हमने जीवन के धागों को,
धड़ी की सुँईं से टाँका है।
रोज़ वही दिनचर्या है
रोज़ वही निवाले हैं।
कभी शब्द बो देते है तो
कविता उगने लगती है।
कभी कभी
शब्दों की खरपतवारों को,
उखाज़ उखाड़ के फेंका है।
शब्द खिलौने से लगते हैं,
मन बहलाते है,
कभी हँसी ठिठोली करते हैं,
कभी आँख के आँसू बनते है।
रिश्तो के उलझे धागों मे हम,
अपना अस्तित्व भुलाते हैं,
ये शब्द ही हैं,
जो हर उलझन को सुलझाते है।
मैं शब्दों को छोड़ भी दूँ
पर ये वापिस आ जाते हैं।
कहीं से काग़ज़ कलम ढूँढ कर
हाथ मे थमा जाते है।
नींद बावरी भी अब तो
शब्दों की मुहताज हुई,
जब तक न खेले शब्दों से
नैनो से में कहाँ समाती है।
हम जीवन के इन धागों को
धड़ी की सुँई से सीते हैं,
उधेड़ते हैं, फिर सीते हैं
कोई नई कृति बनाते है।