मध्यप्रदेश में बढ़ती बेरोजगारी

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संदर्भः श्रम और रोजगार मंत्रालय की सर्वेक्षण रिपोर्ट से हुआ खुलासा

प्रमोद भार्गव

श्रम और रोजगार मंत्रालय की सर्वेक्षण रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि जहां देश के अन्य प्रांतों में बेरोजगारी का प्रतिशत घटा है, वहीं मध्यप्रदेश में बेरोजगारी की दर बढ़ी हैं। संसद में पेश की गई इस रिपोर्ट से पता चला है कि मध्यप्रदेश में बेरोजगारी बढ़ने के साथ केंद्रीय योजनाओं पर भी कारगार अमल नहीं होने के कारण लोग रोजगार से वंचित हो रहे हैं। प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम की बात करें तो पिछले तीन सालों में मध्यप्रदेश को दो अरब, दो करोड़, 93 लाख रुपए आवंटित किए गए। बावजूद रोजगार महज 43,713 लोगों को ही मिल पाया। प्रदेश में वित्तीय अनुशासन शिथिल होने के कारण आर्थिक चिंताएं भी लगातार बढ़ रही हैं। प्रदेश में शिक्षित और अशिक्षित युवाओं को जिस अनुपात में कौशल प्रशिक्षण दिया जा रहा है, उस अनुपात में नए रोजगारों का सृजन नहीं हो रहा है।

वर्ष 2015-16 में हुए वार्षिक सर्वेक्षण में मध्यप्रदेश में बेरोजगारी का प्रतिशत महज 3 रहा है, जबकि 2014-15 में 2.3 था। साफ है कि एक साल के भीतर सरकार बेरोजगारी दूर करने में असफल रही है। जबकि इसी दौरान बिहार, दिल्ली, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर में बेरोजगारी की दर घटी है। रिपोर्ट बताती है कि युवाओं को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए कौशल प्रशिक्षण तो खूब दिए गए किंतु युवाओं को रोजगार नहीं मिले। पिछले तीन साल में प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम में प्रशिक्षण के नाम पर 1,40,482 युवाओं को प्रशिक्षित किया गया, लेकिन रोजगार के नए अवसर सृजित नहीं होने के कारण आधे लोगों को भी रोजगार नहीं मिला। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पूरे प्रदेश में डिग्री और हुनर के बीच बड़ा अंतर है। युवा के पास डिग्री तो होती है, लेकिन अपने बूते वह कोई काम-धंधा करने में दक्ष नहीं होता है। कई युवा पूंजी के अभाव में अपनी उद्यमशीलता को जमीन पर नहीं उतार पाते हैं। इस समय जिला उद्योग केंद्रों में फर्जी कौशल प्रशिक्षणों की भी बाढ़ आई हुई है। हकीकत में कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, महज प्रमाण पत्र देकर प्रशिक्षण की खानापूर्ति कर ली जाती है।

प्रदेश में मामूली पदो के लिए भी उच्च शिक्षित, इंजीनियर और एमबीए अभ्यर्थी परीक्षा षुल्क, प्रमाण-पत्रों की छाया प्रतियां और फोटो के साथ कियोस्क पर कतार में खड़े जेब ढीली करते रहते हैं। कागजी आवेदन बंद हो जाने के कारण सबसे ज्यादा परेशानी ग्रामीण आवेदकों को भुगतनी पड़ रही है। उन्हें 20-25 किलोमीटर चलकर विकासखंड मुख्यालयों पर आना होता है। आॅनलाइन आवेदन की लाइन में लगे रहने के बाद जब नबंर आता है तो बिजली चली जाने अथवा सर्वर डाउन या नेट नहीं होने की खबर मिलती है। ऐसे में ये अभ्यर्थी दो-तीन दिन में आवेदन कर पाते है। सरकार सरकारी कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा बढ़ाकर भी बेरोजगारी बढ़ा रही है। जबकि 50-55 की उम्र पार कर चुके ज्यादातर कर्मचारी आज भी कंप्युटर में दक्ष नहीं है। जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस एवं अन्य विभागों में हजारों पद खाली पड़े हैं। सरकार तथार्थ व अतिथि विद्वानों की नियुक्तियां कर जैसे-तैसे काम चला रही है। यही नहीं सेवानिवृत्त शिक्षकों को भी पढ़ाने का काम सौंपकर सरकार बेरोजगारी बढ़ा रही है। हताशा के इन कृत्रिम उपायों के बीच युवाओं के पास आरक्षण की मांग की कुंठा बार-बार जाग उठती है।

