क्या डॉ. बी.आर. अंबेडकर सिर्फ दलित नेता थे ? और थोड़ा सुने तो भारत के संविधान के निर्माता। सरकारी इश्तहारों और तथाकथित दलित विमर्श की प्रतिध्वनि इस शख्स को एक लौह आवरण में कैद करती जान पड़ती है. इस आवरण के अंदर बोलने और सुनने का अधिकार भी सबको नहीं है. ठीक वैसे ही जैसे कांशीराम की विरासत और विचारों पर मायावती का कब्जा है वैसे ही डॉ. बी.आर. अंबेडकर और उनके चिंतन को एकमार्गी बनाने का कार्य कतिपय प्रगतिशील, और दलित विमर्श के दुकानदारों ने कर रखा है. सच मायनों में अंबेडकर एक दलित नेता से भी ऊपर महान देशभक्त राजनीतिक युगपुरूष थे. उनके जीवन और मान्यताओं की प्रासंगिकता आज व्यापक फलक पर स्वयंसिद्ध है. इसलिए गांधी, लोहिया, दीनदयाल की तर्ज पर अंबेडकर के राजनीतिक, सामाजिक विचारों को उदारता के साथ सामाजिक-राजनीतिक जीवन में स्थापित करने की आवश्यकता है। दलित-चिंतन के अलावा संसदीय राजनीति में नागरिक समानता, राजनीतिक सिद्धान्त, अधिकार और कर्त्तव्य पर उनके विचार स्थायी महत्व के है।
ईसाइत, कम्यूनिज्म, और इस्लाम पर उनका आंकलन, और निष्कर्ष पर कभी देश में समेकित विमर्श सुनायी नहीं देता है जबकि इन तीनों पर उनका विशद् विश्लेषण अंबेडकर बाड़मय में भरा पड़ा है। दुर्भाग्य की बात है कि न बसपा, न कांग्रेस, न दलित विमर्श, न प्रगतिशील जमात, न बुदिष्ट किसी भी फोरम पर इन विचारों पर चर्चा नहीं होती है। डॉ. अंबेडकर के अनुसार लोकतांत्रिक राजनीति मूलतः लोकतांत्रिक समाज पर निर्भर है। किसी देश की शक्ति और उन्नति उसके सामाजिक जीवन, उच्च नैतिकता, ईमानदारी, आर्थिक क्रियाकलाप, जनता का मनोबल, साहस और सामान्य आदतों पर निर्भर होती है। इसीलिए वे राजनीतिक सुधारों से ज्यादा सामाजिक सुधारों पर जोर देते थे। इसीलिए उन्होंने भारत के समाज में अंतिम पायदान पर खड़े लोगों को सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत करने पर अपना ध्यान लगाया। किंतु ऐसा करते समय डॉ. अंबेडकर ने संपूर्ण भारत के हित को कभी अपनी प्राथमिकता से कम नहीं होने दिया. वे एक सच्चे देशभक्त थे इसीलिए अपने अन्य समकालीनों के उलट विदेशी विचारो, संगठनों, और उनकी देश विरोधी प्रेरणाओं से सदैव दूर रहे उन्होंने कहा कि “मैं भारत से प्रेम करता हूँ।” उस दौर में तमाम विदेशी ताकतें सक्रिय थी जो दलित, मुस्लिम का सवाल उठाकर भारत में विभाजन की विचारधारा को मिशनरी की आड़ में खड़ा करने में लगी थी। हिन्दू समाज से कड़वे अनुभवों के बावजूद विदेशी ताकतों के इन मंसूबों और पूर्वाग्रही दुष्प्रचार से वे सतर्क थे और अक्सर कहते थे कि वे इस देश से प्रेम करते है और वैश्विक छवि के मामले में वे कोई भी समझौता भारत की एकता, अखंडता, स्वाभिमान की कीमत पर नहीं कर सकते है। इस बात की प्रमाणिक पुष्टि 28 दिसम्बर 1940 को दादर मुंबई से प्रकाशित उनकी पुस्तक “भारत का विभाजन” के अध्याय दस से की जा सकती है।
कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक में हिंदू धर्म की आलोचना की तो डॉ. अंबेडकर ने तत्काल इसका जोरदार प्रतिवाद किया। मेयों के अनुसार हिंदू धर्म में सामाजिक विषमता है और इस्लाम में भाईचारा। डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक में मुस्लिम समाज का एतिहासिक आलोक में वर्तमान सामाजिक स्थिति का विशद् विश्लेषण कर मेयो को करारा जबाव दिया। हमें याद नहीं कि नेहरू या गांधी ने कभी इस तरह का तार्किक प्रतिवाद हिन्दू धर्म के मिथ्याचार पर किया हो। ‘सामाजिक प्रवाह हीनता’ नामक शीर्षक के इस अध्याय में बाबा साहब ने कहा कि कुमारी मेयो द्वारा प्रकाशित “मदर इंडिया” ने बुराइयों को प्रगट करते हुए विश्व के न्यायालय के समान इन बुराइयों के जन्मदाताओं को अपने पापों का उत्तर देने को प्रस्तुत किया इस पुस्तक ने विश्व में यह प्रभाव भी छोड़ा है कि हिन्दू सामाजिक बुराइयों के कीचड़ में धंसे हुए हैं तथा अनुदार है वहीं भारत के मुसलमान इससे दूर हैं तथा हिंदुओं की तुलना में उदार और प्रगतिशील है। मैं इस आंकलन से आश्चर्य चकित हँू। इस दसवंे अध्याय में बाबा साहब ने हिंदू धर्म का जोरदार बचाव करते हुये केथरीन मेयो को तथ्यों के आधार पर जबाव दिया है कि कैसे बालविवाह, महिलाआंे की पारिवारिक, सामाजिक स्थिति, तलाक, बहुपत्नी प्रथा, जातिप्रथा, पर्दाप्रथा, अंधविश्वास, धार्मिक क्रूरता के सवालों पर भारत का मुस्लिम समाज हिंदुओं की तुलना में जड़, अनुदार, और कट्टरपंथी हैं। बाबा साहब ने स्पष्ट लिखा है हिंदुओं में सामाजिक बुराइयां हैं लेकिन ये अच्छी बात है कि उनमें उसे समझने वाले, और दूर करने वाले संगठित लोग सक्रिय रहे हैं जबकि मेयो के निष्कर्ष के विरूद्ध मुस्लिम तो यह मानने के लिए भी राजी नहीं हैं कि उनके समाज में कोई बुराइयां है भी। यदि उनकी प्रचलित मान्यताओं में परिवर्तन किया जाता है तो वे इसका कड़ा विरोध करते हैं. 1930 में एक विधेयक केन्द्रीय विधानमंडल में लाया गया जिसका उद्धेश्य मुस्लिम लड़की की उम्र 14 एवं लड़के की 18 साल विवाह हेतु निर्धारित करना थी लेकिन हर स्तर पर मुस्लिम समाज ने इसका विरोध किया। बाबा साहब के अनुसार मुसलमान सामाजिक सुधार के इतने सख्त विरोधी क्यों है ? इसका प्रचलित उत्तर यही दिया जा सकता है कि संपूर्ण विश्व में मुसलमान अप्रगतिशील है। यह विचार निःसंदेह इतिहास के तथ्यों से मेल खाता है। उनकी क्रियाओं के पहले बेग के पश्चात विशाल साम्राज्यों की नींव रखी गयी थी। जिससे वे जड़ हो गए।
बाबा साहब ने साफ लिखा है कि “मुसलमान जो कि अपने धर्म के प्रति वफादार है प्रगति से दूर है। इस्लाम की वास्तव में यह प्रमुख विशेषता है कि जिन प्रजातियों को गुलाम बनाता है उन्हें भी अपनी निर्दयता की प्रकृति के कारण गतिहीन कर देता है। वह निष्क्रिय एवं अभेदय बनाकर दृढ़ कर हो जाता है। वह अपरिवर्तनीय है तथा राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक परिवर्तनों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।” बाबा साहब ने देश की मुस्लिम राजनीति की भी विस्तार से पड़ताल की और लिखा कि मुसलमान लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते हैं। उर्दू को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की मांग को खारिज करते हुये बाबा साहब ने “सांप्रदायिक आक्रमण” शीर्षक के ग्यारवें अध्याय में लिखा है कि उर्दू संपूर्ण भारत में न तो बोली जाती है और न वह हिंदुस्तान के मुसलमानों की भाषा है। 68 लाख मुसलमानों में से सिर्फ 28 लाख ही उर्दू बोलते हैं। उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव 322 लाख भारतीय पर जबरियां थोपने का ब्रिटिश षड़यंत्र होगा। मुस्लिम समाज पर डॉ. अंबेडर के विचारों की स्पष्टता गजब की है वे लिखते हैं कि शोषण करने की मुसलमानों की भावना का उदाहरण है गौ वध की हठ। इस्लामिक कानून बलि के लिए गाय के वध पर जोर नहीं देता है तथा कोई भी मुसलमान जब हज पर जाता है तब मक्का-मदीना में गाय का वध नहीं करता है। पर भारत में मुस्लिम अन्य प्राणी की जगह गाय वध को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि हिंदू इसे अपनी धार्मिक मान्यताओं से जोड़ते हैं।
