हिंदूराष्ट्र स्वप्नद्रष्टा : वीर बंदा बैरागी

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अध्याय — 11

” वीर बनकर लड़ो “

जैसा कि हमारे अन्य कितने ही इतिहास पुरुषों के साथ अन्याय करते हुए इतिहासकारों ने उनके विषय में भ्रामक तथ्यों का समावेश भारतीय इतिहास में करने का पाप किया है , वैसा ही हमारे इस महानायक बंदा वीर बैरागी के बारे में भी किया गया है । जिससे कि यह महानायक न दीखकर खलनायक दिखाई देता रहे।
इतिहासकार मीनल जैन के अनुसार : — ” दो शताब्दियों तक बंदा बहादुर को सिख इतिहास में एक खलनायक के रूप में देखा गया। ” जब जैन महोदय की इस टिप्पणी पर हम विचार करते हैं तो स्पष्ट होता है कि हमारे इतिहास के महानायक बंदा वीर बैरागी के साथ भी अन्याय किन्हीं निहित उद्देश्यों को लेकर किया गया । इन उद्देश्यों या कारणों में सबसे प्रमुख कारण यही था कि भारतवासियों को उनके वास्तविक गौरवपूर्ण इतिहास से अंधेरे में ही रखा जाए । अस्तु ।
एक बार गांव छतवनों या वलोड़ के ब्राह्मण जब मुस्लिम अत्याचारों से दुखी हो चले तो उन्होंने भी अपनी रक्षा के लिए बंदा वीर बैरागी के पास जाना ही उचित समझा । फलस्वरूप ये लोग बंदा वीर बैरागी के पास पहुंचे और उसे अपना दुख दर्द सुनाया। ब्राह्मणों ने बैरागी को स्पष्ट किया कि मुसलमान उन्हें सम्मान से रहने नहीं दे रहे हैं । उनकी बहू – बेटियों के साथ अत्याचार करते हैं । गायों को मारकर उनका रक्त हमारे कुँए में डाल देते हैं । ऐसे में आप हमारी रक्षा करें। बंदा बैरागी ब्राह्मणों के दुख – दर्द को सुन व समझकर क्रोधित हो उठा । उसने अपने सिपाहियों को आज्ञा दी कि जैसे भी हो इन ब्राह्मणों की बहू – बेटियों का सम्मान और इनके जीने का अधिकार सब सुरक्षित रहने चाहिए। सैनिकों ने अपने महाराज के आदेश के अनुसार उस गांव में जाकर सारे खान मारकर समाप्त कर दिए।

गाय की रक्षार्थ मेरा जीवन समर्पित है सर्वदा ,
ब्राह्मण की सेवार्थ मेरा तन समर्पित है सदा ।
करें अत्याचार म्लेच्छ अब यह हो सकता नहीं , मातृभूमि के लिए , सर्वस्व समर्पित कर चुका ।।

