पं. लेखराम की ऋषि दयानन्द से भेंट का देश व समाज पर प्रभाव

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पं. लेखराम जी के 124 वे बलिदान दिवस 6 मार्च पर-
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
पंडित लेखराम जी स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भ के प्रमुख शिष्यों में से एक रहे जो वैदिक धर्म की रक्षा और प्रचार के अपने कार्यों के कारण इतिहास में अमर हैं। उन्होंने 17 मई, सन् 1881 को अजमेर में ऋषि दयानन्द से भेंट की थी और उनसे अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त किया था। ऋषि दयानन्द से अपनी भेंट का वृतान्त उन्होंने अपने शब्दों में ही वर्णन किया है। उनके अनुसार 11 मई सन् 1881 को ‘संवाददाता’ (पं. लेखराम) पेशावर से स्वामीजी के दर्शनों के निमित्त चलकर 16 की रात को अजमेर पहुंचा और स्टेशन के समीप वाली सराय में डेरा किया और 17 मई को प्रातःकाल सेठ जी के बागीचे में जाकर स्वामी जी का दर्शन प्राप्त किया। उनके (स्वामी दयानन्द जी के) दर्शन से मार्ग के समस्त कष्टों को भूल गया और उनके सत्योपदेशों से समस्त गुत्थियां सुलझ गईं। जयपुर में एक बंगाली सज्जन ने मुझ (पं. लेखराम जी) से प्रश्न किया था कि आकाश भी व्यापक है और ब्रह्म भी, दो व्यापक (सत्तायें) किस प्रकार इकट्ठे (आत्मा की भीतर परमात्मा) रह सकते हैं? मुझसे इसका कुछ उत्तर न बन पाया। मैंने यही प्रश्न स्वामीजी से पूछा। उन्होंने एक पत्थर उठाकर कहा कि इसमें अग्नि व्यापक है या नहीं? मैंने कहा कि व्यापक है। फिर कहा कि मिट्टी? मैंने कहा कि व्यापक है। फिर पूछा कि जल? मैंने कहा कि व्यापक है। फिर पूछा कि आकाश और वायु? मैंने कहा कि व्यापक हैं। फिर पूछा कि परमात्मा? मैंने कहा कि वह भी व्यापक है। (स्वामी जी न मुझसे) कहा कि देखो, कितनी चीजें हैं परन्तु सभी उसमें (पथर में) व्यापक हैं। वास्तव में बात यही है कि जो (सत्ता) जिससे सूक्ष्म होती है वह उसमें (दूसरे किंचित स्थूल पदार्थ में) व्यापक हो सकती है। ब्रह्म चंूकि सबसे व अति सूक्ष्म है इसलिए वह सर्वव्यापक है। जिससे मेरी शान्ति हो गई।

मुझसे उन्होंने कहा कि और जो तुम्हारे मन में सन्देह हों सब निवारण कर लो। मैंने बहुत सोच-विचार कर 10 प्रश्न लिखे जिनमें से तीन मुझे स्मरण हैं, शेष भूल गये। 

प्रश्न-जीव-ब्रह्म की भिन्नता में कोई वेद का प्रमाण बतलाइए? उत्तर-यजुर्वेद का 40 वां अध्याय सारा जीव-ब्रह्म का भेद बतलाता है। प्रश्न-अन्य मत के मनुष्यों को शुद्ध करना चाहिए या नहीं। उत्तर-अवश्य शुद्ध करना चाहिए। प्रश्न-विद्युत क्या वस्तु है और किस प्रकार उत्पन्न होती है? विद्युत सर्वत्र है और रंगड़ से उत्पन्न होती है। बादलों की विद्युत् बादलों और वायु की रगड़ से उत्पन्न होती है। मुझसे कहा कि 25 वर्ष से पूर्व विवाह न करना। कई ईसाई और जैनी (स्वामी दयानन्द से) प्रश्न करने आते थे, परन्तु शीघ्र निरुत्तर हो जाते थे। 

