वैचारिक मतभेद

 -अनिल अनूप 

1947 में हिन्दोस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ और पाकिस्तान अस्तित्व में आया। यह विभाजन करीब-करीब हजार वर्षों से भारत पर इस्लामी आक्रमण और हकूमत के बाद तीसरी शक्ति अंग्रेजी हकूत जिसे ईसाई शक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है। उस द्वारा और उसके माध्यम से ही हुआ। अंग्रेजी हकूमत की चलती तो वह शायद हिन्दोस्तान को कई और टुकड़ों में बांट देती पर तत्कालीन भारतीय नेताओं की सूझबूझ से ऐसा न हो सका।

तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इस्लामिक हमलावरों ने यहां तलवार के बल पर देश के मान-सम्मान को रौंदा भी और फिर धर्मांतरण कराकर अपनों से अपनों को लड़ाने का जो खेल हजार वर्ष पहले शुरू हुआ था वह आज भी जारी है। भारत में अंग्रेजी हकूमत के दौरान भारतीय नेताओं ने आपसी एकता के महत्व को समझते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। इस हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए कांग्रेस के संस्थापकों से लेकर आजादी के संघर्ष और आजादी मिलने के बाद और आज तक एकतरफा प्रयास किया और जारी भी है। हिन्दू मुस्लिम एकता अगर आजादी के संघर्ष के समय पर ही हो गई होती। तो शायद आज पाकिस्तान ही न बनता। पाकिस्तान बनने के पीछे हिन्दोस्तान के इस्लामीकरण की सोच ही थी। पाकिस्तान को आज विश्व का इस्लामी समाज हिन्दुत्व पर विजयी शक्ति के रूप में ही देखता । पाकिस्तान में रहने वाले अधिकतर लोग आज भी यहीं सोचते है कि उन्होंने भारत की धरती का यह भाग जीत कर लिया है और लड़ाई अभी जारी है। विश्व के तीन बड़े धर्मों में तीसरा हिन्दू धर्म है। ईसाई और इस्लाम के अनुयायी हजारों वर्षों से विचारधाराओं कोलेकर लड़ते आ रहे हैं और कई बार निर्णायक लड़ाइयां भी लड़ चुके हैं। वर्तमान में भी इस्लाम समर्थक जेहाद के नाम पर विश्व स्तर जंग लड़ रहे हैं। ईसाई और इस्लाम समर्थकों की लड़ाइयों के परिणामस्वरूप विश्व में एक नहीं अनेकों ईसाई और इस्लामिक देश अस्तित्व में आ चुके हैं।

इन दोनों के विपरीत हिन्दू धर्म के अनुयायियों ने हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए हिन्दोस्तान से बाहर कोई हिंसक प्रयास ही नहीं किया। विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों का सामना किया और परिणामस्वरूप पैदा हुई परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालते गए और समझौता करते चले गए। आजादी के बाद इसी बात का लाभ उठाते हुए एक बार फिर देश में मिली जली संस्कृति की आवाज उन लोगों ने बुलंद की जो आजादी से पहले एकतरफा एकता का ढोल बजाते थे। एकतरफा एकता के ढोल की आवाज को न तो आजादी से पहले हिन्दू धर्मविरोधियों ने सुना और न ही आजादी के बाद।

तुष्टिकरण की नीति का ही परिणाम है कि देश में बहुमत समाज की भावनाओं की अनदेखी होने लगी और राष्ट्रहित के साथ फिर खिलवाड़ होने लगा। पुलवामा कांड के बाद जिस तरह देश में एक वर्ग आतंकियों के साथ हमदर्दी करता दिखाई दे रहा है । इससे स्पष्ट होता है कि धर्म के नाम पर देश का विभाजन कराने वाली वह सोच आज भी देश में जीवित है। इसका मुख्य कारण एक ही है कि हिन्दू धर्म के अनुयायी हमेशा एक निर्णायक लड़ाई लडऩे से बचते रहे हैं। आतंकी एक विचारधारा की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमें भी वैचारिक स्तर पर एक निर्णायक लड़ाई लडऩी होगी। इसमें हिंसा की कोई जगह नहीं है। हमें हिन्दू संस्कृति सभ्यता को जीवित रखने के लिए सच की राह पर चलकर  अपने अतीत को संभालते हुए और वर्तमान को मजबूत करते हुए। एक उज्जवल भविष्य के लिए संकल्पबद्ध  व एकजुट होकर हो रहे इस्लामिक व ईसाई विचारधारों के आक्रमणों का वैचारिक ढंग से सामना करना होगा। यह एक लम्बी लड़ाई है जिसके लिए धैर्य, संयम, सत्य व निष्ठा की राह पर चलकर अपने मान-व-सम्मान को स्थायीत्व देने की आवश्यकता है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान हमारी अतीत की असफलतायों की कहानी भी है। इस कटु सत्य को स्वीकार कर अपनी वैचारिक लड़ाई लड़ें।

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