सेल्फी का  बढ़ता उत्साह अथवा लत 

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एस के बरनी

वर्तमान में  मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाले  लोगों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने सेल्फी का नाम ना सुना हो। आज ऐसा कोई शख्स नहीं जिसे सेल्फी से नफरत हो।
पिछले कुछ सालों से सेल्फी का उत्साह निरंतर  बढ़  रहा है। बच्चे हों  या  युवा हों  या  बुजुर्गों  सेल्फी  के प्रति  दिवानगी सभी में काफी तेजी से बढ़ रही है। युवा वर्ग तो सेल्फी का इतना दिवाना हो गया है कि सेल्फी को जब तक  सोशल मीडिया पर अपलोड ना कर दे तब तक उन्हे खुशी ही नहीं होती  है।  आखिरकार ये सेल्फी है क्या ?
सेल्फी शब्द सेल्फ यानी स्वयं  से बना है अर्थात स्वयं का  फोटो खींचना ।
कहा जाता है कि सन 1850 में दुनिया की पहली सेल्फी ली गई थी। इस सेल्फी को स्वीडिश आर्ट फोटोग्राफर ऑस्कर गुस्तेव रेजलेंडर ने लिया था।
किसी अखबार में पहली बार सेल्फी शब्द का इस्तेमाल 13 सितंबर 2002 में किया गया था। ऑस्ट्रेलिया की एक वेबसाइट ने पहली बार इस शब्द का इस्तेमाल किया था।
वर्तमान में सेल्फी शब्द इतना सुविख्यात है कि ओक्स्फोर्ड ने इसे सन 2013 में वर्ड ऑफ द ईयर चुना था ।
एक समय था जब सेल्फी जैसा कोई शब्द नही था न ही फोन में  ऐसा कोई फीचर था जिससे सेल्फी ली जा सके । लेकिन प्रौधौगिकी के विकास के साथ साथ फोन भी आधूनिक हुए और  फोन में वो सब फीचर डाले गये जो व्यक्ति के लिये आवश्यक है । आज स्मार्ट  फोन का इस्तेमाल सिर्फ बात करने के लिये नही किया बल्कि यह हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गया है । और सेकडों कार्य इससे किये जा सकते हैं । स्मार्ट फोन ना हो तो जिंदगी अधूरी लगती है ।  युवा पीढ़ी की तो इसने जिंदगी ही बदल दी है  ।

सेल्फी के प्रभाव

लेकिन हर चीज़ के कुछ  सकारात्मक  अौर नकारात्मक प्रभाव भी होते हैं । जब से स्मार्ट फोन में फ्रंट कैमरा आया है तब से सेल्फी  का क्रेज युवाओं में बढ़ता ही जा रहा है ।  (युवाओं में युवक युवती दोनो शामिल हैं ) ।  सेल्फी क्रेजी युवा अपना ज्यादातर समय इसी पर खर्च कर रहें हैं ।  सेल्फी खींचना आज फैशन हो गया है या   यूँ कहिये कि सेल्फीकरण हो रहा है । सभी वर्ग के लोगों में यह भलीभाँति देखा जा सकता है ।
शोध बताते हैं कि बहुत से युवतिया  तो दिन में कम से कम 48 मिनिट्स से लेकर सप्ताह में पाँच घंटे  तक का समय सेल्फी लेने में गुजारती हैं ।  यह समय इसलिये लगता है क्योंकि वे अच्छी सेल्फी लेने के लिये  मैकअप , सही लाइट और सही एंगल तराशती रहती हैं ।  कुछ महिलाओ का कहना है कि वे सप्ताह में कम से कम एक बारे सेल्फी अवश्य लेती हैं । जबकि अधिकाँश महिलाओं का कहना है कि एक अच्छी सेल्फी उनके मूड को बेहतर बना देती है  और यह भी कहती हैं कि सोशल मीडिया में उनकी तस्वीर को लाइक मिलने से उनका  उत्साह  बढ़ता है  और इसलिये वो ज्यादा से ज्यादा सेल्फी  खींचती हैं ।