एक हिन्दू नवयुवक-जिसके विचार पूर्णतया ईसाई मत की ओर झुके हुए थे--प्रतिदिन प्र्रश्न करने आता और शान्त होकर जाता था। अन्त में वह पूरी शान्ति पाने के पश्चात् ईसाई मत से विरक्त होकर वैदिक धर्मानुयायी हो गया। व्याख्यानों में सैकड़ों मनुष्य आते और लाभ उठाते जाते थे। 24 मई सन् 1881 को दोपहर के समय महाराज जी से विदा होने पर मैंने निवेदन किया कि आप मुझे अपना कोई चिन्ह प्रदान करें। (स्वामी जी ने मुझे) चिन्ह-स्वरुप अष्टाध्यायी की एक प्रति प्रदान की जो अभी तक पेशावर समाज में विद्यमान है। तत्पश्चात् उनके चरणों को हाथ लगाकर नमस्ते करके दास (पं. लेखराम) वहां से विदा होकर चला आया।  

पंडित लेखराम जी ने पहली बात यह बताई है कि उन्हें पेशावर से अजमेर पहुंचने में पांच दिन का समय लगा। इस यात्रा से उन्हें थकान हुई परन्तु वह 17 मई, 1881 को स्वामी दयानन्द जी के दर्शन से दूर हो गई। इन पंक्तियों के लेखक को लगता है कि पं. लेखराम जी ने स्वामी जी के व्यक्तित्व व उनकी विद्या के बारे में लोगों से अनेक प्रकार की बातें सुनी होगीं जिससे उन्हें स्वामी जी में उन गुणों की अपेक्षा रही होगी। स्वामी जी के दर्शन और वार्तालाप कर उन्हें उनके बारे में सुनी व समझी पूर्व की सभी बातें सत्य सिद्ध तो हुई ही, अपितु स्वामी जी का श्रेष्ठ व्यवहार देखकर वह उनसे अत्यन्त प्रभावित हुए। ऐसे में थकान का दूर होना स्वाभाविक ही था क्योंकि इस भेंट से उनका मन व हृदय प्रसन्नता से भर गया था। यदि स्वामी दयानन्द उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप न होते तो फिर उन्हें अवश्य ग्लानि व क्षोभ हो सकता था जिससे उनकी यात्रा की थकान समाप्त होने के स्थान पर अधिक हो सकती थी। दूसरी महत्वपूर्ण बात जयपुर के बंगाली सज्जन के ईश्वर के व्यापक होने विषयक प्रश्न से सम्बन्ध रखती है। स्वामी जी ने पंडित लेखराम को उनके सभी प्रश्नों व शंकाओं को प्रस्तुत करने व उनका समाधान करवा लेने को कहा था। जयपुर के बंगाली सज्जन ने जो प्रश्न किया था हमें लगता है कि उसका जो उत्तर महर्षि दयानन्द जी ने दिया वह उस समय के अन्य किसी मताचार्य वा धर्माचार्य से मिलना असम्भव था। इससे पं. लेखराम जी की आशंका दूर हो गई। यदि किसी कारण स्वामी दयानन्द जी उन्हें न मिलते और उनके इस प्रश्न का समाधान न होता तो पं. लेखराम जी का भावी जीवन इस प्रश्न का समाधान न मिलने से वह न होता जो ऋषि से इसका समाधान प्राप्त करने पर निर्मित हुआ। हो सकता है कि वह लम्बे समय तक इस प्रश्न के उत्तर पर विचार करते और समाधान न हो पाता। ऐसी स्थिति में हो सकता था कि ईश्वर के वैदिक स्वरुप पर उनका विश्वास स्थिर न रह पाता। अतः महर्षि दयानन्द के दर्शन कर और अपने प्रश्नों का समाधान पाकर पंडित लेखराम जी की वैदिक धर्म में श्रद्धा व निष्ठा में अपूर्व वृद्धि हुई थी, ऐसा हम अनुमान करते हैं। इस घटना से वैदिक धर्म व देश को बहुत लाभ हुआ। 

