-राकेश कुमार आर्य-
जब महाभारत युद्ध समाप्त हो गया तो पांचों पाण्डव और श्रीकृष्ण जी माता गांधारी के पास गये। जिन्होंने अपने पुत्रों के लिए करूणाजनक शब्दों में विलाप किया उसके विलाप को देखकर युधिष्ठिर का हृदय द्रवीभूत हो उठा। उन्होंने माता गांधारी के सामने बैठकर कहा-‘‘देवी! आपके पुत्रों का संहार करने वाला क्रूरकर्मा युधिष्ठिर मैं हूं। भूमंडल में राजाओं का नाश कराने में मैं ही हेतु हूं, अत: शाप के योग्य हूं, आप मुझे शाप दीजिए। मैं अपने सुहृदों का द्रोही और अविवेकी हूं। अपने उन जैसे श्रेष्ठ सुहृदों का वध करके अब मुझे जीवन राज्य अथवा धन से कोई प्रयोजन नहीं है।’’ युधिष्ठिर के हृदय से निकली इन बातों को माता गांधारी ने समझ लिया कि ये युधिष्ठिर नहीं बोल रहा अपितु युधिष्ठिर का अंत:करण बोल रहा है, उसका प्रायश्चित है और वह युद्ध जीतकर भी जीतने के अभिमान से नहीं फूल रहा है, अपितु वह आज विजय के क्षणों को भी बड़े विनम्र और अहंकारशून्य हृदय से ले रहा है। इसलिए उन्होंने युधिष्ठिर को स्नेहमयी माता के समान क्षमा कर दिया।
तत्पश्चात पांचों पांडव और श्रीकृष्ण जी माता कुंती के पास जाते हैं। माता कुंती अपनी पुत्रवधू द्रोपदी के पुत्रों को याद करके द्रोपदी के साथ विलाप करती है। तब माता कुंती द्रोपदी को धैर्य बंधाती हुई अपने पुत्रों व श्रीकृष्ण जी सहित पुन: माता गांधारी के पास आती है। माता गांधारी ऐसे समय द्रोपदी को समझाते हुए कहती है- ‘यह काण्ड अब अवश्यम्भावी था, इसलिए प्राप्त हुआ है। जब यह विनाश किसी प्रकार से टल नहीं सकता था, विशेषत: जब सब कुछ समाप्त हो गया, तो अब तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। वे सभी वीर युद्ध में मारे गये हैं अत: शोक करने योग्य नहीं हैं। आज जैसी मैं हूं वैसी तुम भी हो। हम दोनों को कौन धैर्य बंधावे। मेरे ही अपराध से इस श्रेष्ठ कुल का संहार हुआ था।’
युद्ध के पश्चात हस्तिनापुर के राजभवनों की स्थिति ही ऐसी हो, यह नहीं था। कुरूक्षेत्र के मैदान में भी अभी तक अनेकों लाशें पड़ी हुई थीं। जिन्हें पशु पक्षी नोंच-नोंच कर खा रहे थे। गिद्घ वहां मानव मांस पर झपट-झपट कर पड़ रहे थे। चारों ओर करूणा भरी चीखें, विधवाओं के विलाप सुनाई दे रहे थे। बड़ा ही दर्दनाक दृश्य था। अब युद्ध क्षेत्र में पहुंचे पाण्डवों के साथ माता गांधारी भी थी। उन्होंने अपने पुत्र दुर्योधन के शव को देखकर कहा- शत्रुओं को संताप देने वाला जो दुर्योधन मूर्धभिषिक्त राजाओं के आगे-आगे चलता था, वही यहां आज धूल में लोट रहा है। काल का यह उलटफेर तो देखो। पूर्वकाल में जिसके समीप बैठकर सुंदर रमणियां उसका मनोरंजन किया करती थीं, वीर शैया पर सोये हुए उसी वीर का मन आज ये अमंगलकारिणी गीदड़ियां बहलाती हैं। पहले राजा लोग जिसके पास बैठकर उसे आनंद प्रदान किया करते थे आज मरकर धरती पर पड़े हुए उसी वीर के पास गिद्घ बैठे हुए हैं।
हमने महाभारत का यह दृश्य यहां इसलिए प्रस्तुत किया है कि जब व्यक्ति अहंकार के वशीभूत होकर या अपनी हठधर्मिता के कारण लगातार भूल पर भूल करता चला जाता है, तो परिणाम कितना खतरनाक आता है। कितने लोगों के लिए उसकी हठधर्मिता या अहंकार पूर्ण आचरण घातक सिद्घ होता है। इसलिए ये प्रसंग या प्रकरण बड़ा ही शिक्षाप्रद है।
सदैव की भांति युधिष्ठिर का आचरण यहां भी अनुकरणीय रहा है। यहां भी उन्होंने माता गांधारी से अपने लिए वरदान नहीं अपितु श्राप मांगा है। माता कुंती का व्यवहार भी प्रशंसनीय है और माता गांधारी का व्यवहार तो और भी प्रशंसनीय है। माता गांधारी द्रोपदी को भी वर्तमान में जीने की शिक्षा देती है और स्वयं भी वर्तमान के सच को स्वीकार कर रही है। वह समझ रही है कि गलती कहां पर हुई थी और कहां से आरंभ होकर आज अंत कहां पर हुआ है? वह यह भी समझ रही हैं कि पहली भूल की अंतिम परिणति ऐसी ही होनी थी।
