विश्वगुरू के रूप में भारत-42

राकेश कुमार आर्य

एलफिंस्टन का कहना है-”जावा का इतिहास कलिंग से आये हिन्दुओं की बहुत सी संस्थाओं के इतिहास से भरा पड़ा है। जिससे पता चलता है कि वहां से आये हुए सभ्य लोगों द्वारा स्थापित किये गये निर्माण कार्य जो ईसा से 75 वर्ष पूर्व बनाये गये थे, आज भी वैसे के वैसे ही खड़े हैं।”
मि. स्टैम्पफोर्ड भी कहते हैं कि यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि जावा के पूर्वीय तट पर ब्राह्मणों के उपनिवेश स्थापित किये थे।
ऐसी ही मान्यता मि. स्वैल की है। वह कहते हैं-”भारत से बाद के आने वाले प्रवासी निश्चय ही बौद्घ थे, क्योंकि जावा के निवासियों की प्रथाओं से पता चलता है कि सातवीं शताब्दी में गुजरात का एक राजकुमार अपने 5000 अनुयायियों के साथ यहां आया और माताराम में बस गया। इसके थोड़े समय बाद उसके समर्थन और सहायता के लिए 2000 लोग और आये, वह और उसके सब अनुयासी बौद्घ थे और उसके समय से ही बौद्घ धर्म ही जावा का धर्म हो गया।”

