भूख सूचकांक का तिलिस्म

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प्रमोद भार्गव

अंतरराष्ट्रिय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान द्वारा प्रत्येक वर्ष जारी होने वाले वैश्विक भूख सूचकांक की ताजा रिपोर्ट में भारत की बद्हाली एक हद तक कम हुई है। सूची में शामिल 76 देशों में अब भारत 55वें स्थान पर है,जबकि पिछली मर्तबा 63वीं पायदान पर था। यानी मोदी सरकार के आते ही बेहतरी का स्तर 8 अंक तक सुधर गया। 2009-10 में जब भारत की विकास दर चरम पर रहते हुए 8 से 9 फीसदी थी,तब भी भूखमरी का स्थान 84 देशों की सूची में 67वां था। अब जब हमारी घरेलू उत्पाद दर 5.7 फीसदी है और औद्योगिक उत्पादन घटकर बीते सवा साल में महज 0.4 फीसदी की वृद्धि दर पर टिका हुआ है,तब एकाएक भुखमरी का दायरा कैसे घट गया ? आंकड़ों की बाजीगरी का यह तिलिस्म समझ से परे है। क्योंकि जब-जब औद्योगिक उत्पादन बढ़ता हैं,तब-तब लोगों को रोजगार ज्यादा मिलता है,लिहाजा वे भूख की समस्या से निपट पाते हैं। अलबत्ता यह तिलस्म ही है कि घटती औद्योगिक उत्पादन दर के क्रम और बेरोजगारी की मुफलिसी में भूखों की संख्या घट रही है ? अंतरराष्ट्रिय सूचकांकों के अविश्वसनीय व विरोधाभासी आंकड़ों से यह आशंका सहज ही पैदा होती है कि कहीं यह खेल बहुराष्ट्रिय कंपनियों का तो नहीं, क्योंकि किसी देश की केंद्रीय सत्ता को अपने हितों के अनुकूल करने की फितरत इनकी चालाकी में शामिल है।

दक्षिण एशिया में भारत की अर्थव्यस्था सबसे बड़ी है। देशव्यापी एकल व्यक्ति आमदनी में भारत के समक्ष कोई दूसरा देश इस भूखंड में नहीं है। जाहिर है,भारत में एक ऐसा मघ्य वर्ग पनपा है,जिसके पास उपभोग से जुड़ी वस्तुओं को खरीदने की शक्ति है। मोदी राज में बिल्ली के भाग्य छींका टूटने की कहावत चरितार्थ हुई है। विश्व ने ध्यानाकर्षित किया है कि अमेरिकी अर्थव्यस्था में सुधार और अंतरराष्ट्रिय बाजार में तेल की कीमतों में भारी गिरावाट ऐसे पहलू हैं,जिनसे भारत में आर्थिक एवं वित्तिय स्थिति बेहतर होने का पूर्वाभास होने लगा है। गोया,किसी देश की बेहतरी को उजागार करने वाले मानव विकास सूचकांक बहुराष्ट्रिय कंपनियों को भारत में पूंजी निवेश के संकेत देने का काम कृत्रिम ढंग से करने लग गए हैं। वरना यह कतई संभव नहीं था कि पिछले चार माह में आजीविका कमाने के कोई नए उपाय किए बिना भूख सूचकांक बेहतर हो पाता ? आगे भी ये सूचकांक बेहतर होंगे ? क्योंकि मोदी बड़ी चतुराई से एक तो खाली पड़े अवसरों का लाभ उठा रहे हैं,दूसरे चुनौतियों को संतुलित ढंग से संभालने की कोशिश में लगे हैं। इसका ताजा उदाहरण पं.दीनदयाल उपध्याय ‘श्रमेव जयते‘ कार्यक्रम है।

मोदी ने मेक इन इंडिया के तहत जिस तरह से श्र्रम कानूनों में ढील देते हुए श्र्रमिकों की भविष्य निधि की जो 27000 करोड़ की धन राशि सरकार के पास सुरक्षित है,उसे श्रमिकों के खाते में स्थानांतरित करने का भरोसा दिया है। यह राशि उपभोक्ताओं की जेब में पहुंचा दी जाती है तो एकाएक उपभोक्ताओं की संख्या में वृद्धि होगी और उपभोग के उपकारण बड़ी मात्रा में बिकेंगे। चूंकि यह व्यवस्था कंपनियों के लिए लाभकारी सिद्ध होगी लिहाजा दुनिया में मोदी सरकार की साख भी मजबूत होगी।

