आत्माराम यादव पीव
ममतामयी माॅ वसुन्धरा जगत के सभी मनुष्यों, जल-थल के जीव-जन्तुओं, प्राणियों-वनस्पतियों सहित सभी के जीवन निर्वहन हेतु सबकी प्रकृति का भोज्य पदार्थ प्रदान कर जगत का पोषण करती आ रही है। माॅ वसुन्धरा की परम असीम अनुकम्पा के प्रति हमारा आग्रह निवेदित हो जाये और हम उस भोज्य पदार्थ को अनुग्रहभाव से ग्रहण करें तो वह भोज पदार्थ प्रसाद रूप में फलीभूत हो जाता है। हम पूजा-पाठ में प्रसाद वितरण के भावतत्व के रहस्य के प्रति जिज्ञासु है। जबकि देखा जाये तो जगत के समस्त प्राणियों पर देवी वसुंधरा के अलावा, जल, पवन, अग्नि और आकाश ये पंचमहाभूत और सूर्य-चंद्र आदि नवादि गृह सहायक के रूप में जन्म से मृत्युपर्यन्त तक अवस्थित होकर अहेतुक रूप में हमें अपनी-अपनी स्वभाविक देयता निरंतर लुटा रहे है। प्रकृति तत्व से प्राप्त समस्त बहुमूल्य पूंजी हमें समभाव से प्राप्त होती है जो सहज ही बिना पात्रता के प्राप्त हो रही है जिसके प्रति हमारा कोई अनुग्रह भाव दिखता ही नहीं और हम उदारता को प्राप्त कर कृपण बने हुए है जो हमें स्वार्थी बनाए हुये है। यदि हम समष्टि के प्रति अनुग्रह व्यक्त न कर सके तो यह नैसर्गिक उपादेयों के प्रति हमारी कृपणता ही होगी। देखा जाये तो मनुष्य जीवन में जन्म के बाद समस्त के प्रति कृपणता का कोई स्थान नहीं होना चाहिए और परम उदारता का भाव हमें इस सम्पूर्ण सृष्टि से सहज ही प्राप्त है इसलिये हम उस उदारमना भाव से सबसे अनुग्रह पर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना अपना कर्तव्य समझे और प्राप्त सभी अनुग्रहों के ऋण से स्वयं को मुक्त कर पूर्ण समर्पित रहना सीख ले तो यही समर्पण भाव हमें प्रसाद के भाव तत्व की ओर अग्रेषित कर प्रसाद के मूल तत्व तक ले जाता है। प्रसाद क्या है, प्रसाद का भाव क्या है और प्रसाद का महत्व एवं मूल तत्व क्या है इसे समझना आवश्यक है।
हमारी जितनी भी पूजायें, पाठ, यज्ञ, ध्यान,होम-हवन,उद्यापन,समापन आदि के बाद आरती सम्पन्न होती है तब भगवान के आव्हान के साथ जगत के समस्त देवों-देवताओं, देवियों आदि को आमंत्रित किये जाने एवं उपस्थिति के बाद अपने-अपने धाम वापिस जाने के श्लोक, मंत्र आदि भाव उच्चारण उपरांत अपनी साधना का तृप्ति विधान एवं भगवान की प्रसन्नता का लाभ अनुभाषित होता है। हम कुशल पाण्डित्य के सानिग्ध में पूजा के समय भगवान के आवाहन के साथ-साथ समस्त देवता,समस्त ऋषि मुनि तथा समस्त प्राणियों-जीवों के आवाहन के भाव में समस्त भूतों, समस्त देवों के रूप में उस विश्वात्मा विश्वरूप को ही स्मरण कर सबके प्रति ऋणी होते है और स्वयं यह भाव मन में धारण कर अनुग्रहित होते कि हम अयोग्य है, कुपात्र है फिर भी आपकी करुणा प्राप्त हुई है। जब हम सब जीवों के कल्याण के लिये प्रार्थना करते है तब सभी का आर्शीवाद हमें प्राप्त हो जाता हैं। अगर जगत में एक जीव भी असंतुष्ट रह जाये तो भगवान आपकी प्रार्थना स्वीकार नहीं करते है इसलिये हमारे ऋषि मुनियों ने यह तत्व समझ लिया था तभी वे पूजा कराते समय हमारी कामना को पूछते है और जब हम अपनी फलाकांक्षा व्यक्त करते है तब मन,शरीर और आत्मा के साथ भगवान को प्रणाम करने एवं अनुभव करने के साथ अर्पित