विश्वगुरू के रूप में भारत-3

राकेश कुमार आर्य



ऐसी परिस्थितियों में उन अनेकों ‘फाहियानों,’ ‘हुवेनसांगों’ व ‘मैगास्थनीजों’ का गुणगान करना हम भूल गये जो यहां सृष्टि प्रारंभ से अपनी ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए आते रहे थे और जिन्होंने इस स्वर्गसम देश के लिए अपने संस्मरणों में बारम्बार यह लिखा कि मेरा अगला जन्म भारत की पवित्रभूमि पर होना चाहिए। जिससे कि मैं मोक्ष प्राप्त कर सकूं और जीवनमरण के चक्र से छूटकर निज जीवन का अभीष्ट प्राप्त कर सकूं।

भारत को समझने के लिए हमें रक्तपिपासुओं की दृष्टि से भारत को समझने की या देखने-परखने की परम्परागत दृष्टि से मुक्त होना होगा। इसके स्थान पर ज्ञानपिपासुओं की दृष्टि से भारत को समझने-परखने का तार्किक आधार खोजना होगा। क्योंकि जितना सार्थक और उपयोगी सकारात्मक चिंतन ज्ञानपिपासुओं का हो सकता है, उतना रक्तपिपासुओं का नहीं हो सकता। रक्तपिपासुओं के चिंतन में तलवार होती है-जबकि ज्ञानपिपासुओं के चिंतन में प्रेम और उपकार का भाव होता है। तलवार मानवता की हत्या करती है और प्रेम मानवता का सृजन करता है।

प्रो. मैक्समूलर लिखते हैं-”मुस्लिम शासन के अत्याचारों और वीभत्सता के वर्णन पढक़र मैं यही कह सकता हूं कि मुझे आश्चर्य है कि इतना सब होने पर भी हिंदुओं के चरित्र में उनके स्वाभाविक सद्गुण एवं सच्चाई बनी रही।” मैक्समूलर जिस बात पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं, वह भारत की संस्कृति की चेतना की उत्कृष्टता है और उसी को हम अपने वैदिक धर्म की पवित्रता कह सकते हैं। जिसने हमें एक ऐसा राष्ट्रीय चरित्र प्रदान किया है जिसे अपनाकर हम कभी गिर ही नहीं सकते। सदियों तक विदेशी लोगों ने मांसाहार को अपना राजधर्म बनाकर इस देश पर शासन किया पर यह भारत की अंतश्चेतना ही थी-जिसने मांसाहार को इस देश का ‘राष्ट्रधर्म’ नहीं बनने दिया। इस प्रकार भारत का स्वतंत्रता आंदोलन न केवल व्यक्ति की स्वतंत्रता का आंदोलन था -अपितु वह प्राणिमात्र के हित चिंतन से भरा हुआ एक ऐसा आंदोलन भी था जिसके मर्म में लोककल्याण ही लोककल्याण छिपा था। एक प्रकार से भारत का स्वतंत्रता आंदोलन समस्त मानवता को अज्ञानता, अत्याचार, अशिक्षा और पराधीनता की बेडिय़ों से मुक्त करने का आंदोलन था। विदेशी रक्तपिपासु लोग इस लोककल्याणकारी राष्ट्र को मिटाने के लिए चले और उन्होंने अपना जीवन ध्येय इसे मिटाना बना लिया पर यह मिटा नहीं और इसके न मिटने का कारण यही था कि इस देश का चिंतन लोककल्याण से ओतप्रोत था। चिंतन की सकारात्मकता और पवित्रता ही किसी व्यक्ति को या देश को ‘गुरूपद’ दिलाती है। भारत अपने चिंतन की इस विशेषता के कारण ही ‘विश्वगुरू’ बना और संसार को उसने ज्ञानप्रकाश प्रदान किया।