हालाँकि महिलायें यह भी कहती हैं कि सोशल मीडिया पर उनकी सेल्फी को पर्याप्त लाइक नही मिलने पर वे कुछ ही देर में अपनी तस्वीर हटा लेती हैं ।
यहाँ ये बात विचार करने योग्य है कि एक सेल्फी का  पता कैसे चले कि वह अच्छी है अथवा बुरी ?   क्या लाइक करना ही एक अच्छी सेल्फी की पहचान है ।  नही  क्योंकि लाइक तो भद्दी, अश्लील और विचित्र तस्वीरों को भी बहुत मिलते है लेकिन वह अच्छी नही होती । और लाइक करने वालों में अधिकाँश लोग अजनबी होते है ।  इसलिये किसी तस्वीर को लाइक करना कोई आधार नही ।
यहाँ एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि व्यक्ति सेल्फी स्वयं के लिये नही बल्कि दूसरों को दिखाने के लिये लेता है या दूसरों की  स्वीकृति  प्राप्त करना चहता है ।  प्रसिद्ध समाजशास्त्री चार्ल्स कूले का कथन बिल्कुल सही है कि  हम दर्पण में स्वयं को अपनी आँखों से नही बल्कि समाज की आँखो से देखते हैं ।  सेल्फी लेते समय हम दूसरे लोगों की नजर से देख रहे होते हैं । इसलिये ही हम आशा लगा लेते हैं कि लोग  मेरी सेल्फी को लाइक करेंगे ।  और जब  पर्याप्त लाइक नही मिलते तो निराशा हो जाती है । इसका प्रभाव यह होता है कि उन महिलाओं  में आत्मविश्वास कम होने लगता है । उन्हे एहसास होने लगता है कि वो खूबसूरत नहीं दिखती  और मानसिक रोग से ग्रस्त होने लगती हैं   कुल मिला कर सारा खेल लाइक का है यदि लाइक ना मिले तो सारी सेल्फी बेकार हैं ।
सेल्फी का जो क्रेज आज देखा जा रहा  है उससे कई मानसिक और सामजिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं ।   यदि कोई गलफ्रेण्ड अथवा बॉयफ्रेण्ड  अपनी दोस्त को फोटो लाइक ना करे तो इसी बात को लेकर झगडा शुरू हो जाता है ।  ना  चाहते हुए भी लड़के को अपनी गल्फ्रेन्ड की सेल्फी लाइक करनी पड़ती है । इससे भ्रम फैलता है ।
वास्तव में सेल्फी  का क्रेज लोगों में इतना बढ़ता जा रहा है कि  इसे रोमांचक और सुंदर बनाने के लिये लोग ये भूल जाते हैं कि वे सेल्फी कहाँ और किस तरह ले रहे हैं ?  समझ नही आता कि लोग  सिर्फ एक सेल्फी की खातिर अपनी जान तक जोखिम में डालने को आतुर हो जाते हैं ।  सेल्फी लेने के चक्कर में  कोई  नदी में  डूब जाता है  पहाड़ से गिर जाता है तो कोई  दुर्घटना से मर जाता है विश्व में सेकडों लोग सेल्फी लेने के चक्कर में अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं ।
दुनिया भर में सेकडों मौतें सेल्फी से होती हैं। चिंतन  वाली बात तो यह है कि इनमें सबसे अधिक मौतें भारत में होती है ।   मौत के आंकड़े को देखते ही मुम्बई पुलिस ने  2016 में कई  पिकनिक स्थानों पर नो सेल्फी जोन्स  बनाये हैं । जाहिर है कि इसका उद्देश्य यही है कि फिर किसी की सेल्फी के चक्कर में जान न जाये । इन सब चीजों को देखते हुए   पिछले नासिक  कुम्भ मेले के दौरान कुछ जगहों पर भी नो सेल्फी जोन्स बनाये गये थे ।  इसके अतिरिक्त सरकार और भी सुरक्षा सम्बन्धी कार्य योजनाएँ  चलाती रहती है । लेकिन  फिर भी सेल्फी का जुनून इस हद तक सवार है कि लोग सरकार का सहयोग करने के बजाय कार्य में विघ्न डालते हैं । अभी हाल ही में एक शरारती लड़के ने  सेल्फी लेने के लिये  राजधानी एक्सप्रेस को लाल कपडा दिखाकर रुकवा लिया और सेल्फी लेने के बाद  भाग गया ।
