~~ केल्टिक भाषा का ह्रास क्यों हुआ?
~~ अपने हाथों, अपने पैरों में शृंखलाएं डालिए ।
~~ ६५ वर्षों से पिंजरा खुला, पर पंछी उड़ता नहीं है।
~~ माई-बाप सरकार वापस बुलाओ !
~~ जब तक अंग्रेज़ी रहेगी, भारत पिछड़ा रहेगा।
~~ संस्कृति और भाषा: फूल और सुगंध
~~भाषा विज्ञानी शेल्डन पॉलॉक का, पाणिनि अनुकरण
(१) बिस्मार्क कहते हैं, कि “मूर्ख अपने निजी अनुभव से सीखते हैं। मैं दूसरों के अनुभव से सीखना, पसंद करता हूँ।”
Fools learn from experience. I prefer to learn from the experience of others.—Otto Von Bismarck
दूसरों के अनुभव से सीखना, इतिहास से, सीखने बराबर है, ऐसा अर्थ करता हूँ, इस लिए ही, हिंदी हितैषियों के चिन्तनार्थ , केल्टिक भाषा ह्रास का इतिहास प्रस्तुत हैं।
इस इतिहास से हम हिन्दी हितैषियों को, क्या करने से भाषा चिरजीवी हो सकती है, और क्या करने से उसका र्हास हो सकता है, इसके कुछ संकेत निश्चित मिल पाएंगे; ऐसा दृढ़ विश्वास है। अनुरोध है, ध्यान देकर धीरे धीरे आत्मसात करें।
(२) केल्टिक भाषा का ह्रास क्यों हुआ?
देवेन्द्रनाथ शर्मा अपनी “भाषा विज्ञान की भूमिका” नामक पाठ्य पुस्तक में, १४५-१४६ वें पृष्ठ पर केल्टिक भाषा के र्हास का संक्षिप्त इतिहास लिखते हैं। कहते हैं, कि,
केल्टिक भाषा के र्हास का कारण: उसके शब्दों में अत्यधिक परिवर्तन का होना । जिस के कारण, “भाषाविज्ञान की दृष्टि से केल्टिक भाषाएँ सबसे कठिन और अस्पष्ट हो चुकी थी। केल्टिक भाषाओं के शब्दों में इतना परिवर्तन हो गया कि उन्हें पहचानना भी मुश्किल होता है।” आगे कहते हैं, कि “उन परिवर्तनों के आधार पर ध्वनि प्रक्रिया-संबंधी नियमों का निर्माण भी टेढी़ खीर है।” “वाक्य रचना की दृष्टिसे भी इस शाखा की भाषाएँ अत्यधिक जटिल है।”
(३) हमारे लिए पाठ
हमारे लिए पाठ, स्पष्ट है; कि, अत्यधिक उधारी भाषा को खिचडी बना देती है। (संदर्भ खिचडी भाषा अंग्रेज़ी) और, ऐसा हिन्दी का खिचडी परिवर्तन, केल्टिक भाषा की तरह, हिन्दी का भी ह्रास करवा देगा। खिचडी ऐसी कि, शतकों बीतने पर भाषा पहचानी भी नहीं जाएगी। हिन्दी को मारने का यह राम बाण उपाय है।
(४) पागल है हम।
एक ओर हमने अंग्रेज़ी को हिन्दी से समानता देकर विभूषित किया है। और दूसरी ओर हमारा संचार माध्यम अंग्रेज़ी शब्दों को हिन्दी में धड़ल्ले से प्रयोजा करता है। स्वतन्त्र भारत की संसद में अंग्रेज़ी के गुलाम अंग्रेज़ी का प्रयोग करने में शरमाते नहीं है। नए चुने हुए राष्ट्रपति को, प्रधान मंत्री को, वित्त मंत्री इत्यादि को हिन्दी में बोलते सुना-या देखा नहीं है।
(गलत हूँ, तो बताएं, उपकृत करें) अपने हाथों, अपने पैरों में श्रृंखलाएं डालना, हमें भली प्रकार आता है। और, उन शृंखलाओं पर हमें गर्व है, गौरव है। ६५ वर्षों से पिंजरा खुला है, पर पंछी उडना नहीं चाहता।
(५) माई-बाप सरकार वापस बुलाओ !
