समय उनका अल्पवयस्क पुत्र गोविंद राय उनके पास ही खड़ा था। बालक गोविंद राय को पिता की चिंता मग्न मुख मुद्रा देखकर कुछ कौतूहल हुआ और उसने पिता से सभी लोगों के समक्ष प्रश्न किया कि पिताजी आपके दरबार में नित्य प्रति ईश्वर चिंतन और मानव निर्माण की बातें होती रहती थीं , पर आज ऐसा न होकर यहां निराशा का परिवेश क्यों है ? ऐसी क्या बात है कि जिससे आप के दरबार का परिवेश आज नीरसता और निराशा में परिवर्तित हो गया है ? बालक गोविंद राय के द्वारा किए जा रहे ऐसे प्रश्नों को सुनकर आज गुरु जी के दरबार में कुछ वैसा ही दृश्य उपस्थित हो गया था जैसा कभी नचिकेता के इस प्रश्न ने कि आप मुझे किसको देंगे ? – उनके पिता के लिए उत्पन्न कर दिया था।

बालक गोविंद राय ने बदल दी इतिहास की धारा

गुरु जी ने अपने पुत्र के मुंह से ऐसे कौतूहल भरे प्रश्नों को सुनकर उसे टालने का प्रयास किया , पर बालक गोविंद राय अपने प्रश्नों का उत्तर चाहता था । नियति उसके मुख से इतिहास की धारा को मोड़ने के वचन कहलवाती जा रही थी , और बालक गोविंद राय साक्षात नचिकेता बनकर उन्हें निरुत्तर करता जा रहा था । उसने कश्मीरी पंडितों के बारे में यह भी पूछ लिया कि पिताजी यह लोग कौन हैं और आपसे क्या कह रहे हैं ? आपसे यह क्या चाहते हैं ? – तब गुरु जी ने अपने बच्चे को उन कश्मीरी पंडितों की समस्या से अवगत कराया और उनके यहां आने का मनोरथ भी स्पष्ट किया। गुरु जी ने अपने किशोर बालक की मानसिकता को समझते हुए कहा कि – ” बेटा ! इस समय इस आसन्न संकट से निपटने का एक ही उपाय है कि किसी महान व्यक्तित्व को अपना बलिदान कर देना चाहिए । “
अपने पिताश्री के मुख से ऐसे शब्द सुनकर बालक गोविंद राय ने कह दिया – ” पिताश्री ! इस समय देश में आप से बड़ा धर्म रक्षक और सत्पुरुष भला कौन हो सकता है ? यह लोग आपके भीतर इन्हीं गुणों का दर्शन करके ही आए हैं । इसलिए यदि इनके संकट को टालने के लिए किसी महापुरुष के बलिदान को आप आवश्यक और उचित मानते हैं तो अपने आप को ही इसके लिए प्रस्तुत करना पड़ेगा। इन पंडितों की रक्षा आप करें। क्योंकि गुरु नानक देव जी के उत्तराधिकारी होने के नाते उनके सिद्धांतों की रक्षा करना इस समय आप का सबसे बड़ा कर्तव्य है । यह भारत की सनातन संस्कृति की परंपरा रही है कि शरणागत की रक्षा निज प्राण देकर भी करनी चाहिए। “

आया शरण जो आपकी उसकी सुरक्षा सहर्ष हो ,
सदा परमार्थ हेतु ही इस जीवन का उत्कर्ष हो ।
यही सनातन धर्म का सत्य सनातन स्वरूप है ,
सनातन प्रेरित करता सदा अपने भारतवर्ष को ।।

