काशी विश्वनाथ मन्दिर में पूजा में रूकावट ने स्वामी श्रद्धानन्द को नास्तिक बना दिया था

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मनमोहन कुमार आर्य,

सन् 1876 की घटना है। स्वामी श्रद्धानन्द जी पूर्व नाम मुंशीराम के पिता काशी में पुलिस अधिकारी थे। वह अपने पिता के पास रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उनके जीवन पर पौराणिक पिता के संस्कार थे और वह मूर्तिपूजा आदि पौराणिक परम्पराओं का पालन करते थे। नियमित मन्दिर जाना भी उनकी दिनचर्या में सम्मिलित था। काशी में विश्वनाथजी का प्रसिद्ध मन्दिर है जिसे मुगल शासन के समय में यवनों ने तोड़ दिया था और हमारे पुजारियों की दुर्दशा की थी। समय बदला और उसके साथ काफी कुछ सामान्य हो गया। अंग्रेजों का राज आया और हमारे पौराणिक हिन्दू भाई-बहिन मन्दिर में पूजा आदि कृत्य पूर्ववत् करने लगे। इस काशी विश्वनाथ मन्दिर से जुड़ी अपने किशोरावस्था की घटना पर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ में प्रकाश डाला है। इस घटना को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने इस घटना का शीर्षक ‘अन्धविश्वास के जीवन की समाप्ति’ दिया है। घटना का उल्लेख कर उन्होंने निम्न विवरण अपनी लेखनी से लिखा हैः

 

‘अविद्यायामन्तरे वर्त्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।

जंघन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।।

 

जहां (काशी में) प्रातःकाल गंगा स्नान से पहले कुश्ती का फिर प्रारम्भ हो गया था और डलिया-झारी लेकर विश्वनाथादि (मन्दिर) की पूजा-अर्चन करके जलपान करना नित्यकर्म-विधि का एक अंग बनाया गया था, वहां सायंकाल-भ्रमण के पीछे सात बजे विश्वनाथदि के दर्शन नित्य करने के पीछे मैं रात्रि का ब्यालू करता था। पौष 1932 (लगभग जनवरी, 1876) विक्रमी के अन्त में एक दिन भ्रमण करने ऐसी ओर गया जहां से मेरा निवास-स्थान समीप न था। दूर चले जाने से लौटना साढ़े सात बजे हुआ। कुछ आराम करके आठ बजे दर्शनों के लिए चला। विश्वनाथ का मन्दिर एक गली में है जिसके दोनों ओर पुलिस का पहरा रहता था। मैं विश्वनाथ की ओर के फाटक पर पहुंचा तो पहरे-वालों ने मुझे रोक दिया। पूछने पर पता लगा कि रीवॉ की रानी दर्शन कर रही हैं, उनके चले जाने पर द्वार खुलेगा। मुझे कुछ खिसियाना-सा देख पुलिसमैन ने, जो मेरे पिता की अर्दली में रह चुका था, मोढ़ा बैठने को रख दिया। मैं एक पल के लिए बैठ तो गया परन्तु विचार कुछ उलट गये। इस रुकावट से मेरे दिल पर ऐसी ठेस लगी जिसका वर्णन लेखनी नहीं कर सकती। जी घबड़ा उठा, मैं उठा और उलटा चल दिया। पहरेवाले ने बहुत पुकारा, परन्तु मैंने घर आकर ही दम लिया। आहट पाकर भृत्य भोजन लाया तो क्या देखता है कि मैं कपड़े पहरे ही बिस्तरे पर लेट रहा हूं। कह दिया कि भोजन नहीं करूंगा। नौकर मेरे आग्रह करने पर स्वयं खाना खाकर सो गया।

 

मुझे वह रात जागते बीती। मन की विचित्र व्याकुल दशा थी। प्रश्न-पर-प्रश्न उठते थे–‘क्या सचमुच वह जगत्स्वामी का दरबार है जिसमें एक रानी उसके भक्तों को रोक सकती है? क्या यह मूर्ति विश्वनाथ हो सकती है या वे देवता कहला सकते हैं जिनके अन्दर ऐसा पक्षपात हो? परन्तु मूर्ति को देवता किसने बनाया? नित्य मेरे सामने संगतराश ही तो मूर्तियां बनाते हैं ….’। कभी व्याकुल होकर दस-बीस मिनट टहलता, फिर बैठ जाता। फिर दूसरी ओर प्रश्नावली की लहर-पर-लहर उठती–‘‘जब सांसारिक व्यवहारों में पक्षपात है तो देवताओं के दरबार में उसका दखल क्यों न होगा, क्या मनुष्यों ने भी पक्षपात देवताओं से ही सीखा? क्या मेरे स्वच्छन्द जीवन ने तो मुझे अविश्वासी नहीं बना दिया?’’ गोस्वामी तुलसीदास के दोहे और चौपाइयां याद आने लगी। जब नीचे लिखे दोहे का स्मरण हुआ तो अश्रुधारा बह निकली–