मुस्लिम सांप्रदायिकता को रेखांकित करते हुए बाबा साहब अपनी इसी पुस्तक में जिक्र करते हैं कि इस देश के मुसलमानांे ने राजनीति में अपराधिक पद्धति को अपना लिया है। दंगे इसका स्पष्ट संकेत है कि अपराध उनकी राजनीतिक रणनीति का निश्चित भाग बन चुका है। वे विचारपूर्वक एवं जान बूझकर सुडेटन जर्मनों की पद्धति की नकल कर रहे हैं जिसका प्रयोग उन्होंने चैक्स के विरूद्ध किया था। जब तक मुसलमान आक्रमणकारी थे, हिंदू शांत थे तथा संघर्ष में मुसलमानों की तुलना में हिंदुओं ने अधिक हानि उठायी। पर अब देश के हिंदुओं ने प्रतिकार करना सीख लिया है। इस मामले में कांग्रेस की नीति को कटघरे में खड़ा करते हुये डॉ. अंबेडकर ने लिखा है कि कांग्रेस के हिंदू नेता मानते है कि मुस्लिम बर्ताव को सहने और उन्हें राजनीतिक संरक्षण एवं अन्य सुविधायें देकर खुश करना दीर्घकाल के लिए ठीक है। मेरा विचार यह है कि कांग्रेस दो बातों को नहीं समझ सकी है। पहली तो यह कि प्रसन्न करने और समझौतों में भेद है। यह भेद महत्वपूर्ण है। तुष्टिकरण का अर्थ है कि आक्रमणकारी द्वारा उन निर्दोष व्यक्तियों की जिन्होनंे उनकी नाराजगी आमंत्रित की है, हत्या, बलात्कार, आगजनी, लूटपाट को अनदेखा कर आक्रमण को खरीदने का प्रयास। जबकि दूसरी ओर समझौते द्वारा सीमाएं निर्धारित की जाती है। जिसकी अवज्ञा पर दण्ड का विधान है।
प्रसन्न करने की नीति आक्रमणकारी की मांगों एवं अपेक्षाओं पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाती है। कांग्रेस यह भी समझने में नाकाम रही है कि उसकी तुष्टिकरण की नीति ने इस देश के मुसलमानों में आक्रमकता को बढ़ावा दिया है। और निकृष्टतम बात यह है कि सुविधा का अर्थ मुसलमान यह लगाते हैं कि हिंदुओं ने उनके आगे घुटने टेक दिए हैं। कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति हिंदुओं को भविष्य में उसी प्रकार की भयानक स्थिति में फंसा देगी जैसे कि मित्र राष्ट्र हिटलर को प्रसन्न करने के कारण फंस गए थे। बाबा साहब की तमाम अन्य पुस्तकें इस तरह के साफगोई भरे विचारों से भरी पड़ी है लेकिन देश के बुद्धिजीवी वर्ग जिसने दलित विमर्श और चिंतन की ठेकेदारी अपने नाम पर उठा रखी है दुबारा कभी भी इन विचारों को सामने लाने की कोशिश नहीं की है क्योंकि अंबेडकर विचार से जुडे अधिकतर बुद्धिजीवी एक तरह के पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। ये वर्ग जानबूझकर उन्हें एक वर्ग विशेष का नेता ही बने रहने देना चाहता है। डॉ. अंबेडकर किसी भी विचार या सिद्धान्त को यथावत स्वीकार करने के पक्ष में नहीं रहते थे उनका पक्ष उन्हें अपने समकालीन सभी अन्य नेताओं से विशिष्ट स्थान दिलाती है। क्योंकि उनके विचारों में दोहरापन कभी नहीं रहा। वे कभी दिखावे की राजनीति में नहीं पड़े न लोकलुभावना घोषणाओं में यकीन रखते थे। डॉ. अंबेडकर की विरासत में से सिर्फ राजनीतिक पक्ष पर ही लोग अपना दावा ठोकते है उनके समग्र राष्ट्रीय चिंतन पर यदि देश आगे बढ़ता तो आज अंबेडकर विचार गांधीवाद से कहीं अधिक व्यावहारिक और सफल होता। यह