–मनमोहन कुमार आर्य
मनुष्य दुःख से घबराता है तथा सुख की प्राप्ति के लिये ही कर्मों में प्रवृत्त होता है। वह जो भी कर्म करता है उसके पीछे उसकी सुख प्राप्ति की इच्छा व भावना निहित होती है। मनुष्यों को दुःख प्राप्त न हो तथा अपनी क्षमता के अनुरूप सुख प्राप्त हो, इसके लिये उसे क्या करना चाहिय? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि वह दुःखों की सर्वातिशय मुक्ति के लिये ज्ञान की प्राप्ति कर दुःखों से मुक्ति व जन्म-मरण से अवकाश के पर्याय मोक्ष को साधना द्वारा प्राप्त करे। यह मुक्ति ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य होता है जिसके लिये हमें परमात्मा से मनुष्य का जन्म मिला है। जो मनुष्य मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करते वह जन्म व मरण के दुःख रूपी बन्धनों में फंसे रहते हैं। जन्म के बाद सब मनुष्यों की मृत्यु होना निश्चित होता है और मृत्यु के बाद जन्म भी निश्चित है। जीवों का जन्म इस जन्म के कर्मों के आधार पर होता है। हमारे पाप व पुण्य ही नये जन्म के निर्धारण में सहायक होते हैं। परमात्मा सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी स्वरूप से हमारे सभी कर्मों का साक्षी होता है। वह इस जन्म में हमारी मृत्यु होने पर हमें संचित कर्मों के आधार पर दूसरा जन्म देता है। अतः हमें अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिये और मुक्ति प्रदान करने वाले साधक कर्मों सहित ज्ञान प्राप्ति व सदाचरण आदि कर्तव्यों पर ध्यान देना चाहिये।
मनुष्य का जन्म पूर्वजन्म के पाप व पुण्य कर्मों के आधार पर होता है। यह सत्य वैदिक सिद्धान्त है। इसी प्रकार हमारे इस जन्म में पाप व पुण्य कर्मों तथा पूर्वजन्मों के भोगे न जा सके कर्मों का भोग करने के लिए हमारे भविष्य के जन्म होते हैं। एक प्रश्न यह भी उपस्थित किया जाता है कि क्या मनुष्य शरीर तथा पशु-पक्षी आदि सभी प्राणियों में जीवात्मा एक जैसा होता है व उनमें अन्तर होता है? इसका उत्तर है कि सभी प्राणियों में सभी जीव एक से हैं। पाप व पुण्य कर्मों के योग से जीवात्मा मलिन व पवित्र होते हैं। एक जिज्ञासा यह भी होती है कि क्या मनुष्य का आत्मा पशु आदि के शरीरों में तथा स्त्री का पुरुष व पुरुष का आत्मा स्त्री के शरीरों में आता जाता है अथवा नहीं? इसका उत्तर यही है कि सभी प्राणियों के जीव अपने कर्मानुसार अन्य अन्य प्राणियों के शरीरों में आते जाते हैं। इसका विधान यह है कि जब मनुष्य के द्वारा पुण्य कम होते हैं और पाप अधिक होते तब मनुष्य का जीवन पशु आदि नीच शरीर और जब अधर्म न्यून और धर्म के कर्म अधिक होते हैं तब जीव को देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता है। जब जीव के पाप व पुण्य बराबर होते हैं तब साधारण मनुष्य का जन्म होता है और जब अधिक पाप का फल पशु आदि शरीर में भोग लिया जाता है तब पुनः पाप-पुण्य के तुल्य होने से मनुष्य के शरीर में जीव आता है। इस प्रकार से जन्म व मृत्यु तथा भिन्न-भिन्न योनियों में जीव के जन्म की व्यवस्था जीव के कर्मों के अनुसार होती है।
जीव का शरीर के साथ संयोग होने को जन्म और शरीर से वियोग होने को मृत्यु कहा जाता है। जब जीव की मृत्यु होती है तब शरीर से निकलकर जीव आकाश की वायु में रहता है। वायु में रहने के बाद परमेश्वर जीव को उसके पाप व पुण्य कर्मों के अनुसार उसके योग्य योनि में जन्म देता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में ऋषि दयानन्द जी ने बताया है कि जन्म लेने से पूर्व जीव ईश्वर की प्रेरणा से वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा पुरुष के शरीर में प्रविष्ट होता है। वहां से वह वीर्य में जा, गर्भ में स्थित होकर