महत्वपूर्ण लेख विविधा

शब्द वृक्ष – डॉ. मधुसूदन

प्रवेश: सूचना –> एकाग्रता से, धीरे-धीरे, कुछ विचार-करते करते इसे पढने का अनुरोध करता हूँ।

यह लेख कुछ कठिन प्रतीत होगा। उसे सरल बनाने के लिए कठिन व्याकरणीय संकल्पनाओं को छोड़कर लिखने का प्रयास किया है। समय देकर एकाग्रता से, धीरे-धीरे, कुछ विचार करते-करते इसे पढ़ने का अनुरोध करता हूँ।

(१)संस्कृत व्याकरण

संस्कृत व्याकरण में, जैसा सक्षम, समृद्ध एवं सूत्रबद्ध शब्द रचना शास्त्र है, वैसा, संसार की अन्य कोई भाषा में उपलब्ध नहीं है। संसार की कोई भी भाषा संस्कृत से, शब्द रचना में, स्पर्धा कर नहीं सकती। पर हिन्दी संस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री होने के कारण हिन्दी को यह सारी शब्द-समृद्धि की धरोहर अनायास प्राप्त है। वैसे तो, भारत की समस्त भाषाओं को यह धरोहर प्राप्त है।

(२)अंग्रेज़ी की गुलामी ना होती।

यह बिन्दु हमारे नेतृत्व ने भी, इस की उचित गहराई तक समझा होता, तो आज अंग्रेज़ी की गुलामी ना होती। भारत की बहुसंख्य प्रजा शिक्षित होती, केवल अंग्रेज़ी जानने वाले ही समृद्ध ना होते, भ्रष्टाचार भी कम होता, और भारत कहीं का कहीं, आगे निकल चुका होता। संसार में आगे बढा होता। परम वैभवम् का स्वप्न साकार हुआ होता। इसी कारण से आप पाठकों को इस विषय में जानकारी देना चाहता हूँ। जानकारी किसी भी बदलाव का पहला चरण होता है।

(३)अतुल्य शब्द रचना शास्त्र

नया शब्द आवश्यकता पड़ने पर, अन्य परदेशी, भाषाओं में बहुतांश में, शब्द चुनकर उसपर अर्थ आरोपित किया जाता है। या फिर अन्य भाषाओं से, शब्द उधार लिया जाता है, क्योंकि, उधार लिए बिना शब्द उपजाने की निश्चित विधि उन के पास नहीं है।

एकमेव संस्कृत को छोडकर समस्त भाषाओं के पास ऐसा अतुल्य शब्द रचना शास्त्र भी नहीं है। इस बिन्दु को आगे कभी विस्तार सहित एक लेख में, प्रस्तुत करूंगा।

(४) “शब्द-वृक्ष”

इस लेख में, जिसे मैं ने “शब्द-वृक्ष” नाम दिया है, उस की परिकल्पना एक उदाहरण देकर स्पष्ट करता हूँ।

एक शब्द –’विचार’– के उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ। इस ’विचार’ शब्द के ’वि’ को हटा दीजिए। तो -’चार’ बचेगा। इस ’चार’ के आगे सं जोड़ दीजिए तो –> संचार बन जाता है। उप जोडने पर —-> उपचार बनता है। आ जोडनेपर —> आचार, प्र जोडने पर—> प्रचार, प्रचार के आगे भी अप जोडने पर —>अपप्रचार भी बन जाता है। कु जोडनेपर—> कुप्रचार भी बन सकता है।अभि जोडने पर अभिचार

और उसके आगे वि जोडनेपर —> व्यभिचार बनता है।

(५)उपसर्ग

ऐसे २० अंश है, जिन्हें आगे लगाया जा सकता है, इन अंशो को उपसर्ग कहते हैं।

ऐसे प्र, परा, अप, सम, अनु, अव, निस या निर, दुस, या दुर, वि, आ, नि, अधि, अपि, अति, सु, उद, अभि, प्रति, परि, उप ऐसे कुल २० उपसर्ग है।

