चमत्कार है तो नमस्कार है….!!

तारकेश कुमार ओझा

डयूटी के दौरान लोगों के प्रिय – अप्रिय सवालों से सामना तो अमूमन रोज ही
होता है। लेकिन उस रोज आंदोलन पर बैठे हताश – निराश लोगों ने कुछ ऐसे
अप्रिय सवाल उठाए , जिसे सुन कर मैं बिल्कुल निरूत्तर सा हो  गया। जबकि
आंदोलन व सवाल करने वाले न तो पेशेवर राजनेता थे और ​न उनका इस क्षेत्र
का कोई अनुभव था। तकरीबन दो सौ की संख्या वाले वे बेचारे तो खुद वक्त के
मारे थे। एक सरकारी संस्थान में वे प्राइवेट कर्मचारी के तौर पर कार्य
करते हैं जिसे सरकारी भाषा में संविदा , कैजुयल या कांट्रैक्चुयल
कर्मचारी भी कहा जाता है।   आंदोलन उनका शौक नहीं बल्कि ऐसा वे  इसलिए कर
रहे थे, क्योंकि उन्हें पिछले  नौ महीने से तनख्वाह नहीं मिली थी। मेरे
धरनास्थल पर पहुंचते ही उन्होंने जानना चाहा कि मैं किस चैनल से हूं।
मेरे यह बताने पर कि मैं किसी चैनल से नहीं बल्कि प्रिंट मीडिया से हूं।
उनके मन का गुबार फूट पड़ा। नाराजगी जाहिर करते हुए वे कहने लगे कि
चैनलों पर हम रोज देखते हैं कि पड़ोसी मुल्क अपने मुलाजिमों को तनख्वाह
नहीं दे पा रहा। हम इसी देश के वासी हैं और हमें भी पिछले नौ महीने से
वेतन नहीं मिला है… लेकिन हमारा दुख -दर्द कोई चैनल क्यों नहीं दिखाता।
उनके सवालों से मैं निरुत्तर था। वाकई देश में किसी बात की जरूरत से
ज्यादा चर्चा होती है तो कुछ बातों को महत्वपूर्ण होते हुए भी नजर अंदाज
कर दिया जाता है। पता नहीं आखिर यह कौन तय कर रहा है कि किसे सुर्खियों
में लाना है और किसे हाशिये पर रखना है। सोचने – समझने की शक्ति कुंद की
जा रही है और चमत्कार को नमस्कार करने की मानवीय कमजोरी को असाध्य रोग
में तब्दील किया जा रहा है। यही बीमारी जेएनयू में विवादित नारे लगाने
वाले कन्हैया कुमार को राष्ट्रनायक की तरह पेश करने पर मजबूर करती है।
2011 में अन्ना हजारे का लोकपाल आंदोलन सफल रहने पर हम उन्हें गांधी से
बड़ा नेता साबित करने लगते हैं। लेकिन कालांतर में यह सोचने की जहमत भी
नहीं उठाते कि वही अन्ना आज कहां और किस हाल में हैं और उनके बाद के
आंदोलन विफल क्यों हुए। नामी अभिनेता या अभिनेत्री का एक देशभक्तिपूर्ण
ट्वीट  उसे महान बना सकता है, लेकिन अपने दायरे में ही पूरी ईमानदारी से
कर्तव्यों का पालन करते हुए जान की बाजी लगाने वालों के बलिदान कहां
चर्चा में आ पाते है। अक्सर सुनते हैं मेहनतकश मजदूर , रेलवे ट्रैक की
निगरानी करने  वाले गैंगमैन या प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड डयूटी के दौरान
जान गंवा बैठते हैं। वे भी देश का ही कार्य करते हुए ही मौत के मुंह में
चले जाते हैं, लेकिन उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता या ध्यान देने की
जरूरत भी नहीं समझी जाती।   लोकल ट्रेनों से निकल कर मायानगरी मुंबई के
शानदार स्टूडियो में गाने वाली रानू मंडल के जीवन में आए आश्चर्यजनक
बदलाव से हमारी आंखें चौंधिया जाती है, लेकिन हम भूल जाते हैं कि 90 के
दशक के सवार्धिक सफल पाश्र्व गायक मोहम्मद अजीज करीब दो दशकों तक गुमनामी
के अंधेरे में खोए रहे। उनकी चर्चा तभी हुई जब उन्होंने दुनिया को अलविदा
कह दिया। किसी कथित टैलेंट शो में गाकर प्रसिद्ध हुए गायक हमें अपनी और
आकर्षित करते हैं लेकिन उन गुमनाम गायकों की कभी भूल से भी चर्चा नहीं
होती जो अपने जमाने के नामी गायकों की संताने हैं । पिता की तरह उन्होंने
भी गायन के क्षेत्र में करियर बनाना चाहा, लेकिन सफल नहीं हो सके। हमें
कौन बनेगा करोड़पति में चंद सवालों के जवाब देकर करोड़पति बनने वालों पर
रीझना सिखाया जा रहा है , लेकिन  लाखों लगा कर डिग्रियां हासिल करने के
बावजूद चंद हजार की नौकरी की तलाश में चप्पलें घिसने वाले देश के लाखों
नौजवानों की चिंता हमारे चिंतन के केंद्र में नहीं है। क्योंकि इससे
बाजार को भला क्या हासिल हो जाएगा। बल्कि ऐसी भयानक सच्चाईयां हताशा और
अवसाद को जन्म देती है। लेकिन चमत्कार को नमस्कार करने की यह प्रवृति एक
दिन कहां जाकर रुकेगी , सोच कर भी डर लगता है।


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*लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार
हैं।——————————**——————————*
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*————————-तारकेश कुमार ओझा, भगवानपुर, जनता विद्यालय के पास
वार्ड नंबरः09 (नया) खड़गपुर ( प शिचम बंगाल) पिन ः721301 जिला प शिचम
मेदिनीपुर संपर्कः 09434453934, 9635221463*

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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

1 COMMENT

  1. आज समाज बाजारू संस्कृति से जुड़ चुका है , मानवीय मूल्यों के लिए अब नाम मात्र का ही स्थान रह गया है , इसलिए उसी प्रवाह में सब बहे जा रहे हैं , हालाँकि अभी समाज में उनके लिए जगह बन ने की पूरी सम्भावना है लेकिन उसे जागृत करने व सही दिशा देने की जरुरत है

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