शरीर धारण कर बाहर आता है। इस प्रकार से जीव का जन्म होता है। पुत्र व पुत्री के रूप में जीव का जन्म भी जीव के पूर्वकर्मों के अनुसार ही होता है। मनुष्य का जन्म व मरण का चक्र चलता रहता है। जब जीव मनुष्य योनि में रहकर उत्तम ज्ञान, कर्म व उपासना को प्राप्त होता है तब उसे दीर्घ काल 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के लिये मुक्ति वा मोक्ष प्राप्त होता है। जीव को मुक्ति एक जन्म के कर्मों से ही प्राप्त नहीं होती है अपितु इसमें अनेक जन्म भी लग सकते हैं। संचित शुभ कर्मों में वृद्धि, सद्ज्ञान व विद्या में वृद्धि तथा मोक्ष प्राप्ति के अनुरूप जीव का गुण, कर्म व स्वभाव होने पर ईश्वर की कृपा से मुक्ति की प्राप्ति होती है। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि मुक्ति में जीव का परमात्मा में लय हो जाता है। महान वेद ऋषि दयानन्द जी मुक्ति में जीव का परमात्मा में लय होने का खण्डन करते हैं। वह कहते हैं कि यदि मुक्ति में जीव का परमात्मा में लय हो जाये तो फिर जिस जीव ने मुक्ति के लिये अनेक जन्मों में शुभ व पुण्य कर्मों का संचय किया, पापों की निवृत्ति की, सुखों का त्याग कर साधना व श्रेय मार्ग का अनुसरण किया तो इससे होने वाले सुखों को वह कैसे भोगेगा? इससे तो जीव ने मुक्ति के जो साधन व पुरुषार्थ किया वह सब निष्फल हो जायेंगे। ऐसा मानना जीव की मुक्ति नहीं अपितु उसका प्रलय जानना चाहिये।
मुक्ति में मनुष्य के शरीर का अस्तित्व नहीं रहता। बिना शरीर जीव मुक्ति का सुख कैसे भोगता है, इस पर शंकायें की जाती है। इसका उत्तर है कि जैसे जीव सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है वैसे ही जीव मुक्ति के आनन्द को परमेश्वर के आधार पर भोगता है। जीव अपने अभौतिक शरीर जिसे सूक्ष्म शरीर कहा जाता है, उसके द्वारा सुख भोगता है। जीव के सूक्ष्म शरीर में पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच सूक्ष्म भूत और मन तथा बुद्धि सतरह तत्व होते हैं। सतरह तत्वों वाला जीव का यह सूक्ष्म शरीर जन्म मरण आदि में जीव के साथ रहता है। इसी सूक्ष्म शरीर से जीव मुक्ति में सुख को भोगता है।
स्वर्ग सुख विशेष को कहा जाता है। दुःख विशेष का नाम नरक है। स्वर्ग व नरक दोनों पृथिवी पर ही हैं इससे भिन्न किसी अन्य पृथक स्थान विशेष पर नहीं हैं। सांसारिक सुखों का मिलना सामान्य स्वर्ग और परमेश्वर की प्राप्ति से जो आनन्द मिलता है वह विशेष स्वर्ग कहा जाता है। यह भी जानने योग्य है कि जीव स्वभाव से सुख को प्राप्त करना, दुःखों से दूर रहना व उनका वियोग चाहता है। जीव को सदा सुख नहीं मिलता, इसका कारण यह है कि जब तक जीव अपने सभी कर्मों को पुण्य कर्म के रूप में नहीं करते और सभी पाप कर्मों का त्याग नहीं करते तब तक उनको पूर्ण सुख की प्राप्ति नहीं होती।
जीवात्मा की मुक्ति वा मोक्ष तथा बन्ध किन-किन बातों से होता है? इसका उत्तर है कि इस सृष्टि में विद्यमान जगत के नियन्ता ईश्वर की आज्ञा को पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, अविद्या, पक्षपात रहित न्यायधर्म की वृद्धि करने, परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना, उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने-पढ़ाने, धर्म से पुरुषार्थ करने आदि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वर की आज्ञा भंग करने आदि कामों से जन्म व मरण का बन्धन होता है। मुक्ति होने पर जीव ब्रह्म अर्थात् सर्वव्यापक ईश्वर व उसके सान्निध्य में रहता है। मुक्ति में जीव बिना रुकावट के ईश्वर में रहकर आनन्दपूर्वक स्वतन्त्र जगत व लोक-लोकान्तरों में विचरता है। मुक्ति में जीव का स्थूल शरीर नहीं रहता। बिना शरीर के जीव के