सरकार पिछले कई सालों से प्रदेश में नए उद्योग लगाने के लिए उद्योगपतियों के लिए पलक-पांवड़े बिछाए हुए उनके निहोरे कर रही है, लेकिन जिस तादाद में उद्योगपतियों को छूटें दी गई हैं, उस अनुपात में न तो उद्योग लगे और न ही रोजगार मिला। सरकार उद्योगों जिस अनुपात में कर छूटें दे रही है, उसमें जरूरी है कि वह नए लगने वाले उद्योगों में आरक्षण की शर्त रखे। जिससे पिछड़े, अनुसूचित जाति और जनजाति के युवाओं को आईटी कंपनियों में रोजगार मिले। हालांकि फीके पड़े बाजार में इस समय ओद्यौगिक उत्पादन की दर प्रदेश में ही नहीं पूरे देश में धीमी है। गोया, औद्योगिक क्षेत्र में जब रौनक आएगी तभी नए रोजगार सृजित होंगे। हालांकि देश और प्रदेशों की सरकारें क्रांतिकारी पहल का साहस जुटाए तो रोजगार सृजन के नए द्वार खुल सकते है। इसके लिए सरकारी और निजी क्षेत्र में नए सोच को दृढ़ता से लागू करना होगा। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए काम के घंटे और वेतन घटाने होंगे। यदि सेवारत कर्मचारियों का कार्य समय 4 घंटे कर दिया जाए और षेश 4 घंटों के लिए नए कर्मचारियों की भर्ती कर ली जाए तो बढ़ी संख्या में नए रोजगार सृजित हो सकते है। वैसे भी इस समय सरकारी व निजी क्षेत्र में जितना वेतन मिल रहा है, उतना कर्मचारी हों या अधिकारी खर्च नहीं कर पा रहे हैं। जबकि उनकी ऊर्जा का बड़ी मात्रा में दोहन हो रहा है। इसलिए सरकारों को आधा काम और आधा वेतन के विकल्प और गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

इस विकल्प पर अमल होता है तो उन दंपत्तियों को ज्यादा राहत मिलेगी, जो दोनों नौकरी की व्यस्तता के चलते न तो अपने बच्चों की ठीक से देखभाल कर पा रहे है और न ही अभिभावकों को समय दे पा रहे हैं। इस उपाय से स्वाभाविक है कि बेरोजगारी तो दूर होगी ही परिवार में सुरक्षा के साथ भावनात्मक संबंध भी मजबूत होंगे। कर्मचारी कम काम करेंगे तो उनमें हर वक्त ताजगी व स्फूर्ती तो रहेगी ही काम की गुणवत्ता भी ठीक रूप में सामने आएगी। मध्यप्रदेश सरकार तनावग्रस्त कर्मचारियों का तनाव दूर करने के लिए जिस ‘आनंद मंत्रालय‘ का गठन करने में लगी है, शायद उसकी जरूरत ही नहीं रह जाएगी। वैसे भी ऐसी संस्थाएं या मंत्रालय सफेद हाथी पालने के अलावा कुछ नहीं होती है।

मध्यप्रदेश कृषि प्रधान प्रदेश है और कृशि उत्पादन दर 24 प्रतिशत तक रही है, इसी आधार पर प्रदेश को अखिल भारतीय स्तर पर कई साल से कृषि कर्मण पुरस्कार मिल रहा है। कृशि उत्पादन बढ़ने की वजह से ही प्रदेश पिछले 10 साल से देश के बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर हुआ है। इसी का नतीजा है कि प्रदेश देश के सबसे तेजी से बढ़ते हुए विकासशील राज्यों की श्रेणी में आ गया है। यह विकास दर 2014-15 में 10.19 रही है। प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय भी इस अवधि में 59,770 रुपए अनुमानित की गई है। गोया, कृषि आधारित प्रसंस्करण संयंत्र प्रदेश में लगाए जाते है तो कृषि से जुड़े परिवारों के युवाओं को रोजगार मिलेगा। इसी दिशा में पशु पालन एवं दुग्ध उत्पादन को भी बढ़ावा देने की जरूरत है। ये दोनों उपाय यदि ग्रामीण क्षेत्रों में फलते-फूलते है तो कम शिक्षित और अकुशल ग्रामीणों को बड़ी मात्रा में नए रोजगार सृजित हो सकते है।

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