सेल्फी के शौक ने सेल्फीशनेस को पैदा कर दिया है ।  हम स्वयं में इतने सन्निकट हो गये  हैं कि हमारी समूची आत्मकेन्द्रीयता महज हमारे बहारी आवरण पर आ टिकी है । पहले हमने आध्यात्मिक  ज्ञान को अपना कर  वसुधेव कुटुंबकम माना अर्थात समूची धरा को अपना माना ।  कालांतर में हमारी सोच धीरे धीरे  राष्ट्र ,समाज , परिवार , एकल परिवार और स्वयं तक सिमट गयी है ।  आज तो हम अंधी आधुनिकता की लोलुपता में इतने मशगूल हो गये हैं कि  हमारी सोच सिर्फ और सिर्फ हम तक सिमट गयी है  सेल्फी की  जद में आकर इतने सेल्फिश हुए कि हमारी स्वयं को अच्छा दिखने की चाहत ने , प्रभुप्रदत्त रूप को ही बदलना शुरू कर दिया है । सीधा  सादा चेहरा में  हमें सेल्फी में पसंद ही नही आता ।   सेल्फी ने मुख मुद्राओं से लेकर तमाम मुद्राओं में आमूलचूल  परिवर्तन कर दिया है । हेयर स्टाइल , प्लास्टिक सर्जरी, रंगीन जुल्फें , तथा अन्य तरीके अपनाकर  चहरे पर कुछ बनावटी हँसी भी लाने लगे हैं । यदि ऐसा ही रहा तो सोशल मीडिया छल बन जायेगा , जहाँ प्रत्येक मनुष्य एकांकी हो जायेगा ।
अमेरिकन साइकेट्रिक असोसिएशन के मुताबिक अगर हम दिन में तीन से ज्यादा सेल्फी लेते हैं तो यकीनन हम मानसिक रूप से बीमार हैं  और इस बीमारी को सेल्फिटिस का नाम दिया गया है । इस बीमारी में व्यक्ति पागलपन की हद तक आपनी फोटो लेने लगता है और उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगता है । इस चक्कर में कभी कभी व्यक्ति अपनी जान भी दे देता है ।
त्वचा विशेषज्ञ के मुताबिक चेहरे पर लगातर स्मार्टफोन की लाइट और इलेक्ट्रोमैगनेटिक रेडिएशन से त्वचा को नुकसान पहुँचता है । इससे चेहरे की झुर्रियां भी बढ़ सकती हैं । सेल्फी की  दुर्घटनाएं हमारी जिंदगी में आम होती जा रही है । जल्द ही दुर्घटनाग्रस्त शब्द के स्थान पर “सेल्फीग्रस्त”  शब्द का इस्तेमाल होने लगेगा ।  स्मार्टसिटी से पहले पहुँच चुके स्मार्टफोन ने लोगों को सेल्फीग्रस्त कर दिया है
हमारा सेल्फीकरण हो रहा है । हम जहाँ है वहाँ होने से संतुष्ट नहीं ।  हर समय कुछ नया लम्हा चाहिये  कुछ नहीं होता तो खुद को लम्हे में बदल लेते हैं ।  बस इसी का लाभ  मोबाइल कम्पनियाँ उठा रही है । कम्पनियाँ जानती है कि युवाओं की साइकोलोजी क्या है ?  वो क्या पसंद करते हैं और क्या नहीं ।  कम्पनियाँ  यह भी जानती है कि आजकल फोन आवश्यकतानुसार नहीं बल्कि इच्छानुसार खरीदे जा रहे हैं । लोग मात्र सेल्फी के लिये 50,000  रुपये का फोन खरीदने को तैयार है जबकि उनकी आवश्यकता 8-9 हजार  रुपये के फोन  से भी पूरी हो जायेंगी । इसका पूर्ण लाभ कम्पनियाँ उठा रही है ।  