होने पर भी उसमें अपने सत्य-संकल्प आदि स्वाभाविक गुण-सामथ्र्य सब रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, जब स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु, स्वाद के लिए रसना, गंध के लिए घ्राण, संकल्प व विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिए बुद्धि, स्मरण करने के लिए चित्त और अहंकार के लिए अहंकाररूप अपनी स्वशक्ति से जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है। मुक्ति में जीवात्मा का संकल्पमात्र शरीर होता है जिससे मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है। मुक्ति में जीव के पास 24 प्रकार की सामथ्र्य होती है। यह सामथ्र्य हैं बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भीषण, विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संयोग, विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, स्वादन, गंध ग्रहण तथा ज्ञान। इस सामर्थ्य से जीव मुक्ति में आनंद और भोगों को भोगता है।
यह भी जानने योग्य है कि दुःख का कारण जन्म है अर्थात् जब तक आवागमन अर्थात् जन्म व मृत्यु का क्रम चलता रहेगा तब तक जीव के साथ दुःख भी लगा रहेगा। जन्म का कारण प्रवृत्ति अर्थात् सकाम कर्म हैं। प्रवृत्ति का कारण राग व द्वेष नाम के दोष हैं। राग व द्वेष का कारण मिथ्या ज्ञान वा अविद्या है। इन छः दोषों के उत्तरोत्तर छूटने से मुक्ति होती है अर्थात् अविद्या के छूटने से दोष छूट जाते हैं, दोष के छूट जाने से प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है, प्रवृत्ति के हटने से जन्म व मरण छूट जाते व सभी दुःखों की निवृत्ति होती है अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है। यह सुविचारित तथ्य है कि जीव का सामर्थ्य शरीर आदि पदार्थ और साधन परिमित हैं अतः इनका फल अनन्त नहीं हो सकता। यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि जीव के पास अनन्त आनन्द भोगने की असीम सामर्थ्य और साधन नहीं हैं। इसलिये वह अनन्त सुख नहीं भोग सकते। मुक्ति के चार साधन होते हैं, वह हैं विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व अर्थात् मुक्ति की चाह व उससे लगाव। षट्क सम्पत्ति में शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा तथा समाधान आते हैं। शम में आत्मा और अन्तःकरण को अधर्म के आचरण से हटाकर धर्म के आचरण में प्रवृत्त रखा जाता है। दम के अन्तर्गत श्रोत्र आदि इन्द्रियों और शरीर को व्यभिचार आदि बुरे कर्मों को हटाकर जितेन्द्रियत्व आदि शुभ कर्मों में प्रवृत्त रखना होता है। उपरति में दुष्ट कर्म करने वाले पुरुषों से सदा दूर रहना होता है। तितिक्षा में निन्दा, स्तुति, हानि-लाभ कितना ही क्यों न हो परन्तु हर्ष-शोक को छोड़ सदा मुक्ति के साधनों में लगे रहना होता है। श्रद्धा में वेद आदि सत्य शास्त्र और इनके बोध से पूर्ण आप्त विद्वान् सत्य उपदेष्टाओं के वचनों पर विश्वास करना होता है। समाधान चित्त की एकाग्रता को कहते हैं। यह एकाग्रता बनानी होती है। मुमुक्षुत्व का अर्थ मुक्ति वा मोक्ष में प्रीति होना है। जैसे भूख प्यास वाले को सिवाय अन्न जल के दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता वैसे मुक्ति के साधन के अतिरिक्त मुमुक्षु को किसी अन्य पदार्थ में प्रीति नहीं होती।
हमने इस लेख में वैदिक धर्म के अन्र्तगत जीवात्मा के प्रमुख लक्ष्य मुक्ति व मोक्ष की चर्चा की है। इसका आधार ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास है। पाठकों को सत्यार्थप्रकाश पढ़कर अपना ज्ञान बढ़ाना चाहिये। हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठक लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।