भी स्पष्ट है कि जिस तरह गांधी विचार की हत्या कांग्रेस और उससे पोषित तबकों ने आचरण व्यवहार से की है कमोबेश यही स्थिति अंबेडकर विचार दर्शन के साथ उनकी ठेकेदारी उठाने वाले दलित नेता, बुद्धिजीवियों के साथ हैं। सच्चाई यह भी है कि जिस तरह केथरीन मेयो ने ब्रिटिश हुकूमत के इशारों पर तत्समय भारतीय समाज में विभाजन को स्थापित करने का प्रयास किया था देश के सेक्यूलर, कम्यूनिस्ट भी ईसाई मिशनरी के हाथों खेल रहे है वे वही बातें राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दोहराते हैं जो मिशनरी उन्हें देते हैं। डॉ. अंबेडकर को भी इन मिशनरीज ने अपने जाल में फंसाने का प्रयास किया था। लेकिन हिंदू समाज से अपमानित होने के बावजूद विदेशी प्रलोभनों, विभाजनकारी षड़यंत्रों के झांसे में नहीं आए। क्योंकि वे विश्व के सामने भारत की अस्मिता एकता के प्रति सर्वाधिक निष्ठावान भारतीय महापुरूष थे।
कांचा इलैया, जॉन दयाल, सेड्रिक प्रकाश, अपूर्वानंद, राजकिशोर, अरूंधती राय, हर्ष मंदर, चंद्रभान प्रसाद, रामशरण जोशी, कमलनयन काबरा, गंगा सहाय मीना, अनिल चमडिया जैसे तमाम बुद्धिजीवी और इनके संगठन ईसाई मिशनरीज के हाथों खिलौने बने हुए हैं। और दलित विमर्श के नाम हिंदू धर्म, इतिहास, और संस्कृति को कोसने में दिनरात लगे हुए हैं। सवाल यह है कि आज यदि बाबा साहब जीवित होते तो क्या वे इन बुद्धिजीवियों के प्रलाप को स्वीकार करते ? कदापि नहीं क्योंकि उन्होंने धन, कूटनीति, और दुष्प्रचार का भारत के संदर्भ में हमेंशा डटकर विरोध किया उन्होंने साफ कहा था कि भारत को बाहरी विचारधाराओं मजहबों, की आवश्यकता नहीं है इसीलिए ईसाइत और इस्लाम को अनुपयुक्त मानकर उन्होंने बौद्ध धर्म का रास्ता चुना था क्योंकि यह विवेक पर आधारित धर्म है। 15 फरवरी 1956 को अपने नागपुर भाषण में उन्होंने कहा था “भारत को बाहरी विचारधाराओं, मजहबों की कोई आवश्यकता नहीं है।” ईसाइत और इस्लाम का संदर्भ लेते हुए वे कहते हैं कि वह बौद्ध धर्म इसलिए अपना रहे हैं क्योंकि वह “भेड़ चाल” पर नहीं वरन् विवेक पर आधारित है। अन्य धर्म जड़ विश्वासों, जैसे ‘एक ईश्वर-पुत्र’ ‘एक दूत-पैगम्बर’ तथा धरती, स्वर्ग, हवा, चांद बनाकर देने वाले एकमात्र सच्चे ईश्वर का दावा करते हैं। जबकि अंधे अनुयायियों का काम बस उसके गीत गाता रहे। मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान की वहां कोई जगह नहीं है जबकि बौद्ध धर्म में विवेक के साथ-साथ संपूर्ण मानवता का कल्याण समाहित है। यही भारतीय दर्शन है। लेकिन आज हो उल्टा रहा है बाबा साहब के इस भारतीय दर्शन को तिरोहित करके बुद्धिजीवियों, कांग्रेसियों, कम्यूनिस्टों, प्रगतिशीलों का गिरोह दलित राजनीति और विमर्श के नाम पर संदिग्ध मिशनरीज के हाथों के खिलौने बने हुए हैं। अंबेडकर ऐसे नेताओं से सख्त घृणा करते थे। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत की सरकारें, समाज, मिलकर बाबा साहब के विचारपंुज को स्थापित करने का प्रयास बगैर राजनीतिक लोभ के करने का ठोस प्रयास करें। देश के उच्चवर्ग को भी चाहिए कि वह भारत के विखंडन के इन सुगठित प्रयासों को समझें और अपनी मानसिकता कार्य व्यवहार में परिवर्तन सुनिश्चित करें वरन् विदेशी ताकतें जो अंबेडकर के रहते अपने षड़यंत्रों में सफल नहीं हो सकी वे आज हमारी आत्ममुग्धता का फायदा उठाने में सफल हो ही जायेगी।
— डॉ अजय खेमरिया