जाओ ! जाओ ! अंग्रेज़ माई-बाप सरकार को वापस बुलाके लाओ। कहो कि, माई-बाप आप कृपया वापस आ जाओ, हम पर राज करो। हम स्वतंत्र बनने के योग्य ही नहीं है।
एक ऑस्ट्रेलियन विद्वान को पूछा गया, कि अफ्रिका क्यों पिछडा है? उसने उत्तर दिया, क्यों कि अफ्रिका का शासन, कानून, न्याय इत्यादि परदेशी अंग्रेज़ी भाषा में होता है। यह जब तक होता रहेगा, तब तक अफ्रिका पिछडा रहेगा। विकास से वहां जनता अछूती है।
आप बताइए, आम भारतीय क्यों पिछडा है? केवल अंग्रेज़ी पढा क्यों आगे बढा है; रिश्वत खानेवाला आगे क्यों बढा है; काला बाजारी क्यों आगे बढा है, चाटुकार चम्मच क्यों आगे बढा है?
(६) तो क्या पिछडे़ भारत को ऐसे आगे बढाना है?
एक पढे लिखे ने उत्तर दिया, कि क्यों न सभी भारतीयों को अंग्रेज़ी पढा पढा कर हमारी तरह परदेश में नौकरी के लिए भेजा जाए। सभी उन्नति कर लेंगे। सभी आगे बढ जाएंगे।
वाह वाह वाह ! उन्नति का ऐसा तरिका पारितोषिक के लिए सर्वोचित है।
अरे मूरखों, कब पता चलेगा कि आप (हम- मैं ) मूरख हैं? कुछ वृद्ध जन पगला गए हैं, तो नेता बन गए हैं। गोरी चमडी के गुलाम बनकर।
पानी में डूबी मछलियां जैसे जानती नहीं है, कि मलयगिरि का शुद्ध सुगंधित पवन कैसा होता है?
इन अंग्रेज़ी पानी में तैरती मछलियों को भी पता नहीं है, कि स्वतन्त्रता क्या होती है?
गुलामी का एक लाभ है, कि गुलामी में सोचना कम पडता है, क्यों कि सारे निर्णय मालिक करता है। बडा लाभ है।
(७) एक पगड़ीवाला सरदार
एक पगडीवाले सरदार जी, उस बिना पगडी वाली अध-नंगी धोती से, कुछ सीखे।
क्यों उसने एकमुखी तानाशाही की बात की होगी?क्यों उसने कहा होगा, कि एक रात में परदेशी अंग्रेज़ी द्वारा छात्रों की शिक्षा रुकवा देता? पाठ्य पुस्तकों की राह भी ना देखता।
क्यों कि, उसे पता था, कि, भाषा पहले होती है, फिर पाठ्य पुस्तकें बाद में आती है। कहीं इतिहास में आपने देखा कि, पहले पाठ्य पुस्तकें बन चुकी, और बाद में भाषा जन्मी?
(८) हिन्दी में अंग्रेज़ी से, उधार लेकर सस्ता सुधार
मूरखों, हिन्दी में अंग्रेज़ी से, उधार लेकर सस्ता सुधार करो। अंग्रेज़ी के, विरोधकों को दकियानुसी कहकर गालियां दो। और, अंग्रेज़ी और अन्य भाषाओं के शब्दों से, उधारी ले कर भाषा में ऐसा परिवर्तन ला दो, कि भाषा की पहचान ही बदल जाएं। फिर आने वाली पीढियां हमारे विचार, हमारा सांस्कृतिक बोध, हमारी पहचान ही भूल जाएं। वह जीवित रहें, किसी पशु जैसे; आहार, निद्रा, भय, और मैथुन मस्त हो कर।
(९)भाषा और संस्कृति : एक फूल और उसकी सुगंध
हाँ, भाषा और संस्कृति, का सम्बंध प्रायः एक फूल और उसकी सुगंध जैसा है। फूल को मारकर सुगंध जीवित नहीं रह सकती। भाषा को मारकर संस्कृति जीवित नहीं रहेगी। संस्कृत को मारकर आध्यामिकता मर जाएगी; हिन्दी को मारकर भारतीयता।
भारत का सभी मौलिक आध्यात्मिक साहित्य संस्कृत में हैं। और भारत की राष्ट्रीयता, उसकी एकता का तना मैं हिन्दी में मानता हूँ। यह कुछ स्थूल संबंध अवश्य है, पर इससे अलग होकर नया संबंध खडा करना बहुत कठिन है। मैं एक गुजराती भी इसी हिन्दी में ही आप सभी से वार्तालाप कर सकता हूँ। संस्कृत के माध्यम से हिन्दी सीखा होने से उसका उपयोग ही अहिन्दी भाषियों का आश्रय स्थान है; उत्तर भारतीय को यह समझने में कठिनाइ होती है, जानता हूँ।
