
अपने हीं अक्स से घबराता हूँ ,
प्यार किसी से करता हूँ ,
क्या प्यार उसी से करता हूँ ?
अपने अन्दर के विद्रूप से डरता हूँ ।
जीवन की उलझी राहों में ,
ख़ुद के सवालों से घिरता हूँ ,
अपनी सोच , अपने आदर्शों के
पालन से जी चुराता हूँ ,
अपने अन्दर के विद्रूप से डरता हूँ । ।
विप्लव् जी,
माफी चाहता हू्ँ,
यहाँ भाव बिखरॆ हुऎ सॆ लगतॆ हैं, ज़रा सॊच कॆ दॆखियॆ कि क्या सच मॆ प्यार मॆ ऐसी फीलिंग जन्म लॆ सकती है? यॆ ऎक भटकी हुई सी साधारन रचना प्रतीत हॊती है, आप इससॆ काफी अच्छा लिख सकतॆ हैं.
दीपक ‘मशाल’