 

बार बार बर मांगऊं, हरषि देहु श्रीरंग।

पद सरोज अनपायनी, भगति सदा सतसंग।।

 

एक घण्टे तक आंसुओं का तार बंधा रहा। अपने इष्टदेव महावीर से प्रकाश के लिए प्रार्थना की। परन्तु उस समय बाल-यति (हनुमान) के ध्यान से भी कुछ न हुआ। अन्त को रोना-धोना बन्द हुआ और प्राचीन यूनान, रोम की मूर्तिपूजा के इतिहास पर मानसिक दृष्टि दौड़ गयी। पहले जो लेख मूर्तिपूजा में रुचि दिलाते थे, उन पर नया प्रकाश पड़ने लगा। हिन्दू मूर्तिपूजा के विरुद्ध ईसाइयों की जो दलीलें पढ़ी थीं उन्होंने मुझे हिन्दू देवमाला से बेगाना बना दिया और आधी रात पीछे यह निश्चय करके सो गया कि अपने प्रिन्सिपल पादरी ल्यूपोल्ट से संशय निवृत करूंगा।’ (उद्धरण समाप्त)

 

इस घटना को पढ़कर मूर्तिपूजा व उसके पुजारी के भक्तों के प्रति भेदभाव के व्यवहार से संबंधित कई प्रश्न उत्पन्न होते हैं। मूर्तिपूजा विषयक कुछ ऐसे ही प्रश्न बालक मूलशंकर (स्वामी दयानन्द) के मन में भी शिवरात्रि के व्रत के दिन उठे थे। ईश्वर व उसके सत्यस्वरूप से भिन्न मूर्ति को लेकर जो प्रश्न मूलशंकर के मन में उठे थे, उसका समाधान उनके ज्ञानी पिता व अन्य किसी से नहीं मिला था। इसका परिणाम यह हुआ था कि उन्होंने मूर्तिपूजा करना छोड़ दिया था। बाद में वेदादि के अध्ययन व योग साधना से उन्हें ईश्वर के सत्य स्वरूप व उसकी उपासना की विधि का ज्ञान हुआ। गहन तपश्चर्या एवं उपासना से उन्हें मूर्तिपूजा की निरर्थकता का रहस्य भी अनुभव हुआ। उनके गुरु भी ब्राह्मण कुलोत्पन्न आर्ष ज्ञान की खान थे। वह भी मूर्तिपूजा को शास्त्र विरुद्ध एवं ईश्वर प्राप्ति में बाधक मानते थे। उनकी प्रेरणा से ही स्वामी दयानन्द वेद प्रचार सहित मूर्तिपूजा व अन्य धार्मिक अन्धविश्वासों के खण्डन में प्रवृत्त हुए। स्वामी श्रद्धानन्द जी की सन्तुष्टि व तृप्ति भी न तो पौराणिक मत से हुई थी न ईसाई मत के निकट जाने पर। बाद में उनकी सन्तुष्टि आर्यसमाज की विचारधारा से हुई जो कि वेद मत का ही पर्याय है।

 

हम यहां मूर्तिपूजा विषयक कुछ स्वानुभूत घटनायें भी प्रस्तुत करते हैं। हमारे एक सुहृद मित्र ने एक बार शिवरात्रि के बाद अपने 8-10 वर्षीय पुत्र की घटना सुनाई थी। हमारे वह मित्र ब्राह्मण कुलोत्पन्न थे एवं प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। अनेक ज्येतिष के विद्वान उनसे परामर्श लेते थे। उनके पिता श्री अमन सिंह शर्मा भी ज्योतिष के प्रसिद्ध विद्वान थे। हम परस्पर मूर्तिपूजा एवं अन्य विषयों पर चर्चा करते रहते थे। अपने पुत्र की घटना सुनाते हुए उन्होंने बताया था कि शिवरात्रि के दिन वह अपने परिवार व माता-पिता के साथ शिवरात्रि से संबंधित कार्यक्रम देख रहे थे। उस कार्यक्रम में जब शिवलिंग की लोगों द्वारा पूजा होते दिखाया गया तो बच्चे के दादा-दादी व माता-पिता ने हाथ जोड़ लिये। बालक हिमांशु को भी हाथ जोड़ने को कहा गया। उस बालक ने अपने दादा जी को उत्तर दिया कि मैं हाथ क्यों जोडू, यह कोई भगवान नहीं है, यह तो पत्थर है। यह घटना यत्र तत्र परिवारों में हो जाना सामान्य बात है। कुछ ही दिन पहले एक घटना एक फेस बुक पोस्ट से सामने आयी है। एक बहिन जी ने लिखा कि वह अपनी कुछ सहेलियों के साथ एक मन्दिर में गईं जहां 501, 201, 101 और 51 रूपये की निर्धारित दर से प्रसाद लेकर चढ़ाया जाता है। उन्होंने लिखा कि सबने अलग अलग धनराशि का प्रसाद खरीदा। उन्होंने सबसे कम मूल्य 51 रूपये वाला प्रसाद लिया। पुजारी जी ने अधिक धनराशि वाले प्रसाद वालों को अधिक महत्व दिया और इस 51 रूपये की न्यूनतम धनराशि के प्रसाद वाली बहिन के साथ पक्षपात किया। कामाख्या मन्दिर में भी एक बार हमारे साथ एक पुजारी और एक व्यक्ति के बीच दक्षिणा को लेकर कहा-सुनी हुई थी। पुजारी जी ने उस व्यक्ति को दर्शन करने की लाईन के स्थान पर पीछे के रास्ते से ले जाकर दर्शन कराये थे। पुजारी जी अधिक दक्षिणा मांग रहे थे और वह व्यक्ति कम दे रहा था। अन्त में पुजारी जी ने दक्षिणा नहीं ली। हमें लगता है कि यह कार्य दोनों ने ही गलत किया था। अतः विचारशील लोगों को मूर्तिपूजा के सत्य व असत्य पक्षों पर विचार करना चाहिये। इसके लिए वह सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की भी सहायता ले सकते हैं।