इस प्रकार गौ व हिंदू की रक्षा करना और उनके लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा देना बंदा वीर बैरागी के चरित्र का एक अनिवार्य अंग बन चुका था । इतना बड़ा दांव वह व्यक्ति ही लगाएगा जिसे हिंदू राष्ट्र बनाने की चिंता हो या जिसका लक्ष्य हिंदू राष्ट्र निर्माण हो । अपने इस महान कार्य के लिए उठ खड़े होना या ब्राह्मणों की रक्षा के लिए दुष्टों का संहार कर देना – यह बताते हैं कि बंदा बैरागी के भीतर स्वसंस्कृति , स्वदेश , स्वधर्म , स्वराष्ट्र और स्वसंबंधियों के प्रति कितना उत्कृष्ट भाव था ? इसी गांव में बंदा वीर बैरागी ने फतेहसिंह नामक सरदार को अपना सेनानायक बनाया । जबकि बाजसिंह को कोषाध्यक्ष नियुक्त किया और विनोदसिंह तथा करणसिंह को दैशिक अधिकारी बनाया ।
उस समय माझे के सिखों ने बंदा बैरागी की सहायता के लिए विशेष पहल की थी । स्वाभाविक था कि इन सिक्खों की सहायता से पहले से ही शक्तिशाली होते जा रहे बंदा वीर बैरागी को और अधिक शक्ति प्राप्त हो जाती । इस स्थिति को रोकने के लिए सरहिंद के सूबेदार ने अपने दो सेनानी , 5000 सेना और तोपें देकर उन्हें बंदा बैरागी से लड़ने के लिए भेजा। दोनों ओर की सेनाओं में भयंकर संघर्ष हुआ। युद्ध में बहुत सा गोला बारूद सिक्खों के लिए छोड़ कर यह मुस्लिम सैनिक भाग गए । इससे बंदा बैरागी को और भी अधिक शक्ति प्राप्त हो गई । कहते हैं कि इतने में वहां पर कश्मीरी रिसाले की सहायता भी पहुंच गई थी । इस युद्ध में खिज्र खां फौजदार तथा अन्य कई सरदार मारे गए थे । जब मुस्लिम सेना पीछे हट रही थी तो एक और बड़ी सेना पीछे से आ गई।
इसके साथ भी बंदा वीर बैरागी और उसकी सेना ने बड़ी निर्भीकता के साथ युद्ध किया । इस समय बंदा वीर बैरागी के पास 8000 पैदल और 4000 सवार सैनिकों की सेना तैयार हो गई थी । इस युद्ध में बंदा वीर बैरागी ने लोगों से यह अपील जारी की कि प्रतिकार का समय आ गया है । अतः ” वीर बनकर लड़ो ।” बात स्पष्ट थी कि गुरु गोविंदसिंह जी के जिन सपूतों को सरहिंद में जीवित चुनवाया गया था , उनका प्रतिशोध लेने का उचित समय है । किसी प्रकार के संकोच या भय के साथ यदि लड़े तो महा अनर्थ हो जाएगा । क्योंकि जहां अपनी विजय में स्वयं संशय उत्पन्न हो जाता है , वहां पराजय निश्चित होती है । कार्य को जितना अधिक वीरता , साहस और पूर्ण इच्छाशक्ति के साथ समर्पित होकर किया जाता है, उतनी ही सफलता असंदिग्ध बनती है । इसलिए पूर्ण समर्पण शक्ति , बल, धैर्य , संयम और वीरता के साथ संघर्ष करो । बंदा वीर बैरागी के ऐसे शब्दों को सुनकर उसकी सेना पर बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ता था , यहां भी यही हुआ था।
बंदा वीर बैरागी का हृदय मुसलमान ,नवाब और उनकी सेनाओं के प्रति आग से धधक रहा था, वह किसी न किसी ऐसे ही अवसर की प्रतीक्षा में था । उधर मुस्लिम भी अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे थे।
इस युद्ध के समय युद्ध की विभीषिका से दसों दिशाएं कांप रही थीं । चारों ओर तोपों की ध्वनि गूंज रही थी। तोपों की मार को सिक्ख सैनिक सहन नहीं कर सके । कहते हैं कि बंदा वीर बैरागी की सेना में भगदड़ मच गई। यद्यपि सरदारों ने अपने सैनिकों का साहस बढाते हुए एक बार भागती हुई सेना को रोकने में सफलता भी प्राप्त की ,परंतु तोपों का सामना करना हमारे सिख सैनिकों के लिए फिर भारी पड़ने लगा ।
बताया जाता है कि बैरागी 3 कोस दूर खड़ा हुआ इस युद्ध को देख रहा था । जब उसे यह समाचार मिला कि उसकी सेना युद्ध के मैदान से पीछे हटने लगी है तो वह बिजली की भांति वहां से अपनी सेना के बीच आ धमका । उसने युद्ध क्षेत्र में आते ही शत्रुदल पर भयंकर बाण वर्षा आरंभ की । उसके साहस और वीरता को देखकर भागती हुई सेना का साहस बंध गया । शत्रु यह समझ भी नहीं पाया कि अचानक बैरागी की सेना में इतना भारी उत्साह कैसे आ गया ? अब तोपों के गोलों का सामना बंदा बैरागी के तीर कर रहे थे । यह बैरागी की वीरता का ही प्रताप था कि उसकी बाण वर्षा के सामने तोपों की आग धीमी पड़ने लगी । वह तीरों की वर्षा करता हुआ और शत्रुदल के अनेकों सैनिकों का संहार करता हुआ निरंतर आगे बढ़ता चला गया। बैरागी ने अपनी तलवार से शत्रु को गाजर मूली की भाँति काटना आरंभ कर दिया था । उसकी इस प्रकार की भयंकर युद्ध शैली को देखकर मुगल सैनिकों में हाहाकार मच गई । इतने में उसे सूबेदार वजीर खान दिखाई पड़ गया। बैरागी ने उसे ललकार कर कहा कि — सैनिकों का वध कराने से कोई लाभ नहीं है । तुम स्वयं तलवार संभालो और युद्ध क्षेत्र में मेरा सामना करो । मेरे साथ युद्ध करो। यह वही वजीर खान था जिसने गुरु पुत्रों को दीवार में जीवित चुनवाने का आदेश दिया था ।

