सत्ता के बजाय भ्रष्टाचार के विकेन्दीकरण में आरक्षण प्रकि्रया तो दोषी नहीं?

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संविधान में संशोधन कर राजीव गांधी ने त्रि स्तरीय पंचायती राज्य एवं स्थानीय निकायों के चुनाव हर पांच साल में कराने की अनिवार्यता का प्रावधान किया था। इसका मूल उद्देश्य यह था कि विभिन्न राजनैतिक कारणों से इन वुनावों को टालने की प्रवृति पर अंकुश लगाया जाये और प्रजातंत्र की इन प्राथमिक संस्थाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों का वर्चस्व हो और सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो। इन संस्थाओं को अधिकार संपन्न बना कर स्थानीय नेतृत्व के हाथों में इनकी कमान सौंपी जाये।
संविधान संशोधन के बाद कद्दावर प्रादेशिक नेताओं के हाथों से यह बात निकल गयी कि वे जब चाहें तब अपनी राजनैतिक सुविधानुसार पंचायतों और स्थानीय निकायों के चुनाव करा सकें। ऐसे भी उदाहरण देखने को मिले हैं कि संभावित हार के कारण अपने मंत्री पद को खतरे में जाता देख सालों नगर पालिकाओं और पंचायतों
के चुनाव नहीं होते थे। कई जगह तो कई बार ऐसा भी हुआ हैें कि बीस साल तक नगरपालिका के चुनाव ही नहीं हुये और प्रशासकों के माध्यम से प्रादेशिक नेताओं का अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थानीय निकायों पर बना रहा हैं।
राजीव गांधी द्वारा किये गये संविधान संशोधन के बाद स्थानीय निकायों के पहले चुनाव 1994 में हुये थे और तब से लगातार हर पांच साल में ये चुनाव नियमित रूप से हो रहें हैं। नगर पंचायत,नगर पालिका, नगर निगम,जिला पंचायत,जनपद पंचायत और ग्राम पंचायतों के चुनाव राज्य सरकारों द्वारा अपनायी गयी प्रकि्रया के अनुसार नियमित रूप से हो रहें हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसग सहित क़ुछ प्रदेशों में वर्तमान में ये चुनाव जारी हैं। संशोधन के बाद होने जा रहें इन चौथे चुनावों की पूर्व संध्या पर अब यह मूल्यांकन करना भी समय की मांग बन गया हैं कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण के जिस उद्देश्य से संविधान संशोधन किया गया था वह कितना सफल हुआ?क्या राज्य सरकारों ने इन संस्थाओं को इतने अधिकार दिये कि वे स्वतंत्र रूप से अपना कार्य कर सकें?कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बजाय भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण हो गया और यदि ऐसा हो गया हैं तो क्यों?
इन तमाम सवालों के जब हम जवाब तलाशते हैं तो यह पाते हैं कि प्रादेशिक सत्ता पर काबिज राजनेता कदापि मन से नहीं चाहतें हैं कि सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो। लेकिन संविधान की बाध्यता के कारण आधे अधूरे अधिकारों से लेस इन स्थानीय निकायों की संस्थाओं पर अधिकारियों के वर्चस्व को समाप्त नहीं किया जा सका हैं। अधिकांश राज्यों में नगरीय निकायों के अध्यक्ष पद का तो सीधे मतदाताओं से निर्वाचन हो रहा हैं लेकिन त्रि स्तरीय पंचायती राज्य में सरपंच के अलावा जनपद पंचायत एवं जिला पंचायत के अधक्ष का निर्वाचन सीधे मतदाताओं के बजाय सदस्यों के माध्यम से ही हो रहा है। इसकी आड़ में ही इन्हें अधिकारों से लैस करने में राज्य सरकारें आना कानी कर जातीं हैं।
ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं हैं कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बजाय भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण जरूर हो गया हैं। ऐसा क्यों हो रहा हैं? जब इस सवाल का जवाब तलाशते हैं तो ऐसा लगता हैं कि इसमें कहीं ना कहीं आरक्षण की प्रकि्रया दोषी हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के वर्गों के लिये तो आरक्षण जनसंख्या के आधार पर होता हें लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग और महिलाओं के लिये आरक्षण लॉट के माध्यम से किया जाता हैं। इस कारण इस बात की अनिश्चितता बनी रहती हैं कि इस चुनाव में निर्वाचित जनप्रतिनिधि को अगली बार उसी क्षेत्र से चुनाव लड़ने की पात्रता रहेगी या नही? अन्यथा पहले ऐसा होता था कि कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि अगला चुनाव लड़ने के लिये अपनी प्रतिष्ठा और छवि बरकरार रखने के प्रयास करते थे ताकि अगला चुनाव जीत सकें। ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं हैं कि एक ही ग्रामपंचायत में एक ही व्यक्ति बीस बीस साल तक सरपंच रहते थे और उनका मान सम्मान भी रहता था। ऐसी परिस्थिति में क्या इय बात पर विचार नहीं किया जा सकता हैं कि पांच साल के लिये हाने वाले आरक्षण की अवधि दस साल कर दी जाये ताकि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के सामनें कम से कम एक अवसर तो पुनः चुनने का दिखेगा जिससे हो सकता हैं कि भ्रष्टाचार के मामले में कुछ तो अंकुश लगने की संभावना बन सकती हैं।
भ्रष्टाचार के मामले में अधिकांशतः ऐसा भी देखा जा रहा हैं कि उसके खिलाफ कार्यवाही करने वालों में भी दृ़ इच्छा शक्ति की कमी होती जा रही हैं और राजनैतिक संरक्षण के चलते ऐसे जनप्रतिनिधि येन केन प्रकारेण बच ही जाते हैं। दूसरा सामाजिक रूप से भी पैसा कैसा भी हो उसे सम्मान देने की परंपरा पड़ गयी हैं। इसलिये भी इस लाइलाज बीमारी पर अंकुश नहीं लग पा रहा हैं। भ्रष्टाचार को राजनैतिक शिष्टाचार मानने की ब़ती प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगाना होगा तभी कुछ राहत मिलना संभव हैं।
आशुतोष वर्मा
09425174640

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