 

ईश्वर सर्वव्यापक है अतः सर्वत्र, प्रत्येक स्थान पर, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना की जा सकती है। ईश्वर की पूजा के लिए पुष्पो व जल आदि का उल्लेख वेद सहित किसी प्राचीन आर्ष ग्रन्थ में नहीं है। स्वामी शंकराचार्य जी की विचारधारा से भी मूर्तिपूजा का पोषण नहीं होता। कबीरदास, गुरु नानक जी व अनेक सन्त मूर्तिपूजा के पक्ष नहीं रहे। वेद ऋषि स्वामी दयानन्द जी के अनुसार मूर्तिपूजा से लाभ कोई नहीं होता, अपितु हानि होती है। इसके कारण ही हमारे मन्दिर टूटे और हमें पराधीनता व अपमान का जीवन व्यतीत करना पड़ा। हम आर्य हिन्दुओं की जनसंख्या निरन्तर कम हो रही है तथा दूसरों मत व समुदायों की पढ़ रही है। इस समस्या की ओर हमारे बन्धुओं का ध्यान नहीं है या कम है जिससे भविष्य में अनेक प्रकार के खतरे हैं। हमारे कुछ पौराणिक विद्वान भी मानते हैं जनसंख्या के कारण देश की राजनैतिक स्थिति और विषम होगी और आगामी 25-30 वर्षों में इसके भयावह परिणाम हो सकते हैं। अतः किसी के भी द्वारा मूर्तिपूजा को मान प्रतिष्ठा का मुद्दा न बनाकर इसे विवेक से हल करना चाहिये। ऋषि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द जी ने भी अपने जीवन में ऐसा ही किया था। आर्यसमाज के विद्वान व अनुयायी इसी कारण निराकार व सर्वव्यापक ईश्वर की सन्ध्या, स्तुति-प्रार्थना-उपासना व यज्ञ आदि करते हैं। हृदयस्थ आत्मा में निहित परमात्मा का उसी स्थान पर ध्यान करने का विधान वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में मिलता है। श्री राम व श्री कृष्ण जी भी वेदों के अनुसार ही ईश्वर का ध्यान व सन्ध्या करते थे। सब मनुष्यों के लिए कल्याणकारी होने के कारण सर्वव्यापक ईश्वर का नाम शिव है। उसकी उपासना की वैदिक विधि सन्ध्या ही है। इसी को सबको अपनाना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के लिए धर्म का यह सिद्धान्त निश्चित किया है कि सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में मनुष्य को उद्यत रहना चाहिये। विज्ञान के क्षेत्र में इसे सर्वत्र माना ही जाता है। चाहे यूरोप हो या पाकिस्तान, जापान हो या भारत, विज्ञान के क्षेत्र में सभी इसे मानते हैं। यदि नहीं मानेंगे तो एक कदम आगे नहीं बढ़ सकते। वैदिक मत के इतर सभी धर्म व मतों में इस सिद्धान्त की उपेक्षा की जाती देखी जाती है। वेद धर्म में भी इस सिद्धान्त के पक्षधर है। उसी से ईश्वर का साक्षात्कार व जीवन में सफलतायें प्राप्त होती हैं। अतः आर्यसमाज ने इस सिद्धान्त को अपनाया व प्रचार किया है। विश्व में सुख शान्ति के लिए सभी मतों व सम्प्रदायों को इस सिद्धान्त को स्वीकार कर अपने अपने मत की मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिये और जो सत्य निश्चित हो, उसे अपनाना चाहिये। ओ३म् शम्।

 

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