इस तरह की डंप पड़ी अन्य धनराशियों को भी मोदी सरकार उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का प्रयत्न कर सकती है। इनमें बगैर दावे वाली बीमा और सरकारी कर्मचारियों की भविष्यनिधियां हो सकती हैं। बैंकों में भी करीब 20,000 करोड़ ऐसे रूपए जमा हैं,जिनका काई दावेदार नहीं है। यदि एक के बाद एक इन राशियों का निकलना शुरू होता है तो कोई मजबूत औद्योगिक उपाय और कृषि में सुधार किए बिना मोदी कंपनियों को बाजार उपलब्ध कराने में सफल हो जाएंगे। इनसे जहां दुनिया में भारत की हैसियत बढ़ेगी,वहीं मोदी की व्यक्तिगत साख को भी चार चांद लग सकते हैं। लेकिन अर्थव्यस्था सुधारने के ये उपाय तात्कालिक साबित होंगे,जैसे कि मनमोहन सरकार में उस समय हुए थे जब कंपनियों के दबाव में सरकारी कर्मचारियों को छठे वेतानमान की खैरात बांट दी गई थी ? मोदी के इन उपायों को तब जरूर झटका लग सकता है जब सीमा पर युद्ध के हालात निर्मित हो जाएं ?

सामाजिक प्रगति के ये संकेत चाहे जितने वैज्ञानिक हों, अतंतः इन पर नियंत्रण पश्चिमी देशों का ही है। इसलिए जब उन्हें किसी देश में निवेश की संभावनाएं अपने आर्थिक हितों के ज्यादा अनुकूल लगती हैं तो वे उस देश में वस्तुस्थिति मापने के पैमाने को शिथिल कर देते हैं। भारत में भूख सूचकांक के नमूने इकट्ठे करने में यही लचीला रूख अपनाया गया है। दरअसल नमूने संकलन में यूनीसेफ की मदद से केंद्रिय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए ताजा सर्वेक्षण के परिणामों को भी शामिल किया गया है। परिणामस्वरूप उंची छलांग का सुनहरा अवसर भारत के हाथ लग गया। इस सर्वे के अनुसार 2005 में 5 वर्ष से कम उम्र के 43.5 प्रतिशत बच्चे औसत से कम वजन के थे,जबकि अब यह संख्या 30.7 प्रतिशत है। वैश्विकी भूख सूचकांक कुल जनसंख्या में कुपोषणग्रस्त लोगों के अनुपात,पांच वर्ष से कम उम्र वर्ग में सामान्य से कम वजन के बच्चों की संख्या और पांच साल से कम आयु के बालकों की मृत्युदर को आधार बनाकर की जाती है। इनमें से सुधार की एक स्थिति पांच साल तक के बच्चों में देशव्यापी फैला कुपोषण कम होना रहा है। इस सुधार की पृष्ठभूमि में मध्यान्ह भोजन,एकीकृत बाल विकास,राष्ट्रिय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन,सार्वजानिक वितरण प्रणाली और मनरेगा जैसे कार्यक्रम और योजनाएं भागीदार रही बताई गई हैं। गोया,साफ होता है कि ये योजनाएं कोई नई नहीं हैं। मनरेगा और राष्ट्रिय स्वास्थ्य मिशन योजनाओं को छोड़ दें तो अन्य योजनाएं दशकों से लागू हैं। तब इनके ऐसे सार्थक व सकारात्मक परिणाम मानव प्रगति सूचकांक से जुड़ी पिछली रिर्पोटों में क्यों नहीं आए ? तय है,केंद्र सरकार की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के हिसाब से विकास प्रक्रिया की समावेषीकरण से जुड़ी नीतियों की प्रासंगिकता साबित करने के उपाय अंतरराष्ट्रिय मानव विकास सूचकांक करते हैं।