की गयी वस्तु द्वारा हमारी कामना स्वीकार्य मानी जाकर पूजा सम्पन्न होती है। विधान यह भी है कि पूजा-पाठ आदि अनुष्ठानों में प्रार्थना भाव में सब जीवों के कल्याण की कामना के अतिरिक्त भगवान से कुछ भी न माँगा जाये, यह भाव भी भगवान की अहैतुक कृपा का प्रसाद बनकर सहज ही प्राप्त होता है लेकिन यह उत्सर्ग करने के लिये कम ही लोगों में समर्थता देखने को मिलती है। जो भगवान के भोग को प्रसाद के स्वरूप में ग्रहण करने को आत्मसमर्पित होते है वे स्वयं में परमात्मानंद की प्राप्ति का अर्थात जीवन में उन्नति का भाव जीते है। प्रसाद के प्रति पूर्ण आत्म स्वीकृति व्यक्ति को चरम सुख, पूर्ण शांति और स्थायित्व आनंद दे सकती है, जबकि व्यक्ति को भगवत चरणों में पूर्ण समर्पण हो तो निश्चित ही प्रसाद का यह भाव उसे जीवन का चरम उद्देश्य और भगवत प्राप्ति कराता है जिसे हम साधना के अभाव में प्राप्त नहीं कर पा रहे है। विशेषकर सभी को यह भाव जीना चाहिये कि हम सभी भगवान की संतान है, संतान सुखी रहकर माॅ-बाप को दुखी नहीं कर सकती है। संतान की सेवा माॅ-बाप की अर्थात भगवान की सेवा है। तभी जीवात्मा अर्थात हम सभी शुद्ध और शांत रहकर स्नानादि से निवृत्त हो भगवान को स्नान-आहरादि अर्पण कर दिन की शुरुआत करते है, अर्थात भोजन अर्पित कर प्रसाद रूप में ग्रहण करते है, यह प्रसाद का महत्वपूर्ण पहलू है और अहेतुक की अलौकिक कृपा ही प्रसाद को महत्वपूर्ण बनाती है ताकि अधिक से अधिक लोग इसे ग्रहण कर लाभान्वित हो सके इसलिये इसे उपस्थित सभी के बीच वितरण की उदारता का निर्वहन किया जाता है।
भगवान को भोग लगाने को कोई प्रसाद का भोग लगाना भी मानते है। भोज्य पदार्थ या मेवा-पकवान भगवान के भोग होते है जो उन्हें अर्पित किया जाता है। परमात्मा को अर्पित हर पदार्थ वास्तव में प्रसाद हो जाता है। प्रसाद का अर्थ होता है कृपा, यानी भगवान की कृपा जो उन पर अर्पित पदार्थ में समिष्ट हो गयी है। जो मनुष्य किसी कामना करने या कामना पूरी होने पर प्रार्थना से भरा हुआ हो जाये और भगवत इच्छा प्राप्ति पर भगवान को भोग लगाने हेतु अर्पित किये जाने योग्य भोज्य-पदार्थो, मिष्ठानों-फलादि को उपार्जित कर भगवान को अर्पित करें तो वह अर्पित पदार्थ-वस्तु,भोज्य, मिष्ठान फलादि प्रसाद रूप पा जाते है। किसी भी देवी-देवता, इष्ट-देव आदि को अपिर्त सभी द्रव्य पदार्थ प्रसाद रूप में ग्रहण किये जाते है और ग्रहण करने वाला इस प्रसाद रूप में जिस देवी-देवता को यह अर्पित होता है, उसकी कृपा के रूप में इसे स्वीकार करता है। किसी भी देवी-देवता की पूजा-पाठ के बाद सम्पन्न आरति उपरांत अर्पित किये गये द्रव्य को प्रसाद रूप में अस्वीकारना, उस देवी-देवता का अनादर के रूप में माना गया है। बात अनादर की आई है तो यहाॅ उनका जिक्र जरूरी है जो भगवत्ता को अस्वीकार करते है और भगवान को न मानकर स्वयं को नास्तिक बतलाते है जबकि वे भूल जाते है कि जीवन के अनेक अवसरों पर वे इसी परम सत्ता परमात्मा के अस्तित्व को जाने-अनजाने आत्मसात करते है। ऐसे अज्ञानियों से एक प्रश्न जरूर पूछना चाहिये कि जब तुम्हारे स्वजन की मृत्यु होती है तब तुम उनके मुख में आग लगाकर उन्हें तिलांजलि क्यों देते हो?
