108 दानों की जप माला का महत्व

    हमारे पौराणिक शास्त्रों में देवी देवता को प्रसन्न करने हेतु माला का विशेष महत्व दिया गया है। मंत्र जप के लिये तुलसी, स्फटिक, मोती, रूद्राक्ष आदि की माला करने का विधान हैं जिसमें माला में 108 की सॅख्या के दाने की माला की जाती है। वेद-पुराण और उपनिषदों में अनेक स्थानों पर मंत्र जप का उल्लेख किया गया है वही ज्योतिष एवं वैज्ञानिक मान्यतों भी इससे जुड़ गयी है। शिवपुराण, शिवसंहिता, देवीपुराण में रूद्राक्ष को महादेव का प्रतीक मानकर रूद्राक्ष की माला मंत्र का जाप को सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वमंगलमयी बताते हुये साधक के कल्याण के मार्ग की विधि बतायी गयी हैं। इसके अतिरिक्त तुलसी, स्फटिक, मोती या नगरों से बनी मालाओं का जाप भी प्राचीन काल से चला आ रहा है जिसमें साधक इनके प्रयोग से अपने आसपास के वातावरण को सकारात्मक एवं ऊॅर्जा से भरा आभासित कर शरीर में तेजोमय कंपन व संचार मेहसूस कर आनन्द से परिपूर्ण होना स्वीकारते है।

माला जप का विधान एवं महत्वः- माला मंत्र जप करने के शास्त्रोक्त नियम बताये गये है जिसमें अनामिका के मध्य भाग से नीचे की ओर गिनने, फिर कनिष्ठा के मूल से अग्रभाग तक गिनने का विधान है। इसके पश्चात अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग होकर तर्जनी के मूल तक गिनती की जाती है जो अनामिका के दो, कनिष्ठा के तीन, पुनः अनामिका का एक, मध्यमा का एक और तर्जनी के तीन पर्व कुल मिलाकर दस सॅख्या होती है। शास्त्रोक्त मत देखे-आरम्भ्यानामिका मध्यम् पर्वानयुक्तान्यनुक्रमात्। तर्जनीमूलपर्यन्तं जपेददशसु पर्वसु।। मध्यमागुलिमूले तु यतपर्व द्वितयं भवते्। तं वै मेरूं विजानीयज्जप्येतं नालिलंघयेत्।। अर्थात -अंगुली के मध्य पोर से आरम्भ कर के क्रंमशः 10 पोरों पर बराबर जपे, लेकिन मध्यम अंगुली के जड़़ के दो पोरों तक छोड़ दे, क्योंकि वे अंगुली के मेरू हैं और जप में मेरू का लंघन नहीं किया जाता है। देवी अनुष्ठानों में कुछ विशेष अनुष्ठान में अनामिका के दो पर्व/पोर, कनिष्ठा के तीन पोर, पुनः अनामिका के अग्रभाग का एक पोर मध्यमा के तीन, और तर्जनी के मूल का एक पोर कुल मिलाकर दस सॅख्या होती है।
मंत्र जप एवं इष्ट सिद्धि के लिये माला का प्रयोग के कई कारगार परिणाम भी प्राप्त किये गये है तभी इष्ट सिद्धि के लिये शीघ्र फल प्राप्ति हेतु माला जाप का प्रचलन बढ़़ा है। माला जाप द्वारा मंत्रों की गणना आसानी से करने हेतु सजगता आवश्यक है जिसे सहज ही पालन करने वाला अपने लक्ष्य को पा जाता हैं चॅूकि माला के तीन प्रकार बताये गये है-करमाला, वर्ण माला एवं तीसरा-मणि माला।कर माला- का जाप करते समय अगुलियों के पौरों से निश्चिित क्रम द्वारा क्रंमशः बढ़ते क्रम में माला के दानों को आगे बढ़ाने हेतु प्रयोग किया जाता है जिससे लम्बी अवधि के लिये साधना या मंत्र मंत्रजाप किया जाता है, कुछेक विदवान लम्बी अवधि के जाप का निशेष करते है। जब मंत्र जप हजारों लाखों की सॅख्या में करने हो तो माला करना कष्टप्रद होता है। कर माला का प्रयोग दैनिक जप में या छोटी सॅख्या के जप में किया जाता है, ऐसे साधकों के लिये कर माला करने बाबत शास्त्रों में नियम बताये गये है। अनामिता के मध्य भाग से नीचे की और दानों को गिनने, फिर कनिष्ठा के मूल से अगं्रवाल तक गिना जाता है

