—विनय कुमार विनायक
एक सामाजिक न्याय वह भी था
जब स्वर्ण खड़ाऊ/रेशमी वस्त्र त्यागकर
निकल पड़ा था एक राजकुमार
विवस्त्र गात्र, नग्न पांव बोधिवृक्ष की छांव में
राजमहल से झोपड़ी के बीच
तीन लोक की दूरी को
एक कर गया था वामन सा ढाई डग में
बांट गया था सामाजिक न्याय का अमृतफल
सबके बीच बिना किसी जाति भेद के!
एक सामाजिक न्याय वह भी था
जब काठियावाड़ का दीवान पुत्र त्यागकर
अंग्रेजी सूट-बूट साबरमती की घांस-फूस में लेटा
आजीवन विवस्त्र शरीर टखने भर धोती में
समेटकर सामाजिक अन्याय की व्याधि
बांट गया सामाजिक न्याय का अमृतफल
सर्वधर्मावलम्बियों के मध्य वैष्णवी आस्था के साथ!
एक सामाजिक न्याय वह भी था
जब जरदगव गिद्ध ने
‘सत्तर चूहे खाकर बिल्ली चली हज को’
चरितार्थ किया खगवृन्द में जाति भावना भड़काकर
कि देखो मेरी फटी बिवाई,टूटे पदत्राण
कि देखो मैं हूं घोंसला विहीन
भग्न चपरासी क्वार्टर के मुंडेर पर बैठा
दुबका-परकटा/असहाय उपेक्षित पक्षी
कि मुझे बिरादरी में अपना लो
अपने सर आंखों पर बिठा लो
कि तुम्हारे चुनमुनों को परवरिश दूंगा
इसी बरगद की छांव में
एक पक्षी विद्यालय खोलकर!
सत्यहरिश्चन्द्री घोषणा सुनो मेरी
कि मैंने बेच दिया दारा-सुवन
तुम जैसे अस्पृश्य के हाथों
कि मैं श्रीकृष्ण सा धारण कर
तेरी उपेक्षित मोर पाखियां वचन देता हूं
गौ, भेड़, मेमने और चुनमुनों को
त्राण दिलाऊंगा हिंस्र शेर-भालुओं से
निशंक चुगो दानें प्रातः से शाम तक
कि मरेगी नहीं गौएं चारा के बिना
कि कटेंगे नहीं पसमीना भेड़ के मेमने
किसी राजा-रानी-राजनेता के
गर्म अय्याशी ऊनी वस्त्र के लिए
कि तड़पेगी नहीं स्वाति
सावन की बौछार के लिए
ललकेगी नहीं एक-एक बूंद
अमृत जल की आस में!
उजड़ेगा नहीं वन-पर्यावरण/
बाग-बगीचे, खेत-खलिहान!
कहते हैं तब से पक्षियों का राजा
जरदगव गिद्ध हो गया था
पक्षियों का सुराज सिद्ध हो गया
जब बारी-बारी से पक्षियों को
स्वगर्भगृह में बिठाकर
जरदगव गिद्ध बांटने लगा था
सामाजिक न्याय का अमृतफल
लाल चिड़े को लाल/ हरे तोते को हरा
सफेद कबूतरों को सफेद
सामाजिक न्याय का अमृतफल!