स्वामी दयानन्द जी द्वारा पंडित लेखराम जी का जीव-ब्रह्म की एकता पर किया गया प्रश्न व उसका समाधान भी महत्वपूर्ण है। ऋषि दयानन्द के अनुसार यजुर्वेद का चालीसवां पूरा अध्याय जीव व ब्रह्म का भेद बताता है। हमें लगता है कि ईश्वर की व्यापकता और जीव-ब्रह्म की एकता विषयक ऋषि दयानन्द जी द्वारा दिए उत्तर स्वामी दयानन्द को वेदों का अपूर्व विद्वान होने सहित ऋषि भी सिद्ध करते हैं। इन प्रश्नों के इस प्रकार के समाधान देने वाला धार्मिक विद्वान व नेता उन दिनों देश में कहीं नहीं थे। पं. लेखराम जी का अगला प्रश्न था कि क्या दूसरे मत के लोगों को शुद्ध करना चाहिये अथवा नहीं? इसका निर्णायक दो टूक उत्तर देकर महर्षि दयानन्द ने देश हित का ऐसा कार्य किया जिससे हमारा देश, वैदिक धर्म और संस्कृति बची हुई है। हम सभी जानते हैं कि वैदिक धर्म का अशुद्ध व विकारयुक्त स्वरुप सनातन पौराणिक मत इस प्रश्न पर हमेशा नकारात्मक और देशहित के विपरीत बातें करता रहा। महाभारत काल के बाद स्वामी दयानन्द ऐसे पहले वैदिक धर्मी विद्वान हुए जिन्होंने शुद्धि का न केवल पूर्ण समर्थन किया अपितु देहरादून में एक मुस्लिम बन्धु मोहम्मद उमर को उसके परिवार सहित उसकी इच्छा से वैदिक धर्मी बनाया था। महाभारत के बाद इतिहास की यह अपूर्व घटना है। हम समझते हैं कि इस प्रश्न की महत्ता व इसके ऋषि दयानन्द के शास्त्र-सम्मत उत्तर के कारण भी पंडित लेखराम जी की ऋषि दयानन्द से यह भेंट ऐतिहासिक महत्व की थी। पं. लेखराम जी ने एक प्रश्न विद्युत की उत्पत्ति व अस्तित्व पर किया जिसका ऋषि दयानन्द द्वारा दिया गया उत्तर उनकी गम्भीर वैज्ञानिक सोच को प्रस्तुत करता है। ऋषि दयानन्द जी ने जो उत्तर दिया है वह उनके समय के किसी अन्य धार्मिक प्रवृत्ति के विद्वान से मिलना सम्भव नही दीखता। स्वामी जी के समय के सभी धार्मिक विद्वान मूूर्तिपूजा और धार्मिक अन्धविश्वासों से ग्रस्त थे। उनकी विद्या व विज्ञान की उन्नति में कोई रुचि नहीं थी, अतः उनसे ऐसा उत्तर नहीं मिल सकता था। 

पंडित लेखराम जी ने ईसाई मत से प्रभावित एक हिन्दू युवक की चर्चा कर बताया है कि वह ऋषि दयानन्द के समाधानों से सन्तुष्ट होकर वैदिक धर्मी हो गया था। देहरादून में भी ऐसी ही घटना घटी थी और परिणाम भी इस घटना के अनुसार ही हुआ था। इससे हम अनुमान करते है कि ऋषि दयानन्द के वैदिक धर्म के प्रचार से अनेक लोग विधर्मी होने से बचे जिससे धर्म व संस्कृति की रक्षा हुई है। अन्य मतों के अनेक लोगों द्वारा भी वैदिक मत अपनाया गया जिससे वैदिक धर्म की महत्ता सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द और पंडित लेखराम जी की इस भेंट से ज्ञात होता है कि धर्म के गहन-गम्भीर ज्ञान सहित ऋषि की विज्ञान के विषयों में भी अच्छी गति थी। लगता है कि इस स्वामी जी से भेंट की घटना से पंडित लेखराम जी के वैदिक धर्म व इसके सिद्धान्तों पर विश्वास में और अधिक वृद्धि हुई होगी जिसका परिणाम उनके बाद के जीवन को देखकर अनुमान किया जा सकता है। पंडित जी ने वैदिक धर्म के प्रचार के साथ अनेक लोगों को धर्मान्तरित होने से बचाया जिसका अनुकूल प्रभाव भविष्य के धर्मान्तरणों पर भी पड़ा। उन्होंने महर्षि दयानन्द का एक विशाल एवं खोजपूर्ण जीवन चरित देकर स्वयं को अमर कर दिया है। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त भी आपने विपुल साहित्य का निर्माण किया है। पंडित लेखराम ऋषि दयानन्द के मिशन, वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार, के पहले शहीद कहे जा सकते हैं। यदि उनका जीवन लग्बा होता तो वह वैदिक धर्म की और अधिक सेवा करते। उनका आदर्श जीवन युगों युगों तक लोगों को देश और धर्म पर अपना सर्वस्व अर्पित करने की प्रेरणा देता रहेगा। इति। पं. लेखराम जी का बलिदान 6 मार्च सन् 1897 को लाहौर मे हुआ था। उनको उनके बलिदान दिवस पर सादर श्रद्धांजलि। 

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