हमारे ऋषियों ने या बलिदानियों ने अपनी साधना या अपना बलिदान निजी मोक्ष प्राप्ति के लिए नहीं किया। उन्होंने अपनी साधना में और अपने बलिदानों में भी लोककल्याण को प्राथमिकता दी और सर्वकल्याण के लिए ही अपनी साधना की या अपना बलिदान दिया। जब महर्षि दयानंद ने यह कहा था कि-‘मैं अपने लिए मोक्ष नहीं चाहता, अपितु अपने करोड़ों देशवासियों को भी मोक्ष दिलाना चाहता हूं’-या जब ऐसी ही बात किसी क्रांतिकारी ने फांसी के फंदे पर झूलने से पूर्व कही तो यह उनकी निजी विचारधारा नहीं थी-अपितु यह इस देश की मौलिक विचारधारा थी। जी हां, वही विचारधारा जिसने यहां दधीचि जैसे ऋषि को लोककल्याण के लिए देहदान करने की प्रेरणा दी। इस ‘दाधीच परम्परा’ को भारत का राष्ट्रीय संस्कार कहा जाना चाहिए। क्योंकि यह संस्कार भारत को आज भी विश्वगुरू बना सकने की शक्ति व सामथ्र्य रखता है। मेरा भारत सांस्कृतिक रूप से बहुत ही समृद्घ देश है। इसकी तुलना किसी अन्य देश से नहीं की जा सकती। अपने इस राष्ट्रीय संस्कार बीज के कारण भारत कभी भी रक्तपिपासु न तो बन सका और न बन सकेगा। ज्ञानपिपासा इसका राष्ट्रीय संस्कार है और इसी को अपनाकर यह भविष्य में संसार का नेतृत्व करेगा।
धर्म में युद्घ और युद्घ में धर्म
विश्वगुरू भारत की बेजोड़ शैली है-धर्म में युद्घ और युद्घ में धर्म। भारत के इस रहस्य को कोई देश समझ नहीं पाया। हमारे देश में सार्थक जीवन जीने के लिए धर्म को अपनाना आवश्यक माना गया। जीवन की इस सार्थकता को बनाये रखने के लिए जिस धर्म व्यवस्था या जीवन व्यवस्था को स्थापित किया जाता है, उसे भंग करने वाली शक्तियां अर्थात असामाजिक तत्व कोई न कोई बाधा पहुंचाते हैं। ऐसे असामाजिक तत्वों को समाप्त कर समाज में धर्म का राज स्थापित किये रखना ‘धर्म में युद्घ’ की श्रेणी का सकारात्मक कार्य है। इस युद्घ की अनुमति भारत का धर्म देता है। इस युद्घ में नैतिकता है और समाज की मर्यादा को बनाये रखने का शिवसंकल्प है। भारत में ‘धर्म में युद्घ’ मिलता है। इसके विपरीत अन्य देशों में ‘सामाजिक संघर्ष’ मिलता है। यह सामाजिक संघर्ष धर्म में युद्घ से मिलता जुलता है-पर वास्तव में इस सामाजिक संघर्ष और भारत के ‘धर्म में युद्घ’ की अवधारणा में मौलिक अंतर है। सामाजिक संघर्ष में लोग एक दूसरे के अधिकारों का हनन करने की प्रवृत्ति वाले होते हैं और सभी एक दूसरे की टांग पकडक़र खींचते रहते हैं। वहां सब गुत्थम गुत्था होते हैं और यह पता लगाना कठिन होता है कि कौन कितना सही है और कितना गलत है? जबकि ‘धर्म में युद्घ’ वाली स्थिति में एक ओर समाज के शांतिप्रिय, न्यायप्रिय और धर्मप्रेमी लोग होते हैं जो अपने अधिकारों का तो सम्मान करते ही हैं, दूसरे के अधिकारों का सम्मान भी स्वभावत: करते हैं, पर कुछ लोग होते हैं जो इन शान्तिप्रिय, न्यायप्रिय और धर्मप्रेमी लोगों के अधिकारों का हनन करते हैं और उन्हें जीने नहीं देते हैं। क्रमश:

Previous article मानव शरीर की सार्थकता 
Next articleसालते सवाल!
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,046 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress