भारत मूलतः विविधतायों का देश है . विविधतायों में एकता ही यहाँ सामासिक संस्कृति की स्वर्णिम गरिमा को आधार प्रदान करती है .वैदिक काल से ही सामासिक संस्कृति में अन्तर और बाह्य विचारों का अंतर्वेशन ही यहाँ की विशेषता रही है ,इसलियें किसी भी सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात करना भारत में सुलभ और संप्राय है .इसी परिपेक्ष्य में धार्मिक सहचार्यता भी इन्ही विशेषताओं में से एक रही है ,इसका अप्रतिम उदाहरण सूफीवाद में देखा जा सकता है .जहाँ पर इस्लामिक एकेश्वरवाद और भारतीय धर्मों की कुछ विशेषताओं का स्वर्णिम संयोजन हुआ तथा परिणाम स्वरूप एक संश्लेषित धार्मिक वैचारिकता का सफल आगमन हुआ .अगर हाल के वर्षों में देखा जाय तो भारत की सांस्कृतिक विविधता – सांस्कृतिक विषमता में परिवर्तित हो रही है जिससे लोगो के मध्य सद्भाव में ह्रास के साथ ही सांस्कृतिक विशेषता पर भी नकारात्मक प्रभाव भी पड़ रहा है .सांप्रदायिकता का तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृति से है ,जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर सम्पूर्ण समाज तथा राष्ट्र के विरूद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्व देती है. आज इसी के कारण समाज का बड़ा तबका एक दूसरे के जान के दुश्मन बने है .
इस समय सांप्रदायिक तनाव को लेकर हरियाणा में फैली हिंसा हो या मणिपुर का जातीय संघर्ष हो ,इससे काफी जान माल का नुकसान हुआ है .ऐसी घटनाएँ निश्चित रूप से सरकारी ख़ुफ़िया तंत्र के विफलता का परिणाम है .अगर सांप्रदायिक हिंसा की बात की जाये तो वर्ष 1949 में देश बटवारे के समय भयंकर रक्तपात हुआ .इसके बाद कुछ समय तक देश शांत रहा लेकिन पुनः वर्ष 1961 में दंगा हुआ जो देश के लिए एक जबरदस्त सांप्रदायिक झटका था .वर्ष 1960 के दशक में जब पूर्वी पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थियों को बसाया जा रहा था तो क्रमशः देश के पूर्वी हिस्सों राउरकेला(वर्ष1964),जमशेदपुर(वर्ष 1965)और रांची में जबरदस्त सांप्रदायिक हिंसा हुआ .इनमे ज्यादातर हिन्दुओं को निशाना बनाया गया . वर्ष 1984में हुए सिख दंगे को भला कौन भूल सकता है ,जिसमे लगभग 4000 सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया था . इसके बाद भी कई सांप्रदायिक हिंसा हुए लेकिन सबसे चर्चित वर्ष 1985 में साह बानों और बाबरी मस्जिद – रामजन्म भूमि विवाद ने सांप्रदायिकता को तीब्र करने के लिए शक्तिशाली उपकरण का कार्य किया . इन सबके बावजूद ऐसी घटनाएँ अनवरत जारी रही .इसका प्रमुख कारण रजनीतिक उदासीनता रहा है . आज भी जिनके कार्यकाल में सबसे ज्यादा दंगे हुए वही संसद से सड़क तक सरकार का सहयोग करने के बजाय केवल राजनितिक फायदे के लिए एक दुसरे पर कीचड़ उछाल रहे है .
अगर सांप्रदायिक हिंसा के प्रभाव की बात की जाय तो निर्दोष लोग अनियंत्रित परिस्थितियों में फंस जाते है जिससे उनके मानवधिकारों का जबरदस्त हनन होता है .ऐसी घटनाओं के कारण जानमाल का काफी नुकशान होता है .जिस तरह हरियाणा में व्यापरियों की निशाना बनाया गया ,इससे काफी धन हानि हुई .ऐसी घटनाये ज्यादातर प्रायोजित होती है और दंगाइयों के निशाने पर व्यापारी वर्ग व सरकारी सम्पत्ति होती है .सांप्रदायिक हिंसा में पीड़ित परिवार को सबसे अधिक खमियाजा भुगतना पड़ता है ,उन्हें अपना घर ,प्रियजनों यहाँ तक की जीविका से भी हाथ धोना पड़ता है .सांप्रदायिकता देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए भी चुनौती प्रस्तुत करती है क्योकिं हिंसा को भड़काने वाले और इससे पीड़ित दोंनों पक्षों में ही देश के नागरिक शामिल होते है .ऐसी हिंसा हमेशा बंधुत्व और धर्मनिरपेक्षता जैसे संबैधानिक मूल्यों को प्रभावित करती है .सांप्रदायिकता के नाम पर भारत में केवल राजनितिक पार्टिया अपने नफा नुकसान के हिसाब से समाज को दिग्भ्रमित करती है .इसी का परिणाम है कि कोई ऐसी पार्टी नही जिसके शासन काल में सांप्रदायिक हिंसा न हुई हो .इस मुद्दे पर संसद में व्यापक चर्चा करने के बजाय आज विपक्ष केवल अपने निहित स्वार्थ के लिए लगातार गतिरोध उत्त्पन्न कर रहा है .
वर्तमान समय में ऐसी घटनाये भारत के साथ – साथ विश्व स्तर पर भी देखि जा सकती है .धर्म, राजनीति, क्षेत्रवाद ,नस्लीयता या फिर किसी भी आधार पर होने वाली सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए जरुरी है कि हम सब मिलकर सामूहिक प्रयास करे औए अपने कर्तब्यों का निर्वहन ईमानदारी पूर्वक करे . ये एक ऐसा मुद्दा है जिसे हल किये बिना किसी भी देश का विकाश नही हो सकता .मानवता को जीवित रखने के लिए हमें अपने अंदर के कटुता को मिटाना होगा जिससे आपसी भाईचारा बना रहे .अगर हम ऐसा करने में सफल हो पाते है, तो निश्चित रूप से देश में नही बल्कि विश्व पटल पर सद्भावना की स्थिति कायम होगी क्योकि सांप्रदायिकता का मुकाबला एकता व सद्भाव से ही संभव है.
नीतेश राय