दूर खड़ा क्यों देखता, कर ले दो – दो हाथ ।
तुझे मिटाने के लिए , लग रही तन में आग ।।

वीर बैरागी के चुनौती भरे शब्दों को सुनकर वजीर खान का साहस नहीं हुआ कि वह आगे बढ़े और मां भारती के इस वीर पुत्र का सामना करे । उसने वीर बैरागी का रौद्र रूप जैसा आज देखा था , वैसा पहले कभी किसी अन्य योद्धा का भी नहीं देखा होगा । तोपों के सामने आग बरसाते हुए उसके तीर ऐसा आभास दे रहे थे कि जैसे बैरागी स्वयं ही आग का गोला बन चुका है । इस आग के गोला को शांत करना या उससे जाकर भिड़ना वजीर खान जैसे राक्षस प्रवृत्ति के व्यक्ति का काम कहां हो सकता था ?
बंदा बैरागी के भीतर सात्विक बल था , जबकि वजीर खान सात्विक बल वाला व्यक्ति न होकर तामसिक बल का स्वामी था । तामसिक बल वाला व्यक्ति क्रूर हो सकता है , वीर नहीं । जबकि सात्विक बल वाला व्यक्ति वास्तविक अर्थों में बलशाली और वीर होता है।
फलस्वरुप वजीर खान दूर से अपने सैनिकों का उत्साह तो बढ़ाता रहा , परंतु स्वयं आगे बढ़कर उसने बैरागी का सामना नहीं किया । बैरागी के नाम से सब मुसलमान भय खाते थे ।
फलस्वरूप वजीर खान द्वारा बार-बार अपनी सेना का उत्साहवर्धन करने के उपरांत भी उसकी सेना भाग खड़ी हुई । जब वह स्वयं भी भागा जा रहा था तो उसका एक पैर कब्र में फंस गया। जिससे वह स्वयं नीचे गिर गया । उसको जैसे ही हमारे सैनिकों ने गिरफ्तार किया तुरंत उसकी बची खुची सेना भी भाग खड़ी हुई । इसके पश्चात सर्व वध की आज्ञा बंदा वीर बैरागी की ओर से दी गई । चारों ओर शत्रुदल में हाहाकार मच रही थी । स्त्रियां घरों को छोड़कर भाग रही थीं । बैरागी ने अपनी सेना के साथ किले में एक विजेता के रूप में प्रवेश किया । उसके सामने वजीर खान को एक बंधक के रूप में लाकर पटक दिया गया।
बंदा वीर बैरागी ने वजीर खान को लताड़ते हुए कहा कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। यदि एक हाथ से कोई दुष्ट कर्म किया जाता है तो दूसरे को उसका दंड भोगना ही पड़ता है ।उन्होंने गीता के उस अमर वाक्य को वजीर खान के सामने प्रकट करने का प्रयास किया कि शुभ या अशुभ किसी भी प्रकार के किए गए कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। अतः अब तुम अपने किए हुए कर्म का फल भोगने के लिए तैयार हो जाओ ।वजीर खान थर – थर कांप रहा था । उसका पाप उसके सामने खड़ा था और अब उसे यह भी आभास हो चुका था कि वह किसी भी स्थिति में बच नहीं पाएगा । तभी उसको शहर के चारों ओर घुमाकर जीवित ही अग्नि में डाल देने का आदेश बंदा वीर बैरागी ने अपने सैनिकों को सुनाया ।
इसके पश्चात सूबे के दीवान सुच्चानंद को उसके परिवार सहित बंदा बैरागी के सामने उपस्थित किया गया । बैरागी ने उसको लताड़ते हुए कहा कि — तुम्हारा जन्म एक हिंदू परिवार में हुआ था, ऐसे में तुम से अपेक्षा की जाती थी कि तुम्हारे भीतर वह संस्कार होंगे जो एक ऐसे राष्ट्रभक्त व्यक्ति के के प्रति सम्मान भाव प्रकट करने के लिए तुम्हें प्रेरित करते जो इस समय हम सबकी रक्षा करने का दायित्व संभाले हुए था । किंतु तुमने ऐसा न् करके उस महापुरुष के हृदय में हाथ डालने का साहस किया । अब तुम्हें भी अपने किए गए पाप कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा ।

सुच्चानंद नहीं तुम नीच हो ,
पापी घातक और कमीन हो ,
हमारे पथ प्रदर्शक के वधिक हो ,
तुम ही बताओ ! तुम्हें क्या दंड हो ?

