मनमोहन कुमार आर्य
हम जिस संसार में रहते है वह संसार ईश्वर का बनाया हुआ है व उसी ईश्वर के शाश्वत नियमों के अनुसार चल रहा है। मनुष्य एक जीवात्मा है, उसे ज्ञान की प्राप्ति व कर्म करने के लिए ईश्वर ने यह मानव शरीर उसके पूर्व जन्म वा जन्मों के भोग करने योग्य कर्मों के आधार पर दिया है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि वा प्राप्ति सहित विद्या के अनुसार कर्तव्यों व कर्मों को करना है। विद्या व कर्तव्यों का ज्ञान मनुष्य को ईश्वर ने ही सृष्टि के आरम्भ में वेदों के ज्ञान द्वारा दिया है। वेद का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य ज्ञानवान व विद्यावान होता है और उसके अनुरूप आचरण करने से वह सदाचारी व सन्मार्गगामी बनता है। जो मनुष्य सत्य वा विद्या को जान लेता है वह इस ज्ञान व उसके अनुरूप कर्मों को करके सुख वा उत्साह को प्राप्त होता है। इसके विपरीत जो मनुष्य सत्य ज्ञान की प्राप्ति किन्हीं कारणों से नहीं कर पाता वह सुखी व उत्साहित नहीं होता। वह प्रायः दुःखी रहता है। ऐसा मनुष्य दूसरों का शोषण व उन पर अन्याय करता है या दूसरे अविद्या से ग्रस्त मनुष्य उस पर अन्याय करते हैं व उसका शोषण कर उस पर अत्याचार करके उसे दुःख पहुंचाते हैं। वेदों का ज्ञान प्राप्त करने का तात्पर्य है कि अज्ञान रूपी अन्धकार से निकल कर ज्ञान रूपी प्रकाश को प्राप्त करना। वेदों का ज्ञान होने से मनुष्य ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति के स्वरूप व उनके गुण, कर्म व स्वभावों को यथार्थ रूप में जानकर उनका अपनी उन्नति व सुख के लिए उपयोग कर आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। जो मनुष्य वेद ज्ञान से दूर रहता है वह अपने कर्तव्यों को न जानकर अज्ञान व प्रलोभनों से प्रभावित होकर अकर्तव्य करता है जिसका फल उसे ईश्वर की व्यवस्था से दुःख के रूप में भोगना पड़ता है। आज का संसार वेद ज्ञान से दूर है। इस कारण वह सत्य व असत्य का निर्णय करने में समर्थ नहीं होता। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, इच्छा, द्वेष, अहंकार व प्रलोभनों का शिकार हो जाता है जिस कारण उसे अपने किये कर्मों का दुःख रूपी फल भोगना पड़ता है। आजकल संसार में वेद मत से इतर प्रायः सभी मनुष्य ईश्वर द्वारा पाप कर्मों का क्षमा होना मानते हैं। इसका कारण अविद्या व अपने अपने मत का विस्तार प्रतीत होता है। पाप क्षमा की बात को प्रचारित कर वह अपने अनुयायियों का अहित ही करते हैं जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती है।
महर्षि दयानन्द ऋषि थे। वह सत्य व असत्य के साक्षात्कर्ता थे। वेदों के वह मर्मज्ञ विद्वान थे। वह वेदों के ऐसे धुरन्धर विद्वान थे जैसा कि महाभारत युद्ध के बाद उनसे पूर्व अन्य कोई उत्पन्न नहीं हुआ था। उनका बनाया मुख्य ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ है। इस ग्रन्थ के सप्तम् समुल्लास में स्वामी दयानन्द जी ने प्रश्न उपस्थित किया है कि ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है या नहीं? पाप अशुभ कर्म, वेद विरुद्ध आचरण, स्वार्थ के वशीभूत होकर अकर्तव्य करना आदि को कहते हैं। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता। यदि ईश्वर पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। ऋषि दयानन्द कहते हैं कि क्षमा की बात सुन कर ही मनुष्यों को पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा यदि अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप किया करेंगे क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उन पापकर्मियों को भी भरोसा हो जायेगा कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वह भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इस लिए सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं।
ऋषि दयानन्द जी ने तर्कपूर्ण भाषा में बताया है कि ईश्वर पापियों के पाप कर्मों को क्षमा नहीं करता। यदि करेगा तो उसकी न्याय व्यवस्था समाप्त हो जायेगी। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि यदि ईश्वर ऐसा करता तो संसार में सभी पापी बन जाते। वह पाप करते और ईश्वर को कहते कि हमारे पाप क्षमा कर दीजिए, हम भविष्य में पाप नहीं करेंगे, इससे पहले भी आपने दूसरों के पाप क्षमा किये हैं, हमें भी एक अवसर दें आदि आदि। ऐसी स्थिति होने पर ईश्वर को सबके पाप क्षमा कर उन्हें अवसर देने पड़ते और सर्वत्र अव्यवस्था फैल जाती। इससे पापी व अपराधी उत्साहित होते और सज्जन व सदकर्म करने वालों का सद्कर्मों के प्रति उत्साह समाप्त हो जाता। ईश्वर किसी भी मनुष्य के किसी पाप कर्म को क्षमा नहीं करता। इसका उदाहरण हमें प्रकृति में नाना प्रकार की जीव-योनियों में जीवों को अपने पूर्व जन्मों के कर्म भोगते हुए देख कर लग जाता है। चिकित्सालयों में पड़े साध्य व असाध्य रोग के रोगी भी यही सन्देश दे रहे हैं कि किसी मनुष्य के पाप क्षमा नहीं होते। दो मनुष्यों की आकृति व गुण, कर्म व स्वभाव एक समान नहीं होते। इस अन्तर का कारण भी विचार करने पर यही ज्ञात होता है कि उनके पूर्व जन्म व इस जन्म के कर्मों में भिन्नता के कारण ही उनके वर्तमान समय के गुण, कर्म, स्वभाव व आकृति प्रकृति में भेद है। यदि ईश्वर किसी मत व समुदाय के ही लोगों के पापों को क्षमा करता तो उस मत व समुदाय में कोई दुःखी, रोगी, अल्पायु, असुन्दर, छोटा-बड़ा व अशिक्षित आदि नहीं होना चाहिये था। पाप क्षमा न होने के कारण ही ईश्वर द्वारा मनुष्य मनुष्य में यह भेद किया गया है। इससे यह अनुमान होता है कि हम अपने पूर्व जन्म के शुभ व अशुभ अर्थात् पाप व पुण्य कर्मों के कारण इस जन्म में मनुष्य अर्थात् स्त्री व पुरुष आदि बने हैं व हममें अनेक प्रकार के अन्तर व भेद विद्यमान हैं।
यदि हम इस जन्म व मृत्योपरान्त परजन्म में भी सुखी रहना चाहते हैं, तो हमें सत्य का आचरण अर्थात् वैदिक धर्म का पालन करते हुए ईश्वरोपासना, यज्ञादि कर्म, परोपकार व दान आदि कार्य करने ही होगे और सभी बुराईयों से दूर रहना होगा। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो इन कर्मों को न करके इनसे जो सुख व उन्नति का लाभ हमें होता है, उससे हम वंचित होंगे। मनुष्य किसी भी मत व सम्प्रदाय आदि में क्यों न अपना लें व उनमें जन्मा हो, यदि वह गलत काम करेगा तो ईश्वर की व्यवस्था से उसे इस जन्म व परजन्म में उसके कर्म के परिमाण के अनुसार दुःख अवश्य ही भोगना होगा। वह लाख कोशिश करने पर भी बच नहीं सकता है। यह शाश्वत एवं अटल नियम हैं। ओ३म् शम्।