
” भारत मेरी धमनियों में बह रहा था ….. फ़िर भी मैंने उसे एक अजनबी आलोचक की नज़र से समझा क्योंकि उसका वर्तमान मुझे नापसंद था । साथ हीं मेरी जानकारी में उसके अतीत के कई अवशेषों से मुझे खास अरुचि थी । एक तरफ़ से मैं बी हरत के नजदीक पश्चिम के जरिये आया और उसे एक हमदर्द पश्चिमवासी की निगाह से देखा । ” जवाहरलाल नेहरू ,1946
आजाद भारत में भी जो कुछ लिखा और पढ़ा जान रहा है वो निष्पक्ष नहीं जान पड़ता ।इस दौरान जो राजनीतिक इतिहास लिखा भी गया वह या तो प्रशासनिक इतिहास लेखन की औपनिवेशिक शैली से ग्रस्त था अथवा ४७ के बाद इसी तर्ज पर रचा गया राजनयिक यानि विदेश निति के सन्दर्भ में लिखा गया इतिहास था । आरम्भ से एकतरफा लिखा जाता रहा इतिहास अब दो पाटों में कमोबेश पिस रहा था । समग्र राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक समान नज़र डालने की कोशिश ना के बराबर हुई है । इतिहास लेखन की दोनों धाराओं के बीच एक गुंजाईश अवश्य बनती है । हमें इस दिशा में प्रयास किए गये कुछ युगद्रष्टाओं के कार्यों को आगे बढ़ाने का काम करना चाहिए । अब तक समाज की जिम्मेदारी जिस बौद्धिक वर्ग के ऊपर थी वो भी इस कुचक्र में फंसकर आजकल लोगों के शुद्धिकरण में लगा हुआ है । जबकि आज सबसे पहले इतिहास के शुद्धिकरण की आवश्यकता है । आज की समस्यायों और मसलों का हल भारतीय संस्कृति की परम्परा में ढूंढ़ कर नए रूप में व्याख्यायित करने का कार्य कठिन तो है पर मुश्किल नहीं । हम आज के प्रगतिशील भारतीयों को पीछे लौटने की नहीं बल्कि भविष्य की संभावनाओ को अपनी संस्कृति में खोजने की बात कर रहे हैं ।
Dear
You have raise a very valid issue. I agree with you.
Rakesh upadhyay