सूर्योदय के साथ ही ब्रह्म मुर्हूत से ही जीवन की शुरुआत भगवान के स्मरण,सुमिरन,भक्ति-साधना के रूप में होती है। रात्रि जिसे हम रजनी भी कहते है हम उसकी गोद में सोते है और उषा की गोद में जागते है, यह कितने सौभाग्य की बात होती है कि हमें रजनी और ऊषा दो माताओं का स्नेह-प्यार और दुलार सहज ही मिल जाता है। जागते समय सूर्य अपनी कोटिशः रश्मियों से इस शरीर में ऊर्जा का संचार कर अहोभाव से भर देता है। संध्या की गोद में पहुंचकर शब्द-स्पर्श आदि भावों से हम संध्या वंदन कर द्वितीय प्रकृति स्वरूपा मां रजनी के पास पहुँच जाते है जहाँ चन्द्रमा की शीतला हमारा स्नान करती है। यह समस्त सृष्टि हमें अपना सर्वस्य लुटा रही है और हम सब मलिन बने रहकर उनके प्रति जीवन में अपनी कृतज्ञता या अनुग्रह व्यक्त न कर सके, इस संर्कीणता में सारा जगत डूबा हुआ है बिरले ही है जो कभी कभार जगत को नींद से जागने का संदेश देकर इन अहोभावों से हमें अवगत कराकर अपना जीवन जी चुके होते है और हम विचारशून्य बने रहकर अपने कर्तव्य को भी विस्मृत कर चुके होते है। जब चुड़िया चुग गयी खेत की युक्ति को चरितार्थ कर हम सजग होते है तब तक जीवन अस्ताचल की ओर पहुॅच चुका होता है और शरीर पर वृद्धावस्था का पड़ाव उसे निर्बल-जर्जर कर चुका होता है, तब इस समृष्टि को अर्पण के लिये किसी भोज्य पदार्थ का प्रसाद तो नहीं अपितु शाब्दिक भावों की प्रार्थना या आर्तनांद व्यक्ति के मन की मलिनता को स्वच्छ कर चित्त की शुद्धि का प्रसाद रूप में उसे सहज मिल जाता है, जहाॅ आर्तनंाद भावों के बीच पात्रता-कुपात्रता अर्थहीन रह जाती है। पूर्वार्ध कर्मो से या भगवान की कृपा से मनुष्य जन्म में नाना प्रकार के उपकार करने का अवसर जिन्हें मिलता है और जो परोपकार में समर्पित होते है वे वास्तव में भगवान से प्राप्त समृद्धि को प्रसाद रूप में ग्रहण कर प्रसाद रूप में वितरण कर भगवत्ता को समष्टि भाव पर पहुॅचाते है, जो असंतुष्टों को भी संतुष्टि का मंगल भाव प्रदान करता है।
इस सृष्टि में जो भी भोज्य पदार्थ है उसे ग्रहण करने से पूर्व यह देशना कि यह सब मेरे प्रिय भगवान का प्रसाद है, मां वसुंधरा का प्रसाद है, इस भाव से ग्रहण करना ईश्वर की परम भक्ति है। हमने इसलिए अन्न को देव का स्थान देकर अन्न देव की संज्ञा दी है और हम धरा से उत्पन्न अनाज को भोज्य पदार्थ के रूप में एक भोग्य मात्र न समझ कर हमारी देह के स्वामित्वबोध पोषक अमृत रूप में ग्रहण करने की ओर अग्रसर हो तो निश्चित ही भगवान की प्रसन्नता और प्रसाद रूप में सेवन कर भगवत्कृपा भी पा सकते