इसके पश्चात उस सुच्चानंद पापी का भी वध कर दिया गया।
तदुपरान्त इस नगर में अब तक मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ जितने अत्याचार किए थे , उन सबका प्रतिशोध लेने के लिए अगले सात दिन तक बैरागी के सैनिक मस्जिदों को और मकबरा को गिराते रहे। 1708 में यहां पर एक भव्य दरबार का आयोजन किया गया । बंदा बैरागी ने अपने आदेश से सभी मुसलमान अधिकारियों को हटाकर उनके स्थान पर हिंदू अधिकारियों को नियुक्त कर दिया । मुसलमानों की सब जागीरें जब्त कर ली गईं।
बंदा बैरागी को संतोष हुआ कि यहां पर जितने भर भी अत्याचार हिंदुओं पर किए गए थे , उन सबका सम्यक ढंग से प्रतिशोध ले लिया गया था । सारे पंजाब के सिक्खों में इस बात के लिए विशेष रूप से प्रसन्नता की लहर दौड़ गई कि उनके गुरुपुत्रों के बलिदान का बदला भी बंदा वीर बैरागी ने ले लिया है। बंदा वीर बैरागी की सर्वत्र जय जय कार हो रही थी ।
सरहिंद के पश्चात बैरागी ने राहू पर आक्रमण किया और वहां के रांगड़ों को कैद कर लिया । पामल के हिंदुओं ने बंदा वीर बैरागी से मिलकर अपने मुस्लिम अधिकारियों के विरुद्ध शिकायतें कीं । यहां पर खान मोहम्मद ने बंदा वीर बैरागी का सामना किया। किंतु कुछ समय पश्चात ही बैरागी के तीरों के सामने वह टिक नहीं पाया और बंदा बैरागी के तीर से ही उसका प्राणान्त हो गया । यहां से मलेरकोटला पर चढ़ाई करने के लिए बैरागी आगे बढ़ा । यहां भी मुसलमान अधिकारियों में भगदड़ मच गई । यहां एक किशनदास नाम का बनिया रहता था । जब वह बैरागी के पास आया तो वैरागी ने स्वयं उठ कर उसे अपने सीने से लगाया । कहते हैं कि इस बनिए के पास कभी बंदा बैरागी रह कर गया था । उस बनिए ने उस नगर को छोड़ने की अनुनय विनय बंदा बैरागी से की तो वह ₹200000 लेकर उस शहर को छोड़ कर आगे बढ़ गया । इस ₹200000 की धनराशि को भी उसने अपनी सेना में बांट दिया।
इसके पश्चात बैरागी ने यथाशीघ्र पंजाब पर अधिकार करने की ओर कदम बढ़ाया । वह तेजी से नगर पर नगर जीतता जा रहा था । चारों ओर उसकी विजय पताका फहराने लगी । भाई परमानंद जी ने उसकी विजयों का वर्णन करते हुए लिखा है :– ” तत्पश्चात बैरागी ने दुआबे की ओर मुख किया । मुसलमान अधिकारी स्वयं नगर छोड़कर भाग गए । कोई – कोई भेंट लेकर आ मिला और क्षमा प्रार्थी हुआ । फगवाड़ा का रईस चुहरमल और जालंधर का नवाब भेंट लेकर आ मिले और बैरागी का आश्रय लिया । व्यास से गुजरकर माझे पर चढ़ाई की गई । इसके सब नगरों ने प्रसन्नतापूर्वक वीर की अधीनता स्वीकार की । सूरसिंह पट्टी , झापाल , अलगों, खेमकरण और चूनियाँ सब अधीन हो गए । व्यास और रावी का प्रदेश बिना युद्ध के ही बैरागी के नीचे हो गया । इसने सब जगह अपना घोड़ा फेर दिया और डौंडी पिटवा दी कि हिंदू राज्य स्थापित हो गया है । कोई मनुष्य दिल्ली के बादशाह के नाम पर लगान न दे । बैरागी ने स्वयं होशियारपुर में डेरा किया । समस्त प्रदेश अधिकारियों में बांट दिया । आप सन्त ही रहे । बेजवाड़ा के नवाब शम्स खान ने रुकावट की । इसे भी जीत लिया गया । यह प्राण बचाकर भाग गया । इस एक वजह से यमुना सतलुज की नदियों के बीच का इलाका बैरागी के पांव तले आ गया । वह प्रदेश इसने सिक्ख सरदारों को प्रदान कर दिया । करनाल और पानीपत बाबा विनोद सिंह को दे दिए । बाजसिंह सरहिंद का सूबा बना । और फतेह सिंह सेना लेकर इलाका अपने नीचे करने लगा । दिल्ली और लाहौर का रास्ता बिल्कुल बंद कर दिया । करनाल से तलवंडी , हिसार , हांसी , तरावड़ी , कैथल , जींद , सिरसा , फिरोजपुर , चुनिया , कसूर, जालंधर , दोआबा , मांझा , पठानकोट और कांगड़ा तक समस्त प्रदेश उसके नीचे आ गए । बाजसिंह नावेर से बैरागी के साथ आया था और दिल्ली में इसके साथ ही शहीद हुआ था । यह मीरपुर पट्टी (अमृतसर ) का वासी था।”
इस प्रकार के विजय अभियान से पता चलता है कि बंदा बैरागी एक महान लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहा था । उसका चिंतन और दृष्टिकोण हिंदूराष्ट्र निर्माण के महान संकल्प को लेकर आगे बढ़ा रहा था । वह चाहता था कि विदेशी सत्ता , विदेशी धर्म , विदेशी शासक और विदेशी संस्कृति आदि सभी भारतवर्ष से उखाड़ दी जाएं । वह इस लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ा कि पंजाब की गुरु भूमि में वेदों के और गुरुवाणी के शब्द गूंजें । जिनसे वहां पर मानवतावाद का प्रचार और प्रसार हो सके । उसके इस संकल्प को पूरा कराने के लिए सारा पंजाब ही उसके साथ उठ खड़ा हुआ । युवाओं ने अपनी जवानी उसके लिए समर्पित कर दी । जबकि बड़े बड़े सेठ साहूकारों ने अपने खजाने इस शेरपुत्र के लिए खोल दिए और उससे कह दिया कि जितना धन चाहे आप हमसे ले सकते हैं। इस प्रकार देशभक्ति का एक बहुत सुंदर , अनुकरणीय , प्रशंसनीय दृश्य पंजाब की भूमि पर हमें बिखरा हुआ दिखाई देने लगा ।