गांधी जी ने जब अंग्रेजों को भी हिन्दी सीखने का उपदेश दे डाला था, तो क्या कारण रहा होगा? पर शायद, यह सब, जडवादी-भौतिक विचार प्रणालियों के लिए यह कोई अर्थ नहीं रखता। वें आहार निद्रा भय और मैथुन में मस्त रहेंगे।
इस विषय पर, आमूलाग्र तर्कशुद्ध, और समय पर, चेतावनी देने वाला “भाषा और संस्कृति” नामक -विश्वमोहन तिवारी जी निम्न लेख अवश्य पढें। कड़ीदेता हूँ।
https://www.pravakta.com/language-and-culture
(१०) भाषा में परिवर्तन
जानता हूँ, कि भाषा में परिवर्तन होता रहता है। पर परिवर्तन परिमार्जन की दिशामें भी हो सकता है, और विकृतिकरण की दिशा में भी। विकृतिकरण से बचना है, परिमार्जित भाषा विकास अवश्य स्वीकार्य है। भाषा के विकास में एकसूत्रता होनी चाहिए, जिसके आधारपर भाषा का विकास किया जा सकता है। भाषा को वर्तमान में रहते हुए, भूतकाल और भविष्यकाल दोनों से भी जोडना है। हम हमारे पुरखें जो कह गए, उसे भी पढना चाहते हैं। और हम जो कहेंगे वह हमारी बादकी पीढीयां भी पढ सके, यह चाहते हैं।
“परम्परा” शब्द में, दो बार पर आया है। एक हमसे “परे” “पर”दादा “पर”नाना
और दूसरी ओर हमारे प्रपौत्र (परपौत्र)। दोनो के बीचकी कडि हम हैं। हम दोनो के साथ संवाद कर पाएं, यह आवश्यक है। इस लिए “एकसूत्रता” चाहिए। खिचडी अंग्रेज़ी का अनुकरण कर हम अपनी भाषा को बिगाडे़ क्यों ?
(११) भाषा विज्ञानी शेल्डन पॉलॉक का, पाणिनि अनुकरण
अभी अभी आयोजित WAVES की ३ दिन की कॉन्फ़ेरेन्स में सुना, कि, भाषाविज्ञानी विज्ञानी शेल्डन पॉलॉक ने पाणिनि की अष्टाधायी से प्रभावित हो कर, अंग्रेज़ी के लिए अष्टाध्यायी जैसा व्याकरण बनाने की सोची है। मैं ने पहले आप को व्यास ह्युस्टन की अमरिकन संस्कृत इन्स्टिट्यूट के विषय में बताया था।
पाणिनि की अष्टाध्यायी से निर्देश लेकर, अमरिका भी अंग्रेज़ी को व्याकरण बद्ध करना चाहता है।
कोलम्बिया युनिवर्सीटी के, प्रो. शेल्डन पॉलॉक ने भारत में अंग्रेज़ी राज की कालावधि में, संस्कृत के र्हास का अध्ययन किया था। उनके प्रकल्प का नाम “संस्कृत ज्ञान प्रणाली प्रकल्प” था।
वे कहते हैं, कि संस्कृत की मानक गुणवत्ता, और परिमार्जित परिष्कृत शुद्ध भाषा होने का गुण ही कारण था , कि, वह, १८ वी शताब्दि में भी, भारत में, प्रचंड बौद्धिक प्रवृत्ति को प्रोत्साहित कर पायी थी।
उन्होंने पाणिनि की अष्टाध्यायी का अनुसरण कर, अंग्रेज़ी को भी संस्कृत की भाँति परिशुद्ध और मानकीकृत करने की सोची है। पाणिनि के व्याकरण से यहां के जानकार विद्वान चकाचौंध है।
और हम पाणिनि की धरोहर वाले उसी को भूलकर अंग्रेज़ी के पीछे भाग भाग, मुठ्ठीभर अंग्रेज़ी शिक्षितों का कल्याण कर रहें हैं। गुलाम मछलियां ६५ वर्षों से पानी में तैरकर खुली राष्ट्रीय हवा का शुद्ध वातावरण भूल चुकी है।इससे अधिक घोर विडम्बना क्या हो सकती है?
