न्यायपालिका और सरकार में टकराव उचित नहीं

1
219

All India conference of the central Administrative Tribunal
प्रमोद भार्गव
केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच एक बार फिर जजों की नियुक्तियों को लेकर टकराव सतह पर आया है। इस बार सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष टीएस ठाकुर ने न्यायालयीन ट्रिब्यूनलों की खस्ताहाल स्थिति को भी उजागार किया है। अखिल भारतीय केंद्रीय प्रशासनिक पंचाट के इसी कार्यक्रम में उपस्थित विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने प्रधान न्यायाधीष की मांगों पर ससम्मान असहमति जताकर इस तकरार को और बढ़ा दिया है। दूसरी तरफ महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने एक अन्य कार्यक्रम में न्यायपालिका को लक्ष्मण रेखा की याद दिला दी। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका सहित सभी संस्थाओं को अपनी लक्ष्मण रेखा में रहना चाहिए। जितनी ज्यादा शक्ति आपके पास है, उतना ही ज्यादा आपको आत्मावलोकन की जरूरत है। इसके जबाव में ठाकुर ने कहा कि सरकार के किसी भी अंग को लक्ष्मण रेखा पार नहीं करना चाहिए। यह निगरानी करना न्यायपालिका का अधिकार है कि कोई भी संस्था सीमापार न करे। संसद में पारित कोई कानून अगर संविधान की मूल भावना के विपरीत है तो न्यालय उसे रद्द कर सकता है। इसके जबाव में रविशंकर प्रसाद ने कहा कि अदालतें सरकार के फैसले और कानून को खारिज कर सकती हैं, लेकिन प्रशासनिक दायित्व चुनी हुई सरकार के पास ही रहना चाहिए। इन सवाल-जबावों को पढ़-सुनकर ऐसा लगता है कि यह टकराव संस्थाओं की कमियों में सुधार के बहाने अहम् के टकराव में बदलता जा रहा है। दरअसल संविधान दिवस जैसे महत्वपूर्ण दिन को संपन्न हुए सार्वजनिक कार्यक्रम में ऐसी बातें कतई उभरकर सामने नहीं आनी चाहिए, जिनसे साक्षात्कार होने पर जनता को लगे कि लोकतंत्र के स्तंभ आपस में ही टकराकर अपनी गरिमा खो रहे हैं।
टीएस ठाकुर मंचों से उच्च न्यायालयों में जजों की कमी को लगातार दोहरा रहे हैं। उन्होंने 500 जजों की कमी गिनाई हैं। इस कारण अदालतों के कक्ष खाली है और प्रकरण व प्रस्ताव लंबित है। इस बार जस्टिस ठाकुर ने ट्रिब्यूनलों में भी जजों, कर्मचारियों और बुनियादी सुविधाओं की कमी जता दी। इन वजहों से पंचाटों में पांच से सात साल तक मामले लंबित चल रहे है। इन मांगों और कमियों पर रविशंकर प्रसाद ने माननीय न्यायाधीष से सम्मानपूर्वक मतांतर प्रकट कर दिया। प्रसाद ने दावा किया कि इसी साल 120 जजों की नियुक्तियां की गई हैं, जो 1990 के बाद सबसे बड़ी संख्या में की गई दूसरी नियुक्तियां हैं। इसके पहले 2013 में 121 जज नियुक्त किए गए थे। इस दौरान औसतन वार्षिक महज 80 जजों की नियुक्तियां हुई हैं। इस तकरार पर तार्किक तथ्य प्रकट करते हुए प्रसाद ने कहा कि निचली अदालतों में पांच हजार पद खाली हैं। इन नियुक्तियों में भारत सरकार की कोई भूमिका नहीं है। न्यायपालिका को ही ये रिक्त पद भरने हैं। प्रसाद ने कहा कि जहां तक बुनियादी ढांचे का सवाल है तो यह एक सतत प्रक्रिया है। जजों की नियुक्तियों का जो बड़ा मुद्दा है, उस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि ‘मेमोरेंडम आॅफ प्रोसिजर ज्यादा पारदर्षी, लक्ष्यपरक, तार्किक तथा निश्पक्ष हो। इस सिलसिले में सरकार का स्पष्टीकरण पिछले तीन महीने से लंबित है, इसकी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है।
इन प्रश्नोंत्तरों के दौरान टकराव के हालात इतने तल्ख रहे कि कार्यपालिका और न्यायपालिका में सुधार कैसे हों, यह प्रश्न नदारद ही रहा। कार्यपालिका में निसंदेह असंख्य कमियां और बाहरी दखल हैं, लेकिन न्यायालय जजों की कमी छोड़ दें तो वह बाहरी हस्तक्षेप से सर्वथा मुक्त हैं। बावजूद अदालतें अपने स्तर पर सुधार की दिशा में आगे नहीं बढ़ रही हैं। इसी कारण अदालतें जनता की अपेक्षा पर खरी नहीं उतर रही हैं। इधर कुछ समय से लोगों के मन में यह भ्रम भी पैठ कर गया है कि न्यायपालिका से डंडा चलवाकर विधायिका और कार्यपालिका से छोटे से छोटा काम भी कराया जा सकता है। इस कारण न्यायालयों में जनहित याचिकाएं बढ़ रही हैं,जो न्यायालय के बुनियादी कामों को प्रभावित कर रही हैं। न्यायालयों के लिए यह कतई उचित नहीं है कि वे जनहित याचिकाओं के आधार पर यह तय करें कि चुटकुलों का रचना विधान कैसा हो, समलैंगिकों के अधिकार क्या हों ? नोटबंदी के मामले से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने यहां तक कह दिया कि इस निर्णय से गली-मौहल्लों में दंगे हो सकते हैं। इस टिप्पणी में प्रच्छन्न अर्थ यह भी अर्थ निकलता है कि यह वाक्य कहीं दंगों को उकसाने का काम न कर दे ? साफ है, ये टिप्पणियां समझ से परे हैं। शायद इसीलिए मुकुल रोहतोगी ने न्यायपालिका सहित सभी संस्थाओं को लक्ष्मण रेखा नहीं लांघने की याद दिलाई है। अदालतों ने याचिकाओं के माध्यम से प्रदूशण, यातायात, पर्यावरण और पानी जैसे मुद्दों में भी दखल दिया, लेकिन इन क्षेत्रों में बेहतर स्थिति नहीं बनी।