इसलिये ही मोबाइल कम्पनियाँ सेल्फी फीचर पर अत्याधिक जोर दे रही हैं ।  कुछ समय पहले विज्ञापन में फोन के फीचर्स बताये जाते थे आज सिर्फ सेल्फी के फीचर के बारे में बताया जाता है । आज फोन का गुण सेल्फी से ही तय होता है । सेल्फी फीचर को बताने के लिये विशेष विज्ञापन बनाये जा रहे और दीपिका पादुकोण जैसी चर्चित अभिनेत्रियों से विज्ञापन करवाया जा रहा है । कम्पनियों का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ लाभ कमाना है उन्हे इस बात से कोई मतलब नहीं कि इसका सामाजिक प्रभाव क्या पड़ेगा । इसलिये ही मोबाइल  कम्पनियाँ  सारे फीचर्स एक फोन में नहीं डालती । किसी का पिक्सल कम है, किसी के स्क्रीन छोटी है , किसी के रेम कम है तो किसी की रेजोलूशन कम है । हर माह कोई ना कोई नया  फोन थोड़े  बहुत अंतर के साथ   बाजार में लॉन्च हो जाता है ।  यदि उनमे नैतिकता होती तो पहले ही वो ऐसा फोन निकालती जिसमें आवश्यक सारे फीचर्स हो । लेकिन कम्पनी  ऐसा नहीं करती क्योंकि वो जानती है कि  लोगों को नया चाहिये भले ही आवश्यकता न हो  । वह हमारे  इसी मनोविज्ञान का लाभ उठाती है और हम फँस जाते हैं ।
आज सेल्फी  पॉपुलर कल्चर हो गया है  । कई लोगों ने सेल्फी के प्रयोगों को लेकर तरह तरह के  मनोरंजक विडिओ बनाये हैं । हमें कवि बनाती है , हमें जोकर बनाती है ।  सेल्फी हमारी कल्पनाशीलता को प्रेरित करती है ।  कल्पना के कारण ही सेल्फी छडी की खोज की गई  । अभी तक सुना था कि कानून के हाथ लम्बे होते हैं । लेकिन सेल्फी के कारण पता चला कि फोन के हाथ भी लम्बे हो सकते हैं । आज अनेक प्रकार की छड़िया बाजार में उपलब्ध हैं । सेल्फी को लेकर गाने भी बन चुके हैं
सेल्फी का क्रेज बुरा नहीं तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह लत न बन जाये जिससे कि स्वयं को ही खतरा हो जाये ।
हमें विचार करना चाहिये कि सेल्फी का औचित्य क्या है । सेल्फी का कोई प्रयोग तो है नहीं फिर इसके पीछे इतना पागल क्यों हुआ जाए । आप सबके फोन में सेकडों सेल्फियाँ होंगी । कभी  सोचा है कि किस लिये हैं ? कभी आप दोबारा उन्हे देखते भी नहीं , यूँ ही फोन में पड़ी रहती हैं । तो फिर  एक अच्छी सेल्फी  के लिये इनता पागल होना या अपनी जान को जोखिम में डालना कहाँ की समझदारी है ?   इसका ध्यान तो हमें रखना ही होगा । कैमरा हमारे लिये बना है हम कैमरे के लिये नहीं बने । “दिल  को देखो चेहरा न देखो चेहरे ने लाखों को लूटा.  . . ” ये गाना तो आपने सुना ही होगा बस यही बात कहनी है कि ये स्मार्टफोन हमें स्मार्ट बना रहा है या हम इसके लिये स्मार्ट बन रहे हैं ।  इन  सब  बातों पर हमें विचार करना चाहिये । जिंदगी अनमोल है और इसे सेल्फी जैसे क्रेज में ख़त्म करना कोई समझदारी का काम नहीं है । सेल्फी लेने में एक-दो सेकंड लगती हैं लेकिन इमेज बनाने में सालों लग जाती हैं । अत: हमको अपनी इमेज बनाने पर ध्यान देना चाहिये ।

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