भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों द्वारा ही संसार का कल्याण संभव

सुरेश गोयल धूप वाला

भारतवर्ष को ऋषि-मुनियों की भूमि व देव भूमि कहा जाता है जिसके विशेष कारण है कि इस देव भूमि में लाखों हजारौं वर्षों में एक विशेष संस्कृति फलीफूली है और बढ़ी है। इसने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है। इन्हीं विशेष संस्कृति को हिन्दुत्व कहा जाता है। हिन्दू संस्कृति सभी लोगों को अपने मत और पंथ के अनुसार र्इश्वर की उपासना करने को कहती है। इसलिए हिन्दुत्व का किसी से कोर्इ झगड़ा नहीं है। हिन्दुत्व किसी विशेष पूजा-पाठ व अराधना का नाम नहीं है। एक नास्तिक व्यक्ति से भी हिन्दुत्व का कोर्इ विरोध नहीं है। हिन्दुत्व जीवित धारणा है। यह जड़ बनने से साफ मना करता है। अहिंसात्मक साधनों द्वारा सत्य की खोज का दूसरा नाम हिन्दुत्व है। आज यह मृतप्राय-निष्क्रिय अथवा विकासशील नहीं दिख रही है तो इसका कारण यह है कि हम लगभग हजारो वर्षों की पराधीनता के कारण थक-हारकर बैठ गए है। ज्यों ही थकावट दूर हो जाएगी त्यों ही हिन्दुत्व संसार पर ऐसे तेज प्रखर के साथ छा जाएगा जैसे शायद पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। निश्चित रूप से हिन्दुत्व सबसे अधिक सहिष्णु धारणा है वास्तव में हिन्दुत्व तो सभी धारणाओं का सार है हिन्दुत्व में सैद्धांतिक कटरता नहीं है। हिन्दुत्व न केवल सभी मनुष्यों की एकात्मता में विश्वास रखता है बलिक संसार के सभी जीवधारियों के एकात्मता में भी विश्वास करता है।

 

हिन्दुत्व में गाय व वृक्ष की पूजा मानवता के विकास की दिशा में उसका एक अनूठा योगदान है। हिन्दुत्व मनुष्य जीवन के सौ वर्ष मानकर मनुष्य जीवन के चार आश्रमों ब्रहमचार्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम में विभक्त करके सोलह संस्कारों द्वारा उतम जीवन जीने की कला को निश्चित कर जीवन को पूर्णतया सुव्यवसिथत कर मानवता पर बहुत बड़ा उपकार किया है। हिन्दुत्व संसार को कुछ सीखा सकता है, कुछ दे सकता है और दुनियां को बहुत कुछ दिया भी है। यदि हिन्दुत्व के बारे में चर्चा की जाए तो भारत का साधारण गरीब किसान भी दुनिया के किसी दार्शनिक से कम नहीं उतरेगा। सदियों की गुलामी और शोषण को सहकर भी आज भारत जिंदा है। हमें आज भी र्इश्वर और आत्मा को धर्म से जोड़े रखा है। हिन्दुत्व की यह संकल्पना है जो पशु के सामान मनुष्य को पहले इन्सान और फिर भगवान बनाने की सामर्थ्य रखती है।

 

निस्वार्थ और पवित्र बनने का प्रयास ही धर्म मानती है। भारतीय दर्शन मानता है कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य हमारे अंदर विराजित र्इश्वर को प्रकट करना है। ध्यान, भक्ति, कर्मज्ञान, योग द्वारा भारी और भीतरी प्रकृति को वश में करना संभव है। ऐसा करने पर मनुष्य युक्त हो जाता है। यह स्वतंत्रता ही जीवन का सार है। हिन्दू धर्म ही भारत के ज्ञान को उजागर कर सकता है, उसकी सांस्कृतिक धरोहर को संभालकर रख सकता है। यदि वह अध्यातिमक उन्नती को बढ़ावा देने में असफल हुआ तो भारत ही नहीं सारे विश्व को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। मानव जाति को विनाश से बचाने के लिए वह संसार को विकास की ओर अग्रसर करने के लिए यह अति आवश्यक है कि भारतीय ऋषि संस्कृति भारत में फिर से स्थापित की जाये जो फिर सारी दुनिया में प्रचलित होगी। यह उपनिषद और वेदांत पर आधारित संस्कृति ही अंर्तर्राष्ट्रीय धर्म की नींव बन सकती है। भारत ही वह महान भूमि है जहां आध्यात्मिक भंडार अभी रिक्त नहीं हुए है। भारतीयों को तो केवल वैदांतिक परम्परा को जीवित रखने की आवश्यकता है।

 

 

1 COMMENT

  1. मैंने इस लेख को नहीं पढ़ा.ऐसे तो शीर्षक ही काफी है लेखक के उद्गारों को समझने के लिए.विडम्बना यह है कि जिस भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सराहना करते हम थकते नहीं,उसको हम स्वयं भूल गए हैं.हम केवल उपदेश देने में अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री समझने लगे हैं.हमारा आचरण पुकार पुकार कर कह रहा है कि हम इतने गिर गएँ हैंकिसंदेह होने लगता है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति केवल पुस्तकों की देन है .यह सभ्यता और संस्कृति शायद यहाँ कभी नहीं थी.

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