गुरु तेग बहादुर ने लिया नया संकल्प

बालक गोविंद राय के मुख से ऐसे शब्दों को सुनकर पिता तेग बहादुर जी अपना बलिदान देने के लिए सहर्ष तैयार हो गए । तब गुरु तेग बहादुर ने बादशाह औरंगजेब के पास कश्मीरी पंडितों को यह संदेश लेकर भेजा कि कश्मीर में वह जिस प्रकार धर्म परिवर्तन का खेल जारी रखे हुए हैं , उसके विषय में गुरु तेग बहादुर उससे कुछ बात करना चाहते हैं । यदि बादशाह के धर्म परिवर्तन अभियान से सहमत होकर गुरु तेग बहादुर उसका समर्थन करते हैं तो वे सभी स्वयं ही इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेंगे । गुरुजी के इस प्रस्ताव पर औरंगजेब को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने गुरु तेग बहादुर के दिल्ली आगमन का कुछ इस प्रकार प्रचार-प्रसार करा दिया कि जैसे वह इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए ही दिल्ली आ रहे हैं ?
बादशाह ने आनंदपुर साहिब के लिए अपना दूत भेज कर गुरु तेग बहादुर को यथाशीघ्र दिल्ली लाने के लिए अपनी कार्य योजना पर कार्य करना आरंभ किया । औरंगजेब सोच रहा था कि यदि गुरु जी ने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो फिर सारे भारतवर्ष का इस्लामीकरण होने में समय नहीं लगेगा , इसलिए वह गुरुजी के अपने पास आने को उनके इस्लाम में दीक्षित होने के रूप में प्रचार प्रसार देना चाह रहा था। औरंगजेब के निमंत्रण को गुरु जी ने भी उनके दूत के माध्यम से स्वीकार कर लिया । इसके पश्चात उन्होंने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया ।
गुरु जी के साथ पांच प्यारे भाई मती दास जी , भाई दयाला जी , भाई सती दास जी , भाई गुरुदित्ता जी तथा भाई उद्धोजी जी भी थे । अपने छल – बल का प्रयोग करते हुए बादशाह औरंगजेब ने आगरा के निकट गुरु जी को गिरफ्तार करा लिया।
अगले दिन शांतचित्त बैठे गुरु तेग बहादुर को बादशाह ने दरबार में बुलाया । औरंगजेब ने ऐसे ढंग से अपनी वार्ता आरंभ की , जिससे वह हिंदू समाज को अपने आप से अलग समझें और हिंदू समाज का नेतृत्व करने के अपने विचार को त्याग दें । जब औरंगजेब ने अपना भाषण पूर्ण कर लिया तो गुरु तेग बहादुर ने बड़ी सादगी और सरलता से औरंगजेब की बातों का उत्तर देना आरंभ किया । उन्होंने वेद की मान्यताओं से उद्भूत भारतीय संस्कृति की महान परंपराओं के अनुकूल वैश्विक मानस से अपनी वार्ता का और अपने उद्बोधन का शुभारंभ किया । औरंगजेब का भाषण जितना सांप्रदायिक था , गुरुदेव का उद्बोधन उतना ही सारगर्भित , सर्वमंगलकारी , सर्वग्राही , सत्याग्रही और मानवतावादी था । उन्होंने औरंगजेब को यह स्पष्ट कर दिया कि मानवता प्रत्येक प्रकार की सांप्रदायिकता से हर स्थिति में सर्वोपरि है । औरंगजेब ने भी गुरु तेग बहादुर के उच्च और मानवीय उपदेशों को बड़े ध्यान से सुना । पर वह कट्टर मुस्लिम पहले था। इसलिए उसने अपने को फिर से मताग्रही दिखाते हुए बोलना आरंभ किया । औरंगजेब ने कहा कि वह चाहता है कि अरब देशों की भांति भारतवर्ष में भी केवल एक संप्रदाय या दीन हो, इससे सभी प्रकार के पारस्परिक मतभेद सदा के लिए समाप्त हो जाएंगे ।
इस पर गुरुदेव ने उत्तर दिया कि जिस क्षेत्र में केवल मोहम्मदी ही रहते हैं क्या वहां शिया सुन्नी झगड़े नहीं होते ? जैसे एक बगीचे में भांति – भांति के फूल खिले होने पर उसका सौंदर्य बढ़ जाता है , ठीक इसी प्रकार यह विश्व उस प्रभु की सुंदर वाटिका है । जिसमें भांति भांति के विचारों वाले मनुष्य उसके हुक्म अथवा उसकी इच्छा से उत्पन्न होते हैं । यदि प्रकृति को तुम्हारी बात स्वीकार करनी होती तो हिंदुओं के यहां संतान ही पैदा क्यों करती ? इसके विपरीत मुसलमानों के यहां संतान उत्पन्न होती । जिससे सभी अपने आप मुसलमान हो जाते और यह निर्णय अपने आप लागू हो जाता ।

