मानव की सिद्धावस्था : संतश्री देवराहा शिवनाथ जी

परमपूज्य त्रिकालदर्शी परमसिद्ध योगीराज व अध्यात्म गुरु संतश्री देवरहाशिवनाथ जी महाराज ने आरा में भक्तों को संबोधित करते हुए कहा कि धान का छिलका छूटते ही धान चावल कहलाने लगता है। आगे संतश्री ने कहा कि धान चावल हो सकता है परन्तु चावल धान नहीं हो सकता। जब जीव पर से माया का आवरण हट जाता है तो जीव शिव हो जाता है और जब जीव पर माया का आवरण चढ़ा रहता है तो वह जीव ही रहता है। शिवस्वरुप पुरुष संसार के व्यवहारपूर्ण रुप से पालन करने में असमर्थ होता है और जीवात्मा समर्थ। चूंकि संसार को चलाने में माया ही सक्षम है। मायावी को प्रसन्न करने के लिए माया को ढ़ोना ही पडे़गा और भगवान को प्रसन्न करने के लिए माया से अलग होकर ही चलना पड़ेगा। माया को विकार माना गया है। भगवान विकाररहित हैं। धान और चावल दोनों को अलग-अलग पका देने पर धान का भात बनता है जो जानवर के लिए सुपाच्य होता है। धान का भात मनुष्य के लिए और चावल का भात जानवर के लिए अपाच्य होता है। जो र्इश्वर के लायक होता है, वह संसार के लिए नहीं होता और जो संसार के लिए होता है वह र्इश्वर के लायक नहीं होता।

आगे संतश्री देवराहिशिवनाथ महाराज जी ने कहा है कि -मेरे गुरुदेव श्री देवराहा बाबा कहते थे कि मैं क्या कहूं, कैसे ज्ञान बताऊं, ज्ञान तो अनुभव का विषय है। इसलिए अनुभव को प्रस्तुत करना बड़ा ही कठिन कार्य है। जैसे गूंगा मिठास का अनुभव नहीं कर सकता, वैसे ही सच्चा साधक र्इश्वरीय आनंद का वर्णन नहीं कर सकता। आज तो धन प्रतिष्ठा को ही लोग आनंद समझते हैं। धन-प्रतिष्ठा आनंद का कारण नहीं सकता। चीन और शहद के घोल को अलग-अलग घोला जाए तो दोनों के मिठास में अंतर होगा। इसी तरह आनंद और महानंद में अंतर है। जब तुच्छ आनंद का त्याग होगा, तभी महाआनंद की प्रापित होगी। ऐसी स्थिति में र्इश्वर को देखने और र्इश्वर की वाणी सुनने के अलावा किसी अन्य को देखने और सुनने की इच्छा का अंत हो जायेगा। वाणी पर विराम लग जायेगा, यही सिद्ध संतों की अवस्था है। इस स्थिति में संसार से दूर हटकर निर्जन वन ही अच्छा लगेगा। यदि सिद्ध संत संसार में रहता भी है तो वह क्या करता है, क्या कहता है, कैसे चलता है, यही भौतिकवादी मनुष्य के ज्ञान से परे की बात है। वहीं इसमें आरा, पटना, बक्सर, सनदियां, गीधा और कोर्इलवर से हजारों की संख्या में भक्तगण मौजूद थे।

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