पाणिनि नें जिस सावधानी का, सतर्कता का, और दूरगामी-अंगोपांगों की सूक्ष्म सोच का, प्रत्यक्ष
जीवन्त उदाहरण प्रस्तुत किया था, वह हमारी थाती है। पाणिनि की प्रतिबद्धता और समर्पण, हमारा
आदर्श है। हिंदी में सुधार करने वाले इस से लाभ उठाएं। आप किसी के नौकर नहीं है। पर भाषा भारती के भक्त हैं, कटिबद्ध होकर सेवा करने वाले सेवक हैं, किसी भी क्षुद्रता से प्रेरित नहीं है।
(१२) संस्कृत के वृक्ष से शब्दों के फूल प्रस्फुटित होते हैं,
संस्कृत धातु के, वृक्ष की डालियों पर, नए फूल समान, शब्द प्रस्फुटित हो कर, नये नये शब्द, अन्य शब्दों से संवाद रचते हुए, अवतरित होते हैं। ऐसा शब्द अवतरण कहाँ? और अंग्रेज़ी से भीख माँग कर लाकर, डाली पर कृत्रिमता से चिपकाया हुआ शब्द कहाँ? (कोइ पूरा लेख लिखकर यह बिंदू स्पष्ट करूंगा)
और ध्यान रहें, कि, तमिल से लेकर नेपाली तक सभी भाषाओं में, संस्कृत शब्दावली तत्सम और तद्बव रूप में, घुल मिल जाती है, जैसे दूध में शक्कर। जो भारत की एकता दृढ़ करने में भी काम देगी। शुद्ध संस्कृत शब्द तत्सम( उस जैसे) कहाते हैं।जब प्रादेशिक भाषाओं में पहुंचते है, कभी कभी उच्चारण बदल कर तद्भव (उस से उपजे) कहलाते हैं।
(१३) पारिभाषिक शब्दावलि सभी की समान
पर, पारिभाषिक शब्दावलि बिना अपवाद सभी की समान और संस्कृत जन्य ही होगी। यह शतियों से चली आती परम्परा है। जो मानक भाषा में, शासन में, विज्ञान में, शास्त्र इत्यादि में प्रायोजित होगी। आगे का विकास भी इसी प्रकार ही हो पाएगा। पारिभाषिक शब्दावलि के लिए, समस्त भारतीय भाषाओं को कोई दूसरा पर्याय नहीं है।यह हमारी एकता का दृढ स्तम्भ भी बन पाएगा।
(१४) क्रान्तिकारी ऐतिहासिक कार्य
हिंदी हितैषि जो हिंदी सुधार में कार्यरत हैं, वे पहले एक गठ्ठन बाँध लें, कि, वे एक ऐसे क्रान्तिकारी ऐतिहासिक कार्य में जुटे हैं, जिसकी प्रतिध्वनि शतकों तक गूंजने वाली है, अनुनाद चिरकाल तक सुनाई देने वाला है। किसी अहरे गहरे नत्थू खैरे का काम नहीं है यह। और, किसी राजनीति, अंधानुकरण या चाटुकारिता से प्रेरित होकर ऐसा काम करना,राष्ट्र-द्रोह से, कम नहीं माना जाएगा। आगे लिखा जानेवाला इतिहास, आप के कार्य का मूल्यांकन जब करेगा, तो उस परीक्षा में आप को उत्तीर्ण ही होना है, ऐसे दृढ निश्चय से, और प्रतिज्ञा बद्ध होकर हम यह काम करें, यह आवश्यक ही नहीं, पर अनिवार्य भी है। मेरी बात पर आप विचार अवश्य करें, ना जँचे तो प्रश्न उठाएं, बिना विचारे कूडे में ना फेंक दे।
डॉ. मधुसूदन जी
आपसे विनम्र निवेदन है कि किसी भी लेख की सभी कड़ीयो के link सम्बंधित अन्य कड़ीयो में अवश्य दिया कीजिये …किसी का पहला भाग मिलता है तो अन्य नही मिलते….किसी के अन्य मिलते हैं तो पहला नही मिलता
डा० मधुसुदनजी नमस्कार,