करमाला पर मंत्र जप के नियम- कर माला पर जप करते समय अंगुलिया परस्पर एक दूसरे से जुड़ी हुई रखने का विधान है न कि उन्हें अलग-अलग रखा जाये। हथेली को थोड़ा अन्दर की तरफ मुड़ा रखने तथा माला फेरते/जपते समय मेरू का उल्लघंन न किये जाने हेतु मध्यमा के दो पोर जिसे मेरू कहा है का ध्यान रखा जाये एवं माला करते समय पोरों की संधि का स्पर्श नही करें और हाथों को हृदय के सामने अंगुलियों को थोड़ी झुकाकर और वस्त्र ढ़ककर ही जप करें। दस की सॅख्या में किये जाने वाले जप की गिनती करने के लिये लाख अर्थात लक्ष, सिन्दूर अैर गौ के सूखे कण्डे-उपले का चूर्ण कर के इन सबके मिश्रण की गोलिया बनाकर इनसे गणना की जा सकती है। यहॉ यह विशेष ध्यान दिलाया गया है कि अक्षत, अंगुली, पुष्प, चन्दन, मिट्टी, कंकड आदि का प्रयोग गणना हेतु पूर्णतया वर्जित है, जिसे साधकों की सॅख्या अधिक होने पर उनके हाथ में कर माला न होने पर कुछेक स्थानों पर प्रयोग किया जाता है।

माला के 108 दानों का रहस्य- माला के दानों की सॅख्या 108 सम्पूर्ण ब्रम्हाड का प्रतिनिधित्व करती है एवं सूर्य की 21600 कलाओं का प्रतीक है। एक स्वस्थ्य मनुष्य 24 घन्टे में 21600बार सॉस लेता है , दिन के 24 घन्टों में वह 12 घन्टे अपने दैनिक कार्यो में व्यस्त होता है तथा शेष 12 घटे 10800 सॉस लेता है, इस प्रकार सूर्य भी एक वर्ष में दो बार स्थिति बदलता है और छह माह तक उत्तरायण और छह माह दक्षिणायन रहताहै जिसमें प्रत्येक स्थिति में वह छह माह में 10800 बार कलायें बदलता है। स्वस्थ्य मनुष्य के 12 घन्टे में ली गयी सॉस 10800 एवं सूर्य की छह माह एक स्थिति में बदली गयी 10800 कलाओं में हमारे ऋषिमुनियों ने इस सॅख्या के आखिरी तीन शून्य हटाकर 108 दाने निर्धारित कर किये है। माला का एक एक दाना सूर्य की एक-एक कला का प्रतीक है और साधक द्वारा जप करने पर वह साधक को सूर्य के समाज तेजस्वी बनाकर शक्ति संचार कर उसका कल्याण करते है। सूर्य जगत का एकमात्र साक्षात दिखने वाला देवता है इसी लिये उसकी कलाओं को आधार मानकर जप के लिये माला में 108 दानों को निर्धारित किया गया है।

साधक को 108 दानों की माला रखनी चाहिये जो पूर्ण मानी गयी हैं। कहीं-कहीं कुछेक अपवाद के रूप में कुछेक साधक 19, 36, 78 और 95 दाने की माला जप करते है जो कदापि नहीं करनी चाहिये। किसी भी प्रकार के मंत्र जाप के लिये 108 दाने की माला पूर्णरूप से आवश्यक है । माला के दोनोें शिरों को जोड़कर वहॉ एक विशिष्ठ दाना अवश्य लगाना चाहिये उसे सुमेरू कहते है। सुमेरू के अभाव में माला निष्प्राण, व्यर्थ और निष्प्रभावी समझा जाता है। 108 की सॅख्या एक आध्यात्मिक तत्व है। जो अपने आप में रहस्यमय है। श्वास और प्रश्वास की क्रिया एक प्राकृतिक व्यवस्था है।यदि माला जपते समय साधक श्वास-प्रश्वास की गति को अनुकरण करते हुये प्रति श्वास पर एक मंत्र पढ़े और उसी के साथ एक दाना आगे से पीछे सरकाये तो 1 घन्टें मे 900 और 12 घन्टे में 10800 जप हो जायेगा। उपांशु जप से नियमानुसार यदि कोई साधक केवल 108 बार ही जप करता है तो उसे 10800 की सॅख्या का जप केवल 108 जप में शूद्रतापूर्वक करने के लिये 108 दाने की माला उपयोगी समझी जाती है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सम्पूर्ण ब्रम्हाड को 12 भागों में विभाजित किया गया है। इन 12 भागों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन है। इन 12 राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते है जिसमें इन ग्रहों की सॅख्या 9 एवं राशियों कीसॅख्या 12 में गुणा करने पर 108 की सॅख्या प्राप्त होती है, अतः ज्योतिष के आधार पर जप की माला के दाने 108 तय किये गये है। खगोल विज्ञान के मत से ही ब्रम्हाण्ड स्थित 27 नक्षत्रों के चरणों का स्पर्श करने के लिये 108 बार जप करना चाहिये। ऐसे जप से सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में व्याप्त नक्षत्रीय क्षेत्र, वायुमण्डल से साधक का सम्पर्क हो जाता है। जबकि नक्षत्र के चार चरण होते है अतः 27 नक्षत्र 108 चरणों के माध्यम से ब्रम्हाण्ड का स्पर्श करने के लिये 108 बार की जप क्रिया करनी चाहिये, तभी जप सुविधापूर्वक सम्पन्न होती है जब माला में 108 दाने हो। यहॉ यह बतला देना आवश्यक है कि जप के पूर्व माला के सुमेरू पर मंत्र के अधिष्ठात्र देवी या देवता का ध्यानपूर्वक आवाहन कर लेना चाहिये, तभी सफलता निश्चित है।

देवी भागवत पुराण में अंक नौ का महत्व आध्यात्मिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण प्रभावशाली माना गया है। न जाने कितने पौराणिक वैदिक प्रसंग नौ अक से जुडे हुये है। ग्रहों की सॅख्या 9 है। नवार्ण मंत्र 9 है। नवरात्र के 9 दिन है।भगवती दुर्गा के भी 9 रूप है। कितने ही प्रसंग ऐसे है जिनकी सॅख्या में 18, 1800 या 18000 की प्रधानता है। गणना करके देखें तो स्पष्ट होता है कि सभी सॅख्याओं का मूल 9 अंक ही है और इसी के विस्तार से उपरोक्त सॅख्यायें निर्मित हुई है। इसी प्रकार विशेषण गणतीय सिद्धान्तों के आधार पर 108 की सॅख्या की माला के सन्दर्भ में सर्वश्रेष्ठ मानकर ’’मनको’’ की सॅख्या भी 108 रखी गयी है। माला में सूत के प्रयोग को लेकर भी बताया गया है कि वशीकरण में लाल रंग के सूत, शांति कर्म में सफेद-श्वेत वर्ग के सूत, अभिचार कर्म में कृष्ण वर्ग के काले सूत की माला लाभकारी है वही सभी प्रकार के ऐश्वर्य एवं सम्पत्ति प्राप्ति के लिये रेशमी सूत से बनी माला का प्रयोग करना बताया है। यहॉ कुछ विदवानों के मतानुसार ब्राम्हण वर्ग को श्वेत, क्षत्रिय वर्ग को रक्त, वेश्य वर्ग को पीत एवं शूद्र वर्ग को कृष्ण वर्ण के सूत्र की माला करना श्रेष्ठकर कहा है।

मणिमाला- मणिमाला अर्थात मनिया या मनकों से पिराई गयी माला मणिमाला कहलाती है इसके प्रयोग के सम्बन्ध में कहा गया है कि जिन साधकों को अधिक सॅख्या में जप करना हो तब उन्हें मणिमाला का प्रयोग करना उचित होगा। यह काला रत्न, रूद्राक्ष, तुलसी, चन्दन, शंख, कमलगट्टा, सुवर्ण, पुत्रजीवा के बीज, चान्दी, कृशमूल, स्फटिक, मोती, हल्दी, आदि पदार्थो की बनाई जाती है जिसमें वैष्णव तुलसी तथा शैव शाक्त रूद्राक्ष की माता को जप के लिये सर्वोत्तम मानते हैंें। 108 मनकों के साथ 1 सुमेरू अलग होने का विधान है तथा जिस देवी-देवता की आराधना कर सिद्धि प्राप्त करना है उसके लिये अलग-अलग पदार्थो की माला प्रयोग का नियम है। चॅूकि मनकों की माला एवं जप के लिये अनेक प्रकार की सावधानियॉ एवं सिद्धि हेतु उपाय भी दिये गये है जिसमें माला के प्रयोग होने वाला धागा अगर ब्राम्हण की कुंवारी कन्या द्वारा सूत काटकर बनाने पर त्वरित सिद्धि देने वाला माना है वही रूद्राक्ष के दानों की माला बनाते समय मनके पिरोते समय रूद्राक्ष के मुंह और पुच्छ का ध्यान देने को भी चेताया गया है कि रूद्राक्ष में मुहॅ का भाग कुछ ऊॅचा होता है और पुच्छ भाग नीचा होता है, इसलिये इसकी माला बनाते समय रूद्राक्ष दानों के मुॅह से मुॅह और पुच्छ से पुच्छ मिलाने का नियम है।

मंत्र साधना और उससे सम्बन्धित जितनी भी क्रियायें और उपासनायें है वे सभी तांत्रिक संस्कृति के अंग है। तांत्रिक संस्कृति भारत की आदि संस्कृति है और तांत्रिक साधना है, आदि साधना। मंत्र तत्व , मंत्र शक्ति, मंत्र साधना आदि को समझने के लिये तांत्रिक संस्कृति , तांत्रिक साधना और साधक की, विषय की गंभीरता से परिचित होना आवश्यक है। विश्व में जितने भी धर्म प्रचलित है, जितनी भी उपासना की पद्धतियॉ आर्विभूत है उन सभी का मूत्रस्त्रोत संस्कृति की उपासना है। संस्कृति का अर्थ है मन और हृदय की वृत्तियों का संस्कार आभ्यंतरिक तत्व होता है। तांत्रिक संस्कृति का मूल सूत्र न धर्म है, न भाषा है और ही भौगालिक खण्ड है। वृत्तियों को उदात्त बनाना और सुधारने का जो भी कार्य है उसे साधक अपनाकर तांत्रिक साधना और माला के 108 मनकों की सॅख्या द्वारा अपना लक्ष्य बनाकर सिद्धि प्राप्त कर सकता है व साथ ही शारीरिक, मानसिक तथा आत्मशक्ति का विकास का लक्ष्य भी प्राप्त कर सकता है।

आत्‍माराम यादव पीव

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