हिंदू राज्य का संकल्प ले ,
सर्वत्र ध्वज फहरा उठा ।
विकल्प सब ध्वस्त थे ,
अब एक ही संकल्प था ।।
जैसे भी हो मां भारती को ,
मुक्त करना लक्ष्य है ।
इसके लिए सब कुछ सहेंगे ,
अब शत्रु ही भक्ष्य है ।।

शत्रु का साहस टूट चुका था । वह अपने आप को असहाय अनुभव करने लगा था । इसलिए उसके अत्याचार अब पूर्णतया शांत हो चुके थे। एक इतिहासकार मोहम्मद लतीफ ने ” पंजाब का इतिहास : पूर्व काल से वर्तमान तक ” – में बैरागी के संबंध में कुछ इस प्रकार लिखा है :– ” इसने सहस्रों मुसलमानों का वध किया । मस्जिदें और खानकाहें , मिट्टी में मिला दीं। घरों में आग लगा दी और स्त्रियों और बच्चों की हत्या की । लुधियाना से लेकर सरहिंद तक समस्त प्रदेश सफ़ा कर दिया । पहले यह सरहिंद आया । गुरु गोविंद सिंह के बच्चों के प्रतिकार में नगर को आग लगा दी । बालक या स्त्री का कोई विचार न रखते हुए सब वासियों को कत्ल कर डाला । मृतकों को कब्रों में से निकालकर चील और कौवों को खिलाया । सारांश यह है कि जहां कहीं गया , तलवार से काम लिया । इसी कारण मुसलमान इसे ‘यम ‘ कहने लगे थे।”
बंदा वीर बैरागी के विषय में डॉक्टर यशपाल लिखते हैं :— ” जो भी हो हमारा यह मत है कि गुरु गोविंद सिंह ने भी पंजाब की स्थानीय जनता में इतनी जान नहीं फूंकी कि वह मुगलों के विरुद्ध एक अभियान चलाकर पंजाब से मुगल राज्य की नींव को हिला दे । परंतु ज्यों ही गुरु जी का भेजा हुआ एक बैरागी जो भी योद्धा बन चुका था , पंजाब में आया त्यों ही एक नई स्फूर्ति वहां के लोगों में आ गई ।
– – – – – इसमें कोई संदेह नहीं कि गुरु गोविंद सिंह ने पंजाब की जागृति में बहुत बड़ा योगदान दिया , परंतु इसका असल श्रेय तो बंदा को ही प्राप्त है। इस पंजाब की रौद्र मुद्रा का ठीक मूल्यांकन इस बात से लगता है कि अंग्रेजी साम्राज्य भी यहां सबसे अंत में आया और वह भी शायद न आता यदि महाराजा रणजीतसिंह के सिख जनरलों में देशद्रोह की भावना न होती तो शायद पंजाब आज भी स्वतंत्र होता । “

डॉ राकेश कुमार आर्य

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