लेख अति उत्तम लगा और ज्ञान वर्धक भी.. मैं अंग्रेजी का काम-चलाऊ ज्ञान रखते हुए खुद भी हिंदी भाषा का घोर समर्थक और अनुयायी हूँ| परन्तु सरकारी कार्यालयों, अपने कार्य स्थल, अपने बच्चों के स्कूलों इत्यादि में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव देख उसका उपयोग करने को बाध्य होता हूँ .. कार्यस्थल पर यदि अंग्रेजी न आती हो to लोगों को हेय दृष्टी से देखा जाता है…ऐसा ही स्कूलों पर लागू होता है.. समाज में अगर बच्चे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हैं तो अच्छे और हिंदी को कमतर मन जाता है… चाहे हमारे बच्चे अपनी आसान माँतृभाषा के बजाये दूसरी भाषा का बोझ अपने कोमल मन पर ढोने को मजबूर होते हैं…
कृपया उपाए बताये .. किस प्रकार अपने बच्चों को जीविका प्रदान करने वाली हिंदी भाषी स्कूलों में भेज जाये.. कहाँ से उन स्कूलों का चयन किया जाये जो हैं ही नहीं.. सरकारी स्कूलों की हालत आज छिपी नहीं है… उनमे जाने से तो अच्छा घर पर बैठना ही है…
लेख अच्छा लगा.. कृपया इस स्थिति से उबरने के लिए क्रमबद्ध उपाए भी सुझाएँ तो समाज और हमारा कुछ लाभ हो पायेगा और हिंदी अपना विकास मार्ग पुनः पकड़ सकेगी.
धन्यवाद
अवश्य। १५ जुलाई तक प्रतीक्षा कीजिए। समस्या सार्वजनिेक है। हल भी वैयक्तिक नहीं हो सकता।
वे कहते हैं, कि संस्कृत की मानक गुणवत्ता, और परिमार्जित परिष्कृत शुद्ध भाषा होने का गुण ही कारण था , कि, वह, १८ वी शताब्दि में भी, भारत में, प्रचंड बौद्धिक प्रवृत्ति को प्रोत्साहित कर पायी थी।
आदरणीय मधुसूदन जी का लेख सोए हुए भारतीयों को झकझोर कर जगाने वाला है।
उसी प्रकार से आदरणीय विश्वमोहन तिवारी जी के लेख और कार्य भी निरन्तर इसी दिशा में
प्रयत्नशील हैं। भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार तथा भारतीय-संस्कृति की सुरक्षा हेतु इन दोनों मनीषियों के प्रयत्न सार्थक और सराहनीय हैं,किन्तु इनके साथ हम सभी भारतीयों का दृढ़-संकल्प और सहयोग भी आवश्यक है।
लेख ज्ञानवर्धक और प्रेरणाप्रद है। सभी तथ्य तर्कसंगत हैं , जो दिशानिर्देश करते हैं।
अच्छा लेख है
~ जब तक अंग्रेज़ी रहेगी, भारत पिछड़ा रहेगा।
~~ संस्कृति और भाषा: फूल और सुगंध हैं
~संस्कृत का अनुकरण करें
उधारी भाषा से अपनी भाषा की खिचडी नहीं बनाये
खिचडी के भी प्रकार्र हैं- यदि सरल झिन्दी लिखते हैं तो पूरा पाठ वैसा हे लिखें
यदि संस्कृत निष्ठ्लिखते तो उसमे उर्दू के शब्द न मिलावें
संचार माध्यम में अंग्रेज़ी शब्दों को हिन्दी में धड़ल्ले से प्रयोग नहीं होना चाहिए
संस्कृत को मारकर आध्यामिकता मर जाए jo हमरा राष्ट्रीयता है
पारिभाषिक शब्दावलि बिना अपवाद सभी की समान और संस्कृत जन्य ही होगी। जो मानक भाषा में, शासन में, विज्ञान में, शास्त्र इत्यादि में प्रायोजित होगी।
हिंदी हितैषि जो हिंदी सुधार में कार्यरत हैं, वे पहले एक गठ्ठन बाँध लें, कि आप प्रादेशिक भाषाओँ के खिलाफ ना बोलें- भारत की सभी भाषाए राष्ट्र भाषाएं हैं .