है। प्रसाद के महत्व को समझने व उसके भावतत्व को जानने के बाद मन की सारी मलिनता समाप्त हो जाती है और प्रसाद रूप में प्राप्त भोज्य-मिष्ठादिक, फलादिक सभी पदार्थ ग्रहण करने के पश्चात मनुष्य विषयादिक भोगों से मुक्त हो जाता है। प्रसाद अर्थात भगवतकृपा। जगत के कल्याण के लिये समस्तों के सुख-दुख आदि के लिये भगवत कार्य साधन से उत्सर्गीकृत व्यक्ति समस्त साधनाओं में प्रकृति कल्याण को सर्वोच्चता प्रदान कर भगवान की तृप्ति हेतु जीवों की सेवा में कर्मशील रहकर भी जो भी अर्पित करता है वह अमृततुल्य होे जाता है, उसका कण कण प्रसाद के रूप में ग्रहण करने योग्य हो जाता है। चराचर जगत के जीवों-प्राणियों को जो व्यक्ति तृप्त करने का विधान पूर्ण करता है वह तृप्ति भगवान की तृप्ति बन जाती है , भगवान का तृप्त होना समस्त वृत्तियों को पूर्णरूप से तृप्त होना है, यही भगवत कृपा है, यही भगवान का प्रसाद है और इसे सहज ही पाना प्रसाद का भावतत्व है जो प्रभु की अहेतुक कृपा भी है। जब तक पृथ्वी पर एक भी असंतुष्ट जीव होगा तब तक भगवत्ता का परमधाम में प्रवेश को लेकर प्रश्चचिन्ह खड़ा किया जाता रहेगा इसलिये कहा गया है कि परमात्मा बार-बार भूलोक में अवतरित होकर आते है और स्वस्तिवाचन, पंचमहायज्ञ इत्यादि ऋणशोध के सत्कर्म जाग उठते है। जैसे प्रत्येक शुभकार्य से पूर्व समस्त देवों-देवियों,गृह-नक्षत्रों, नवादिगृहों के अलावा समस्त जीवों के आव्हान किये जाते है वैसे ही बाद में तर्पण-श्राद्धादि,श्रद्धान्जलि इत्यादि द्वारा भगवान से सब जीवों के लिये, यहाॅ तक सभी पापी-तापियों के लिये भी कल्याण की कामना की जाती है, मोक्ष की कामना की जाती है, सबका मंगल हो और शुभकाम निर्विघ्नता से संम्पन्न हो यह कहना हमारी वैदिक संस्कृति की सर्वश्रेष्ठता का प्रमाण है जो परमात्मा की अहेतुक कृपा है जिसे पाना ही उसकी कृपा को पाना है, उसके प्रसाद को पाना है। प्रसाद वितरण में यही भगवत्ता का भाव प्रसाद के भावतत्व का भाव है, प्रसाद का मंगलयमी भाव है जो भगवतकृपा से ही प्राप्त होता है जिसे प्राप्त कर ग्रहण करने की षुभ भावना हरेक व्यक्ति को प्रसाद वितरक से प्रसाद माॅगने हेतु अपने हाथ फैलाने को प्रेरित करती है, परमात्मा की कृपा इस तरह सहज-सरलता से प्रसाद रूप में प्राप्त हो जाये तो कौन व्यक्ति होगा जो प्रसाद के आनन्द और उत्सव का अवसर गवाये, इसीलिये हमें आपस में जोड़े रखने के लिये यह प्रसाद वितरण की परम्परा महत्वपूर्ण ही नहीं अपितु भावनाओं के अथाह सागर को एकस्थान पर एकत्रित करने का तीर्थ बन जाती है।
आत्माराम यादव पीव