न्यायिक सिद्धांत का तकाजा तो यही है कि एक तो सजा मिलने से पहले किसी को अपराधी न माना जाए,दूसरे आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला एक तय समय-सीमा में हो जाए। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। इसकी एक वजह न्यायालय और न्यायाधीषों की कमी जरूर है,लेकिन यह आंशिक सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं है। मुकदमों को लंबा खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्य-संस्कृति भी है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढ़ा ने कहा भी था ‘न्यायाधीष भले ही निर्धारित दिन ही काम करें, लेकिन यदि वे कभी छुट्टी पर जाएं तो पूर्व सूचना अवष्य दें, ताकि उनकी जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।‘ इस तथ्य से यह बात सिद्ध होती है कि सभी अदालतों के न्यायाधीष बिना किसी पूर्व सूचना के आकस्मिक अवकाश पर चले जाते हैं। गोया, मामले की तारीख आगे बढ़ानी पड़ती है। इन्हीं न्यायमूर्ति ने कहा था कि ‘जब अस्पताल 365 दिन चल सकते हैं तो अदालतें क्यों नहीं ?‘ यह बेहद सटीक सवाल था। हमारे यहां अस्पताल ही नहीं,राजस्व और पुलिस विभाग के लोग भी लगभग 365 दिन ही काम करते हैं। किसी आपदा के समय इनका काम और बढ़ जाता है। नोटबंदी के निर्णय के बाद बैंककर्मी दिन और रात काम कर रहे हैं। इनके कामों में विधायिका और खबरपालिका के साथ समाज का दबाव भी रहता है। बावजूद ये लोग दिन-रात कानून के पालन के प्रति सजग रहते हैं। जबकि अदालतों पर कोई अप्रत्यक्ष दबाव नहीं रहता है। अदालतों ने आजादी के बाद से अब तक ऐसा एक भी उदाहरण पेश नहीं किया कि उन्होंने दिन रात अतिरिक्त काम करके लंबित मामले निपटाए हों ?
अदालतों में मुकादमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारों का रवैया भी जिम्मेवार है। वेतन विंसगतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्ष व पारदर्षी नियोक्ता की शर्तें पूरी नहीं करतीं। नतीजतन जो वास्तविक हकदार हैं, उन्हें अदालत की शरण में जाना पड़ता है। कई कर्मचारी सेवानिवृति के बाद भी बकाए के भुगतान के लिए अदालतों में जाते हैं। जबकि इन मामलों को कार्यपालिका अपने स्तर पर निपटा सकती है। हालांकि कर्मचारियों से जुड़े मामलों का सीधा संबंध विचाराधीन कैदियों की तादाद बढ़ाने से नहीं है, लेकिन अदालतों में प्रकरणों की संख्या और काम का बोझ बढ़ाने का काम तो ये मामले करते ही हैं। इसी तरह पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों का विभाग स्तर पर नहीं निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ा रहे हैं। कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इनमें नाजायज कब्जे को वैध ठहराने के उपाय हैं। जबकि जिस व्यक्ति के पास दस्तावेजी साक्ष्य हैं, वह भटकता रहता है। इन विसंगतिपूर्ण धाराओं का विलोपीकरण करके अवैध कब्जों से संबंधित मामलों से निजात पाई जा सकती है। लेकिन नौकरषाही ऐसे कानूनों का वजूद बने रहना चाहती है, क्योंकि इनके बने रहने पर ही इनके रौब-रुतबा और पौ-बारह सुनिश्चित हैं। कारागारों में विचाराधीन कैदियों की बड़ी तादाद होने का एक बड़ा कारण न्यायायिक और राजस्व अदालतों में लेटलतीफी और आपराधिक न्याय प्रक्रिया की असफलता को माना जाता है। लेकिन अदालतें इस हकीकत को न्यायालयों और न्यायाधीशों की कमी का आधार मानकर अकसर नकारती हैं। इसलिए अच्छा है जजों की कमी से अलहदा कारणों की पड़ताल करके उन्हें हल करने के उपाय तलाशे जाएं ?

1 COMMENT

  1. सरकार और न्यायपालिका के बीच थोड़ी असहमति हो तो क्या बुरा है. कल तक न्यायपालिका सरकार की वफादार बनी रहती थी. आज न्यायपालिका किन्ही कारणों से सरकार का वजह बेवजह विरोध करती है. न्यायमूर्ति ठाकुर तो सरकार के विरुद्ध बेहूदे बयान देने से नही चूकते. सरकार न्यायलय में कुछ समूह की मनमानी बन्द कर सिस्टम बहाल करना चाहती है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here