{हरेक उपसर्ग के २ से ५ तक अर्थ होते हैं। जिसे इस लघु लेखमें समझाया नहीं है। एक झलक देनेका ही उद्देश्य है} }

एक अभ्यास के रूपमें आप ’हार’ शब्द के आगे ऐसे उपसर्ग जोडकर अभ्यास कर सकते हैं। जैसे सम+हार= संहार इत्यादि। ’योग’, और गति, के आगे भी जोडकर देखिए। कुछ शब्द बनेंगे, जिनका अर्थ आज आवश्यक हो, ना हो। पर उस अर्थ का शब्द जब चाहिए होगा, हमारे पास आरक्षित होगा।

(६) प्रत्यय शब्द के अंत में जुड़ता है

अब प्रचार के अंत में ’क’ जोडिए तो, —> प्रचारक बनता है। वैसे ही विचारक, संचारक इत्यादि भी बन सकते हैं; उपचारक, कुप्रचारक इत्यादि भी बन सकते हैं। प्रचारक से फिर प्रचारकीय, वैसे ही संचारकीय, उपचारकीय इत्यादि शब्द भी बन सकते हैं।

शब्द के आगे जुडनेवाले अंश जैसे कि प्र, वि, आ, अप इत्यादि को “उपसर्ग” कहा जाता है, यह ऊपर आ चुका है ही। उपसर्ग को एक इन्जन की भाँति शब्द के आगे लगनेवाला अंश मान सकते हैं।

ऐसे जो शब्द रचे जाते हैं, उस रचना प्रक्रिया को एक बीज से अंकुरित होकर बडा होने वाले वृक्ष की भाँति देखा जा सकता है। ऐसा बीज, जिसे “धातु” कहा जाता है, उसे ले कर, उस के आगे, उपसर्ग के शब्दांश जोडकर २० तक डालियां बन जाती है।

फिर ऐसी हरेक डाली पर ८० तक प्रत्यय जो शब्द के अंतिम छोरपर लगते हैं, वैसे लगाने पर हरेक डालीपर ८० तक नए शब्द बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य प्रक्रियाओं से भी शब्द गढे जा सकते हैं। और, सारा का सारा शब्द-वृक्ष खड़ा हो जाता है।

(७) कृ धातु का उदाहरण।

एक और धातु बीज के शब्दों का विस्तार आपके सामने रखकर इस संक्षिप्त लेख को समाप्त करता हूँ। एक धातु है “कृ”। कृ करोति। कृ का अर्थ होता है, किसी भी प्रकार का करना, उत्पन्न करना, खडा करना, नया बनाना, गढ़ना, लिखना, चित्र बनाना, कविता लिखना, निर्माण करना, बांधना इत्यादि और भी अर्थ है। इस “कृ” बीज धातु का वृक्ष निहारिए। इसे मूल(जड़, बीज, धातु)-सहित, धड की या तने की उपमा दी जा सकती है।

इसके पश्चात इस धड से जो शाखाएं फूटती हैं। उनका अवलोकन करिए।

ऐसे एक एक धड से २० शाखाएं फूट सकती है।

और प्रत्येक शाखा पर फिर अनेकों शब्द पत्ते या फूल की भाँति लग सकते हैं।

“कृ” से जन्मी एक शाखा लेते हैं–>”कृति” अब इस कृति की शाखापर फूटे पत्तों को या खिले फूलों को देखिए।

इनमें से प्र से प्रकृति, सम से संस्कृति, दुष् से दुष्कृति, वि से विकृति, आ से आकृति, सु से सुकृति, प्रति से प्रतिकृति, उप से उपकृति, ऐसे शब्द बने हुए हैं। विकृति” “प्रकृति” “संस्कृति” “सुकृति” “कुकृति” “झंकृति” “दुष्कृति”, “निष्कृति”।

