छोटे राज्यों की अवहेलना से पैदा होती हैं समस्याएं

डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री 

मणिपुर में पिछले तीन महीनों से से भी ज्यादा समय से कामकाज ठप्प पड़ा हुआ था। पहाड़ों में रहने वाला कुकी समुदाय इस बात पर अड़ा हुआ था कि मौजूदा सेनापति जिले में से सदर हिल नाम से एक अलग जिला बनाया जाए और उसके विरोध में युनाईटेड नागा काउंसिल थी। कांउसिल का कहना है कि किसी भी हालत में सेनापति जिले का विभाजन नहीं होना चाहिये, इस बात को लेकर कुकी और नागा आमने-सामने आ गये। दोनों ने मणिपुर की जीवन रेखाएं राष्ट्रीय राजमार्ग-53 और 39 को अवरुद्ध कर दिया। इन सड़कों पर आवाजाही बंद हुई तो घाटी के मैंतेइ लोगों की समस्या बढ़ने लगी। गैस का सिलेंडर बढ़ते- बढ़ते 2000 तक पहुंच गया और 1 लीटर पेट्रोल 200 रु को भी पार कर गया। अस्पतालों में जीवन रक्षक दवाईयों का संकट पैदा हो गया और स्थिति इतनी भयानक हो गई कि सड़क मार्ग से मणिपुर के बाहर और भीतर आना भी कठिन होने लगा। मैतेई लोगों की सहानुभूती निश्चय ही कुकी लोगों के साथ थी और उन्हें सेनापति जिले के दो जिले बनाए जाने पर कोई आपत्ति नहीं थी। एक अगस्त से शुरु हुआ यह अवरोध 1 नवंबर को जाकर खत्म हुआ, इस बीच इंटरनेट पर कुकी और नागा लोगों ने एक दुसरे के बारे में इस प्रकार की टीका टिप्पणियां की मानों खुन की प्यासी दो सेनाएं रणभूमि में आमने-सामने खड़ी हो गई हों। मणिपुर में कांग्रेस की सरकार है और इबोबी सिंह वहां के मुख्यमंत्री हैं उनके सिर पर जूं तक नहीं रेंग रही थी। वह उसी प्रकार इंफाल में बैठे बांसुरी बजा रहे थे, जिस प्रकार इटली में रोम के जलने पर नीरो बांसुरी बजा रहा था। जाहिर है कि सोनिया कांग्रेस का ऐसा ही निर्देश होगा, नहीं तो किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री अपने ही प्रदेश के लोगों के दुख दर्द से निरपेक्ष नहीं रह सकता। वैसे भी मणिपुर में कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं, इसलिये मणिपुर के विभिन्न कबीले आपस में जितना लड़ेंगे कांग्रेस को उतना ही लाभ होगा। फूट से वोट बनते हैं और बटे हुए समाज पर सोनिया कांग्रेस की रणनीति फलती-फूलती है। पूर्वोत्तर की अनेक समस्याओं में कांग्रेस की यही रणनीति रही है। लेकिन इस बार की रणनीति में नया पेच भी था, सदर जिले के लिए आंदोलन करने वाले अधिकांश कुकी भी इसाई मिशनरीयों के चलते, ईसाई समुदाय में मतांतरित हो चुके हैं और यही हालत नागा कबीले की भी है। मणिपुरी राजनीति में और वहां के सामुदायिक समाज में चर्च का उस प्रकार का प्रभाव नहीं है जैसा की डर था, जब नागा और कुकी समुदाय की लड़ाई को चरम सीमा तक पहुंचने दिया गया तो एक रणनीति के तहत यह आवाज उठाई जाने लगी की इस मसले में चर्च को मध्यस्थता के लिए आमंत्रित किया जा सकता है, क्योंकि चर्च नागा और कुकी दोनों समुदायों में प्रभाव रखता है। ताज्जुब की बात है मणिपुर की राजनीति में चर्च का उपयोग करने वाले यह वही लोग थे, जो धर्मनिरपेक्षता की बात करते हुए यही सुझाव देते हैं कि मजहब का उपयोग राजनीति में नहीं करना चाहिये। मामला यहां तक आगे बढ़ने दिया गया कि प्रदेश और केन्द्र सरकार एक प्रकार से पूरे प्रदेश से ही निरपेक्ष हो गई। सरकारी अनिश्चय और अकर्मणियता की यह ऐतिहासिक मिसाल थी। अंत में भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रपति से मांग करनी पड़ी की यदि इबोबी सिंह सरकार नहीं चला सकते, तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा देना चाहिये। सोनिया कांग्रेस की राजनीतिक तिकड़मों के चलते पूरे प्रदेश की जनता को इतने अरसे तक बंधक बनाकर नहीं रखा जा सकता। जिस सरकार को कुकी और नागा के बीच संवाद सेतु कायम करने चाहिय थी, वह सरकार पूर्व के बने हुए संवाद सेतुओं को भी भ्रष्ट कर रही थी। सबसे दुख की बात यह रही कि जो मीडिया दिल्ली में थोड़ी तेज आंधी पर ही, या फिर मुम्बई में तेज बारिश हो जाने पर पूरा दिन इन्हीं घटनाओं को लेकर चिल्लाता रहता है, उत्तर प्रदेश और बिहार में मामूली घटना भी राष्ट्रीय स्टोरी बन जाती है वही मीडिया मणिपुर की इस घेराबंदी से खुद भी अनजान बना रहा और लोगों को भी अंजान बने रहने पर सहायता करता रहा। इंफाल में 2 हजार रुपए में बीक रहा सिलेंडर उसके लिए खबर नहीं थी, वहीं दिल्ली में प्याज के दाम 30 रुपये बढ़ना उसके लिए राष्ट्रीय मुद्दा बना हुआ था।