गुरु जी और अन्य वीरों का बलिदान

गुरु तेग बहादुर जी के मुख से ऐसे वचन सुनकर औरंगजेब भड़क गया और उसने इस्लाम या मृत्यु में से किसी एक को चुनने का प्रस्ताव गुरु जी को दिया । जब मुगल बादशाह ने देखा कि गुरुजी पर उसके किसी भी प्रकार के आदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो उसने गुरु जी को जेल में डलवा दिया । जहां उन पर अनेकों प्रकार के अमानवीय अत्याचार किए जाने लगे । गुरुजी अत्याचारों का वीरता से सामना करते रहे ।
इसके पश्चात दिल्ली के चांदनी चौक के बीचो-बीच भाई मती दास जी का बलिदान कराया गया।
‘श्री गुरु प्रताप ग्रंथ ‘ से पता चलता है :- भाई मतीदास जी से काजी ने पूछा कि मरने से पूर्व उसकी कोई अंतिम इच्छा है ? – मतीदास जी ने उत्तर दिया कि उसका मुंह उसके गुरु की ओर रखना । जिससे कि वह उनके अंत समय तक दर्शन करता हुआ शरीर त्याग सके । लकड़ी के दो शहतीरों के पाट में भाई मतीदास जी को जकड़ दिया गया । उनका चेहरा गुरु तेगबहादुर जी के पिंजरे की ओर कर दिया गया । दो जल्लादों ने भाई साहब के सिर पर आरा रख दिया । काजी ने फिर भाई साहब को इस्लाम स्वीकार करने की बात कही। किंतु भाई मतीदास जी उस समय गुरुवाणी का उच्चारण कर रहे थे और प्रभु चरणों में लीन थे । अतः उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया । इस पर काजी की ओर से जल्लादों को आरा चलाने का संकेत दिया गया। देखते ही देखते खून का फव्वारा निकल पड़ा। भाई मतीदास जी के शरीर के दो फाड़ हो गए । इस भयभीत और क्रूर दृश्य को देखकर बहुत से नेक लोगों ने आंखों से आंसू बहाए । किंतु पत्थर दिल हाकिम इस्लाम के प्रचार हेतु किए जा रहे इस अत्याचार को अंतिम क्षणों तक उचित बताते रहे।
भाई दयाला जी और सतीदास जी की जीवनलीला भी इसी प्रकार की क्रूरता का प्रदर्शन करते हुए मुगल बादशाह औरंगजेब ने समाप्त करा दी।
‘ श्री गुरु प्रताप ग्रंथ ‘ से ही हमें पता चलता है कि अंत में — प्रशासन ने समस्त दिल्ली नगर में डौंडी पिटवा दी कि ‘ हिंद के पीर ‘ गुरु तेग बहादुर को दिन बृहस्पतिवार 12 मार्गशीर्ष , सुदी 5 , सम्मत 1732 , विक्रमी ( 11 नवंबर सन 16 75 ईसवी ) को चांदनी चौक दिल्ली चबूतरे पर कत्ल कर दिया जाएगा । इस दृश्य को देखने के लिए वहां विशाल जनसमूह उमड़ पड़ा , जो बेबस होने के कारण मूकदर्शक बना रहा ।’
गुरु जी का शीश एक झटके से ही काट दिया गया था। उनका शीश उतरते ही वहां पर अफरा तफरी मच गई जिसका लाभ सिख वीर भाई जैता ने उठाया। फलस्वरूप गुरुजी के शीश को वहां से उठाकर भागने का अवसर भाई जैता को मिल गया । जबकि गुरुजी के धड़ को उठाने का काम बड़ी वीरता और साहस के साथ भाई लखीशाह ने करके दिखाया । उन दोनों वीरों की गाथाएं अभी तक भी पंजाब में बड़े सम्मान के साथ गाई जाती हैं ।
सच ही तो है :—

मातृभूमि के लिए बलिदान जिस जिसने दिए , श्रद्धांजलि इतिहास देता मौन सदा उनके लिए । भावांजलि पुष्पांजलि का क्रम सदा चलता रहे ,
कृतज्ञ राष्ट्र करता नमन अपने वीरों के लिए ।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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