और हमारे पास और भी शब्द बचते हैं। जिनको सुरक्षित रखा हुआ है। जब नए शब्दों की आवश्यकता होगी, जो इन उपसर्गों के अर्थों से मेल खाएंगे, तो देववाणी के असीम कोष से इन शब्दों का निर्माण किया जाएगा।

अभी हमारे पास निम्न शब्द आरक्षित है। पराकृति, अपकृति, अनुकृति, अवकृति, निष्कृति, अधिकृति, अपिकृति, उद्कृति, अभिकृति, परिकृति, उपकृति —- जब इनके अर्थ के अनुरूप शब्द की आवश्यकता पडेगी, तब इनका उपयोग चलन में लाया जाएगा।

अब एक दूसरी डाली लेते हैं। जिसमें “कार” पीछे जोडेंगे।

आकार, विकार, संस्कार, प्रतिकार, सुकार, कुकार, परिकार, प्रकार, बहिष्कार, तिरस्कार, पुरस्कार, झंकार, अलंकार, ।

लोहकार, चर्मकार, कुंभकार, नमस्कार, चमत्कार, सत्कार, क्रिकेट का षटकार, और चौकार, मकार, आकार, सत्कृति, कर्म, अकर्म, विकर्म, कुकर्म, सुकर्म, सत्कर्म, प्रकर्म,

इस शाखा पर भी और शब्द आरक्षित हैं, जिनके अर्थ वाले शब्द की आवश्यकता नहीं पडी है, जब ऐसी आवश्यकता पडेगी तब निकाल कर उनका प्रयोग चलन में लाया जाएगा।

(८)

यही धातु कृ धातु अंग्रेज़ी में क्रि बन गया है। स्पेलिंग होती है cre या crea

अब इस पर गढे गए शब्द कुछ डिक्षनरी में देखिए। सरलता से निम्न शब्द मिल पाएंगे। और भी होंगे।

1. Creant 2. Create 3. Creation 4. Creational 5. Creationary 6. Creative 7. Creator 8. Creature 9. Re-create 10. Recreation 11. Recreational 12. Recreationist 13. Procreate 14. Procreation

15. Procreant 16. Procreative 17. Procreatory 18. Uncreative

तो आप कह सकते हैं कि, यह शब्द वृक्ष सामान्य वृक्ष नहीं एक बट वृक्ष हैं। जिसका मूल भारत की देववाणी का “कृ” अपना पूरा वृक्ष विकसित करते हुए, जिसका दूसरा तना अंग्रेज़ी के cre बन कर और नया वृक्ष खड़ा कर सकता है। ऐसे और अन्य उपवृक्ष भी होंगे जो कहीं रुसी, जर्मन, फ्रान्सीसी इत्यादि भाषाओं में विकास कर रहें होंगे।

लिखते लिखते भी मेरा भारतीयत्व जाग जाता है, गौरव अनुभव करता हुआ सीना तन जाता है। कौनसा भारतीय यह जान कर गौरव अनुभव नहीं करेगा?

(९)

इस लघु लेख द्वारा, एक झलक दिखाने का ही उद्देश्य कुछ मात्रा में सफल होगा, तो लेखक का प्रयास सार्थक है। जिन्हें अधिक उत्सुकता हो, वे संस्कृत व्याकरण की पुस्तक में उपसर्ग और प्रत्ययों के विषय में पढ सकते हैं। अन्य व्याकरण पढने की आवश्यकता नहीं है।

बहुत कठिन तो नहीं लगा ना? कुछ पाठक प्रतिक्रिया दे, तो जान पाऊं, आगे के सुधार के लिए उपयुक्त होगा।

सन्दर्भ: (१) डॉ. रघुवीर की पुस्तकें। (२) The True History and the Religion of India- Prakashanand SaraswatI. (३) sanskrit Grammar-M R Kale (४) WAVES Conferences में लेखक के शोध पत्र