हालांकि रिपोर्ट भारत के अनुकूल होने के बावजूद हालात संतोषजनक नहीं हैं। पड़ोसी देशों से तुलना करें तो भारत की स्थिति पाकिस्तान और बांग्लादेश से बहुत थोड़ी अच्छी है। इनसे वह दो पायदान उपर है। जबकि बहुत छोटे देश श्रीलंका और नेपाल से बहुत पीछे है। श्रीलंका से 39वें स्थान पर है तो नेपाल से 44वें स्थान पर हैं। यही नहीं भारत घाना और मालवी जैसे अफ्रीका के गरीबी से जूझ रहे देशों से भी बहुत पीछे है। इस सूची में चीन का अनुक्रम पांचवा है। मसलन वह हमसे 50 सीढ़ी उपर हैं। भारत की थोड़ी बेहतर स्थिति तब है,जब उसने आठ सोपान उपर कदम बढ़ाए हैं। इस रिपोर्ट के परिप्रेक्ष्य यह पहलू भी गोरतलब है कि यह रिपोर्ट पूरे देश का औसत आईना है। यदि राज्यों के स्वतंत्र रूप से आंकड़े पेश किए जाएं तो कई राज्यों में तो बदहाली के आलम से पर्दा उठाना ही मुश्किल होगा ?

भारत को दुनिया बड़ा मध्यवर्ग होने के कारण एक बड़े बाजार के रूप में देख रही है। इसलिए अनुकूल महौल पाते ही देशी-विदेशी पूंजीपति निवेश की फिराक में है। इस अनुकूलन के लिए यह शायद पहली मर्तबा हुआ है कि केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने भी भारतीय वाणिज्य अनुसंधान ब्यूरो द्वारा भी एक सर्वेक्षण कर लिया। यह सर्वेक्षण कराया तो शिक्षा के संदर्भ में है,लेकिन किसी वाणिज्य संस्था से सर्वे कराना हैरत में डालने वाला मसला है ? हो सकता है,यह सर्वे इसलिए कराया हो,जिससे शिक्षा की ऐसी बेहतर तस्वीर पेश की जा सके, जिसमें कल का उज्जवल भविष्य लिखने की बौद्धिक क्षमता की झलक दिखाई दे। फलतः निवेशक लालायित हों ? इस सर्वे के मुताबिक शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद से शाला न जाने वाले 6-14 वर्ष की उम्र के बच्चों की संख्या में 26 फीसदी गिरावट आई है। 2009 में ऐसे छात्रों की संख्या 81.5 लाख थी,जो 60.6 लाख रह गई है। मसलन पढ़ने लायक 60 लाख 60 हजार बच्चे अभी भी पाठशाला की देहरी छूने से दूर बने हुए हैं। बावजूद यह अच्छी खबर है कि बालिकाओं,दलितों और मुस्लिमों में पढ़ने की ललक बढ़ी है,जबकि आदिवासी समुदाय पूरे देश में कमोवेश यथास्थिति में हैं।

यह अच्छी बात है कि राजग सरकार आर्थिक समृद्धि पर जोर दे रही है,लेकिन एक समृद्ध होते समाज में समान अवसर और समावेषीकरण जरूरी है। गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज द्वारा ‘भारत अपवर्जन‘;इंडिया एक्सक्लूजनद्ध रिपोर्ट इस सिलसिले में नीति-निर्माताओं की विषमताओं का खाका खींचने वाली है। इसके मुताबिक शिक्षा,गरिमामयी नौकरी,उचित आवास व न्याय तक पहुंच बनाने की दृष्टि से दलित,आदिवासी,मुस्लिम और महिलाओं और विकलांगों के लिए आज भी हालात अनुकूल नहीं हैं। सकल जनसंख्या में इन समूहों का जो अनुपात है,उससे उन्हें बहुत कम सुविधाएं मिल रही हैं। यानी साक्षरता दर के मामले में आदिवासी राष्ट्रिय औसत से 12.9 फीसदी पीछे हैं। दलित और मुस्लिम समुदायों के लोग तुलनात्मक रूप से बेहद खराब घरों में रहते हैं। और मामूली रोजगार से अपनी आजीविका जुटा रहे हैं। ऐसे में कमोवेश अप्रासंगिक हो चुकी सरकारी शिक्षा और कल्याणकारी योजनाओं से इनका कल्याण होने वाला नहीं है ? ऐसे विपरीत हालातों में भूख सूचकांक का बेहतर होना,शंकाएं उत्पन्न करने वाला है।

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