यह प्रश्न केवल मणिपुर का नहीं है मणिपुर का जिक्र केवल उदाहरण के लिए किया गया है यह स्थिति भारत के हर उस राज्य की है, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से बड़ा हो लेकिन जनसंख्या में कम है। नगालैंड, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, अरुणांचल प्रदेश, असम इत्यादि सभी प्रदेश इसी प्रकार की अव्हेलना के शिकार हैं। हिमालय के दूसरे छोर पर स्थित जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड की स्थित भिन्न। तथा कथित राष्ट्रीय मीडिया की दृष्टि में तो इन प्रदेशों में घटित होने वाली घटनाएं, नोटिस लेने लायक भी नहीं हैं। झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की भी यही कहानी है, पिछले दिनों सिक्किम में भयंकर भूकंप आया था, दिल्ली में चार रियक्टर पर भूकंप आता है, जिसे केवल प्रयोगशाला में लगे यंत्र ही बता सकते हैं उनके लिए राष्ट्रीय खबर बन जाता है और सिक्किम मे भारी तबाही हुई जानमाल की इतनी हानि हुई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कुछ दिनों तक 10-15 मृत्यु पर ही अटका रहा और एक मीडिया चैनल ने अपनी टीम सिक्किम में भेज कर कुछ इस लहजे में घोषणा की जैसे वो टीम किसी दूसरे देश में पहुंच गई हो। स्वर इस प्रकार था कि मानों सिक्किम में संवाददाता पहुंचाकर जबरदस्त फतह हासिल कर ली हो।

केन्द्र सरकार इन छोटे राज्यों में कुछ आर्थिक पैकेज देकर अपने कर्तव्य की इति श्री मान लेती है और उसकी भूमिका दाता की बन जाती है और इन छोटे राज्यों से यह आशा की जाती है कि वे दाता के प्रति नतमस्तक होना सिख लें। सोनिया कांग्रेस के एक महासचिव राहुल गांधी की भाषा तो इस मामले में दिन प्रतिदिन आपत्तिजनक होती जा रही है, ‘हम दिल्ली से पैसा भेज रहे हैं’ से शुरु करते हैं, लेकिन आप ‘एहसान फरामोश होते जा रहे हो’ से समाप्त करते हैं। यह ठीक है छोटे राज्यों में संरचनागत विकास की संभावनाएं ज्यादा रहती हैं, परन्तु राजनीतिक हैसीयत न होने के कारण छोटे राज्य केन्द्र सरकार की प्रथमिकता सूची में दर्ज नहीं हो पाते। हिमाचल प्रदेश में वहां के मुख्यमंत्री प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल एक लम्बे अरसे से मांग कर रहे हैं कि रेलवे नेटवर्क को तिब्बत की सीमा तक बढ़ाया जाए। पठानकोट से जोगेन्द्र नगर तक की छोटी रेलवे लाईन को बड़ी कर उसे लेह तक बिछाया जाए। यह रेलवेलाइन राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, लेकिन रेल मंत्रालय ने बार-बार के आग्रह के बावजूद इस कार्य के लिए फूटी कोड़ी भी आमंत्रित नहीं की। यही स्थिति पूरे पूर्वोत्तर भारत की है, चीन ने तिब्बत में भारत की सीमा तक बढ़ईया रेलवे लाईन बिछा ली हैं और वह लहासा तक रेलवे लाईन ले आया है, परन्तु पूर्वोत्तर में रेलवे के नाम पर स्थिति वही है जो अंग्रेज जाते वक्त छोड़ गए थे। श्रीनगर तक रेलवे लाईन 2011 में पहुंची है।

छोटे राज्यों की अवहेलना का मुख्य कारण उनकी राजनीतिक हैसियत न होना ही है, इन राज्यों में लोकसभा सांसदों की संख्या एक से 15 के बीच सिमटी हुई हैं। जाहिर है कि इन इका दूका राजनीतिक सांसदों से भूचाल तो क्या लहर भी नहीं उठती, बड़े प्रदेश अपनी राजनीतिक हैसियत के चलते महत्वपूर्ण बने रहते हैं, और छोटे प्रदेश हाशिये पर चले जाते हैं। भूकंप के दौरान सिक्किम के और बंद के दौरान मणिपुर से जो व्यवहार हुआ है वह इसी का प्रतीक है।

 

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