बुद्ध जयंती के अवसर पर नरेंद्र मोदी ने श्रीलंका जाकर ठीक किया। लंकाई सिंहलों के दिल के तार छुए और तमिलों के बीच सभा करके उन्होंने जातीय एकता के मिशन को आगे बढ़ाया लेकिन 14-15 मई को वे चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड’ सम्मेलन में नहीं जा रहे हैं। न कोई मंत्री जा रहा है और न ही कोई अफसर जबकि दुनिया के लगभग दो दर्जन राष्ट्राध्यक्ष और लगभग 50 राष्ट्रों के प्रतिनिधि उसमें भाग ले रहे हैं।
चीन से यूरोप तक थल-मार्ग और जल-मार्ग बनाने की यह चीनी योजना इतनी बड़ी है कि वह चीन को दुनिया का सबसे प्रशंसित राष्ट्र तो बना ही देगी, साथ-साथ वह भारत को हाशिए पर ला देगी। दक्षिण एशिया के सारे देश (भूटान के अलावा) इस मामले में चीन के साथ हैं। चीन के साथ भूटान के राजनयिक संबंध नहीं हैं। इस योजना के तहत चीन एशिया, अफ्रीका और यूरोप में लगभग 40 अरब डालर सीधे लगाएगा और 100 अरब डालर एशियाई बैंक के जरिए देगा।
चीन की 50 कंपनियां सड़कें, बंदरगाह, रेलमार्ग, औद्योगिक क्षेत्र आदि बनाने के 1700 प्रोजेक्ट पर काम करेंगी। इस योजना के पूरे होने पर लगभग ढाई खरब डालर का अंतरराष्ट्रीय व्यापार बढ़ेगा। भारत के सारे पड़ौसी देशों पर चीन छा जाएगा। दक्षेस की राजनीति शून्य हो जाएगी। दक्षेस पर चीन की दहशत वैसे ही बैठ जाएगी, जैसी कि वह ‘एसियान’ पर बैठ गई है। ऐसा नहीं है कि मोदी और सुषमा को हमारे अफसरों ने यह सब नहीं बताया होगा लेकिन हमारी सरकार कश्मीर को पकड़कर अधर में झूल रही है। वह चीन के इस विराट सम्मेलन का सिर्फ इसलिए बहिष्कार कर रही है कि चीन की वह सड़क ‘आजाद कश्मीर’ (पाक कब्जे में) होकर जाती है।
वह क्षेत्र कानूनी तौर पर भारत का है। यह भारतीय संप्रभुता का उल्लंघन है। यह बात कागजी तौर पर सही है लेकिन सच्चाई क्या है? भारत की सरकार ने इस क्षेत्र को वापस लेने के लिए आज तक क्या किया है? कुछ नहीं। वह कभी उसे लेने का दावा भी नहीं करती। मुझे खुशी है कि सुषमा स्वराज आजकल उसके बारे में कभी-कभी बोल देती हैं। हमारे नेताओं को शायद पता नहीं है कि 1963 में हुए एक समझौते के तहत पाक ने चीन को इस क्षेत्र की 5180 वर्ग किमी जमीन भेंट कर दी थी। भारत इस समझौते को गैर-कानूनी मानता है। नेताओं को यह भी पता नहीं होगा कि इस समझौते की धारा 6 में कहा गया है कि कश्मीर-समस्या का स्थायी हल निकलने पर इस पर पुनर्विचार होगा।
इसका हल जब निकलेगा, तब निकलेगा। अभी उसको हम अपनी बेड़ियां क्यों बनने दें? चाहें तो उस वैश्विक सम्मेलन में इस मुद्दे को उठा दें। चीनी सम्मेलन का बहिष्कार करने की बजाय छोटे-मोटे अफसरों को ही उसमें भेज दिया जाए। इस मौके पर संप्रभुता का बुर्का ओढ़कर भारत का कोपभवन में बैठ जाना मुझे उचित नहीं लगता। यदि दोनों देश मिलकर काम करें तो जैसा मैं कहता रहा हूं, 21 वीं सदी एशिया की सदी बन जाएगी।