
—विनय कुमार विनायक
संघर्ष में जीता हूं
घूंट जहर का पीता हूं
किसको आत्मीयजन समझूं,
जबकि सब मुझसे हैं अंजान,
मैं कैसा हूं इंसान?
अर्थ का बना नही दास,
किया नही मैं अर्थ तलाश,
फिर भी कुछ को मुझसे आस,
क्या दूं उनको अनुदान,
मैं कैसा हूं इंसान?
घंटों कलम घिसकर,
जो कुछ भी पाता हूं,
कर्तव्य की वेदी पर चढ़ा,
मात्र प्रसाद भर खाता हूं,
पर दुनिया करती क्यों
मेरा ही अपमान?
मैं कैसा हूं इंसान?
कुछ ने मुझसे मतलब साधा,
मैं बना कहां किसी की बाधा,
छल छद्म से दूर खड़ा,
मानवता पर रहा अड़ा,
स्वजनों की भीड़ में ही,
मैं हो गया गुमनाम,
मैं कैसा हूं इंसान?
मन के पर को कुतर कर,
जब उतरा नीलांचल से भूपर,
तब पाया कुछ आस के पंछी,
जिसकी पीड़ा बनके चुनौती,
खड़ी अब है सीना तान,
कैसे करुं निदान?
मैं कैसा हूं इंसान?