सचमुच भारतवासियों के सामने अपने इतिहास को समझने और सहेजने की बड़ी भारी चुनौती है। सर्वत्र बिखरे अपने इतिहास के ध्वंसावशेषों को एकत्र कर उनसे एक मानव इतिहास बनाना भारत के लोगों की ही नहीं अपितु भारत की सरकार का भी राष्ट्रीय दायित्व है। इससे हमारे देश के लोगों में आत्माभिमान का भाव उत्पन्न होगा और संपूर्ण मानव जाति को एक सूत्र में पिरोने का अवसर भी उपलब्ध होगा। भारत विश्व को समझे और विश्व भारत को समझे तो कई जटिल गुत्थियों का समाधान भी हमें मिल जाएगा। ऐसी स्थिति में भारत का दर्शन और भारत की सोच जहां सर्वोच्चता प्राप्त कर लेगी-वहां भारत को भी अपने विश्वगुरू के स्वरूप का आत्मबोध होते ही वह भी और अधिक मनोयोग से इस पद की प्राप्ति के लिए क्रियाशील हो उठेगा।
स्याम देश के अंकोरवाट मंदिर को भी भारत के लोगों की अमर कृति के नाम से विश्व के बौद्घिक लोगों के ही मान्यता प्राप्त है। स्याम शब्द संस्कृत के श्याम का ही अपभ्रंश है। इस देश से भी भारत के युगों पुराने संबंध रहे हैं। भारत की संस्कृति की शीतल छाया में इस देश के लोगों ने आत्मिक शान्ति का अनुभव किया है और दीर्घ काल तक भारत को विश्वगुरू मानते हुए उसकी चरण वंदना की है।
स्याम देश के विषय में एक अंग्रेज का कथन है-”कुछ यूरोपियन पर्यटकों ने जिन्होंने इस मंदिर को देखा है, इसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हुए कहा है कि यह उनके द्वारा देखे गये मंदिरों एवं भवनों में स्थापत्य कला के आधार पर सर्वश्रेष्ठ है। यहां तक कि मिस्र के पिरामिड भी इनके सामने फीके हैं। यूनानी कलात्मक भवन भी उसकी तुलना में कहीं नहीं ठहरते हैं। यह विशाल भवन जिसकी परिधि दो या तीन मील की है। उसमें कितने ही दरबार, न्यायालय एवं विशाल भवन स्थित हैं। इसकी दीवारें एवं प्रवेश द्वार मूत्र्तियों से ढके हुए हैं। मंदिर के बाह्य भाग में रामायण के दृश्य नक्काशी के रूप में चित्रित किये गये हैं। अंकोरवाट निश्चित ही एक ब्राह्मण मंदिर है, परंतु इसके पूर्ण होने से पहले इस देश का धर्म बौद्घ हो गया था। अत: इसमें बुद्घ से संबंधित बहुत सारी घटनाएं भी अंकित की गयी हैं।”
अब जापान की ओर चलते हैं। इस देश से भी भारत के प्राचीन काल से घरेलू संबंध रहे हैं। चीन के लिए जाने वाले कितने ही भारतीयों ने जापान को अपना निवास स्थान बना लिया था। जापान पर भी भारत के बौद्घधर्म का प्रभाव पड़ा और यह देश भी चीन की भांति बुद्घमय हो गया। यद्यपि चीन की भांति इस देश ने भारत से कभी शत्रुभाव नहीं रखा। इसका झुकाव भारत की ओर सदा बना रहा है। जापान के एक सुप्रसिद्घ विद्वान जे. ताका कासू कहते हैं-”मैं इस तथ्य पर विशेष जोर दूंगा कि जापान पर भारत का भौतिक एवं बौद्घिक प्रभाव आज की अपेक्षा प्रारंभिक काल में बहुत अधिक था। उदाहरण के रूप में बहुत सारे ऐसे भारतीय, भारत केे दक्षिणी तट से जापान के तट पर उतरे थे।” वे आगे कहते हैं कि ”किस प्रकार एक बौधिसैन भारद्वाज नामक ब्राह्मण जो कि ब्राह्मण धर्माध्यक्ष के रूप में जाना जाता था एक दूसरे पुजारी के साथ भारत से चलकर चम्पा, वहां से ओसाका, फिर नाता आये, जहां पर एक दूसरे भारतीय संन्यासी से मिले, जो जापानियों को संस्कृत पढ़ाते थे। उनका मठ व समाधि आज भी वहां है जिस पर उनकी प्रशस्ति अंकित है।”
चीनियों के विषय में कर्नल टॉड महोदय का निष्कर्ष है-”मोगल, तातार और चीनी अपने को चन्द्रवंशी क्षत्रिय बताते हैं। इनमें से तातार के लोग अपने को ‘अय’ का वंशज बताते हैं, यह अय पुरूखा का पुत्र आयु ही है। इस आयु के वंश में ही यदु था और उसका पौत्र हय था। चीनी लोग इसी हय को हयु कहते हैं और उसे अपना पूर्वज मानते हैं। उक्त अय की नौवीं पीढ़ी में एलखां के दो पुत्र हुए। उनके नाम काइयान और नगस थे इसी नगस से नागवंश की उत्पत्ति प्रतीत होती है।”
पं. रघुनंदन शर्मा जी लिखते हैं-”लोग कहते हैं कि जापान में जो जाति निवास करती है वह चीन से जाकर बसी है, क्योंकि दोनों की भाषा आदि में बहुत अंतर नहीं है। यह बात ठीक है। पर हमारा अन्वेषण कहता है कि चीन की तरह जापान में भी अभी उस आर्य जाति की एक शाखा मौजूद है जिसकी अन्य शाखाओं से जापानियों की उत्पत्ति हुई है। उस मूल निवासिनी जाति का नाम ‘ऐन्यू’ है। इसको काकेशियन विभाग के अंतर्गत समझा जाता है। ऐन्यू लोग अभी तक प्राचीन ऋषियों के भेष में रहते हैं। अर्थात दाढ़ी और केस नहीं निकालते। इसीलिए उनको आजकल ‘हेयरी मैन’ अर्थात ‘बाल वाले लोग’ कहा जाता है। चाहे जापानी इन काकेशियन की संतति हों और चाहे चीनियों की दोनों स्थितियों में वे आर्य हैं। जापानियों का ‘बुशिडो’ अर्थात क्षात्रधर्म अब तक प्राचीन क्षत्रियपने को स्मरण दिला रहा है। ऐन्यू लोगों का प्रस्तुत होना जापान की स्त्रियों में भारतीयपन का होना और पुरूषों का क्षात्रधर्म आदि बातें एक स्वर से पुकार रही हैं कि वे आर्य वंशज ही हैं।”
वास्तव में इन जैसे अनेकों प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि उन देशों में कोई अपनी अलग संस्कृति विकसित करने की ना तो सोच थी और ना ही इनके पास ऐसे साधन थे जिनसे ये एक विकसित सभ्यता और संस्कृति का निर्माण करने में सफल हो जाते। अपने इतिहास के प्रति निराशा का भाव रखने के लिए हमने इन देशों के बारे में अधिक गम्भीरता से कभी न तो चिंतन किया है और न ही कोई गम्भीर अनुसंधान किया है।
जो लोग इतने स्पष्ट प्रमाणों के उपलब्ध होने के उपरांत भी यही कहते हैं कि आर्य लोग भारत में बाहर से आये-उन्हें यह विचार करना चाहिए कि आर्य संस्कृति जिस समय संसार में अकेली एक संस्कृति थी अर्थात उस समय उसकी कोई प्रतिद्वंद्वी संस्कृति नहीं थी-उस समय उन्होंने भारत में आने का अपना तिथिवृत्त क्यों नहीं लिखा?
यदि वह बाहर से भारत आते तो वह निश्चय ही अपने भारत आगमन की घटना का विवरण रखते। आर्यों को विदेशी सिद्घ करने का ठेका लेने वाले विद्वानों में मि. मूर का नाम सर्वोपरि है। इन महोदय ने भारी प्रयास किया किकहीं पर संस्कृत साहित्य में कोई एक पंक्ति या कोई एक शब्द मिल जाए-जिससे आर्यों को विदेशी सिद्घ कर दिया जाए-पर उन्हें अंत में निराशा ही हाथ लगी। तब उन्होंने बड़ी निराशा और हताशा भरी मानसिकता के साथ लिखा था -”जहां तक मुझे ज्ञात है संस्कृत की किसी पुस्तक से अथवा किसी प्राचीन पुस्तक के हवाले से यह बात सिद्घ नहीं होती कि भारतवासी किसी अन्य देश से भारत आये।”
क्रमश:

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