यह प्रसंग हमें जागरूक करता है कि जीवन में कभी हठीले मत बनो, अपितु लचीले रहो। हठीलापन बसे हुए संसार को मृतकों का शहर बना देता है और विवेकपूर्ण सोच के साथ आपका लचीलापन आपको सदा जीवंत रखता है, आपका अभिनंदन करने के लिए सदा आपकी अगवानी करता है। वह हमें सचेत करता है कि घर को, समाज को अथवा राष्ट्र को कभी अपनी हठधर्मिता की रणस्थली मत बनाओ, अन्यथा महाभारत के युद्ध के पश्चात की निर्जनता और श्मशान की शांति घर में पसर जाएगी।
आज घर-घर में दुर्योधन है, जो हर घर में अपनी हठ के सामने सभी को नाको चने चबा रहे हैं। हर दुर्योधन की मां ने आज भी पट्टी बांध रखी है। कहीं ये पट्टी स्वार्थ की है तो कहीं पर लोक लज्जा की है। जब बात देवर जेठों से हक हिस्सा मांगने की आती है, या किसी के हिस्से को मारने की आती है तो गांधारी की पट्टी स्वार्थ की पट्टी बन जाती है, और जब दुर्योधन बढ़ते-बढ़ते माता-पिता का जीना कठिन कर डालता है, तो ये पट्टी लोकलाज की बन जाती है। पहली वाली स्थिति को गांधारी प्रोत्साहन देती है तो दूसरी वाली स्थिति से बचती फिरती है।
यदि पहले वाली स्थिति में भी गांधारी का विवेक साथ दे तो अगली स्थिति नहीं आने पाएगी। पर हम देख रहे हैं कि घर-घर में महाभारत हो रहा है, समाज में महाभारत हो रहा है और राष्ट्र में महाभारत हो रहा है। सब कह रहे हैं कि मैं अपने अहम की, अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हूं, अपने हक की लड़ाई लड़ रहा हूं। यदि मैंने ऐसा नहीं किया तो मेरे विरोधी मुझे जीने नहीं देंगे। सब अधिकारों के पीछे और अपने अहम के पीछे लट्ठ लेकर पड़े हैं। लगता है इन्हें मिटाकर ही दम लेंगे। क्योंकि इस लड़ाई के अंतिम छोर पर कुछ पाना नहीं लिखा, अपितु मिट जाना लिखा है। अहम की लड़ाई लडऩे का अर्थ किसी को मिटाना नहीं है, अपने कत्र्तव्य को नितांत भूल जाना नहीं है, अपितु इसका अर्थ है अपने अस्तित्व को पहचानना, मानना और जानना। मैं कौन हूं? कहां से आया हूं, क्यों आया हूं? अहम की लड़ाई लडऩे का अर्थ है-अपने भीतर छिपी दानवी प्रवृत्तियों को चुन चुनकर समाप्त करना और अपने अहम को संसार के लिए एक प्रसन्नतादायक अनुभूति बनाने का प्रयास निरंतर करते रहना।
हमारे यहां व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसकी चिता के ठंडी होने पर उसके अस्थियों के चुनने को लोग पुष्प चुनना भी कहते हैं। पुष्प चुनने का अर्थ है कि अब हम जाने वाले के जीवनादर्शो को अपने लिए पुष्प समझकर चुन रहे हैं। उनके विचार मोतियों को हम सहेजकर रखेंगे और उन्हें अपने जीवन में अंगीकृत करने का प्रयास करेंगे। इस संसार से जायें, तो जाने से पहले जीवन के अस्तित्व को इतना सुंदर बना दें कि लोग हमारे जाने के पश्चात सचमुच हमारे पुष्प चुनें। अहम की लड़ाई की अंतिम परिणति इसी प्रकार निकलकर आनी चाहिए। तभी उसका कोई लाभ है। जो लोग दूसरों का अस्तित्व मिटाते रहे या मिटाने का काम करते रहे उनके पुष्प चुनने के लिए जैसे दुर्योधन के पास गिद्घ और गीदड़ आये थे, उसी प्रकार के जंगली पशु ही आएंगे। अमीर ने क्या सुंदर कहा है:-
खबरदार ऐ मुसाफिर! खौफ की राहे हस्ती है।
ठगों का बैठना है जा बजा चोरों की बस्ती है।
इस सरा में हूं मुसाफिर नहीं रहने आया।
रह गया थक के अगर आज तो कल चला जाऊंगा।।
इमरसन ने भी बड़ा सुंदर कहा है कि संसार में रहकर संसार की लीक पर चलना सरल है, तो जंगल में रहकर मस्ती का जीवन जीना अपनी अस्मिता को बनाये रखना भी सरल है, पर महान व्यक्ति वे हैं जो सबके मध्य रहकर भी अपनी अस्मिता-अस्तित्व की स्वतंत्रता को भली प्रकार अक्षुण्ण बनाये रखते हैं।
युधिष्ठिर के जीवन पुष्पों को हम चुनें। ईश्वर से नित्यप्रति प्रार्थना करते रहें कि हे ईश्वर दयानिधे! मेरे जीवन को आप निरंतर सुरभित पुष्प बनाते चले जाओ, मेरी कमियां, मेरे दोष, मेरे ऐब, मेरे व्यक्तित्व के विकास में बाधक न बनें, अपितु तेरे नाम के सुमिरण से तेरा लगातार जाप करने से मेरे सारे दोष, सारी कमियां, सारे ऐब मिटते चले जाएं और मेरा चित्त तेरे नाम के अमृत का रसास्वादन निरंतर और निर्बाध करता रहे। ऐसा जीवन मेरा हो जो निरंतर सोने से कुंदन बनने के लिए अस्तित्व का संघर्ष करने में समर्थ हो, सबल हो और अंत में सफल हो।