बहुत ही ज्ञानवर्द्धक लेख
हम लोग दृढ निश्चय के साथ ही आगे बढ़ेंगे| इसमें वर्षों लगेंगे| हो सकता है कि दशक भी लगें पर हम धैर्य नहीं खोएंगे| हम उत्तीर्ण होंगे, अवश्य
प्रोफेसर मधुसुदन जी के लेखो को पड़ती रहती हूँ और उनके द्वारा अवगत कराने पर विश्व मोहन जी के लेख को पढ़ा | ज्ञान वर्धक लेख के सात ही साथ मुझे तो लगता है आप लोगो जैसे बुद्धीजीवी लोग ,लेखो और उनपर चर्चा के माध्यम से हिन्दी और हिदुस्तान की सनातन संस्कृति की बहुत बड़ी सेवा कर रहे है और हम सब के लिए एक नया मार्ग प्रसस्त केर रहे है |
सम्मान्य तिवारी जी, राजेश जी आप दोनों के शब्द मेरा पारितोषिक है। त्रुटियाँ भी दिखाते रहें।
राजेश जी सही कह रहें हैं। कारण हमारी मानसिकता समन्वय-वादी है, इसी से हम आत्मसंमोहित (Self hypnotized) हैं, इस लिए हमारी भाँति उन्हें, समन्वय वादी मानते हैं।
पर उन्हों ने हमारे संपर्क से पहले समन्वयवादी संस्कृति देखी नहीं है।
उन की परम्परित वृत्ति वर्चस्ववादी है। वे वर्चस्व वादी धारणा से आत्म सम्मोहित हैं; इस लिए हमें उन्हीं की भाँति वर्चस्ववादी मानते हैं।उनके आज तक के अनुभवमें उन्होंने कोई समन्वयवादी विचारधारा देखी नहीं है।
ऐसे दोनो ओर ऐसे परस्पर विपरित आत्म संमोहन के कारण,हम अचेत, बेसुध है।
और वें सचेत होकर सारे भारत पर अनेक विध प्रकारों से टूट पडे़ हैं।
उनका साथी है, हमारा भाडे़का टट्टू, कठ पुतली, भ्रष्ट शासन। जिसे चुनाव जीतकर देश बेचने में अपराध बोध नहीं होता।
बहुसंख्य जनता बिचारी रोटी-रोजी में व्यस्त है। बिका हुआ समाचार तन्त्र-और वोट बॅन्क?
भारत, भारतीय संस्कृति व हिंदी भाषा के लिए जो गहरा अपनत्व व लगाव; जो पीड़ा प्रो. मधुसुदन जी के लेख में प्रकट हो रही है, उसका कुछ अंश भारतीयों के मन में समा जाए तो इन १२० करोड़ भारतीयों को चूजे और मेमने के आकार के देश कहाँ लूट पायेंगे. हम में इस अपनत्व के अभाव और आत्म विस्मृति के कारण ही पिद्दी- पिद्दी देश भारत पर हावी होते जा रहे हैं. वरना अनैतिक उपायों से, षड्यंत्र से लूटी विश्व भर की अपार संपदा के इलावा उनके पास और क्या है ? उसी के दम पर अपनी धौंस थोंपते रहते हैं. वास्तव में तो इन तथाकथित विकसित देशों के पास मानवीय मूल्य और सभ्यता के नाम पर आज भी कुछ खास है नहीं. जो है भी वह भी उधार का. वास्तव में ये देश दानवी अचार-विचार के पुरोधा और भारत दैवीय विचार का पुरोधा और प्रणेता है. इन दानवों के कल्याण के लिए भी हम ही को कार्य करना है. पर अभी तो हम स्वयं ही इस सत्य से अनभिग्य है. एक बार इस सत्य का साक्षात्कार हुआ तो अपनी भाषा, संस्कृति, समाज की रक्षा के साथ साथ विनाश के गर्त में गिरते-गिराते पश्चिम की रक्षा भी हम कर सकेंगे. प्रो. मधुसुदन जी और श्री विश्वमोहन तिवारी जैसे विद्वानों के ये प्रयास सोये भारत को जघने की प्रक्रिया में शक्तिशाली उत्प्रेरक सिद्ध हो रहे हैं, इसमें संदेह नहीं.