शब्द वृक्ष – डॉ. मधुसूदन

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प्रवेश: सूचना –> एकाग्रता से, धीरे-धीरे, कुछ विचार-करते करते इसे पढने का अनुरोध करता हूँ।

यह लेख कुछ कठिन प्रतीत होगा। उसे सरल बनाने के लिए कठिन व्याकरणीय संकल्पनाओं को छोड़कर लिखने का प्रयास किया है। समय देकर एकाग्रता से, धीरे-धीरे, कुछ विचार करते-करते इसे पढ़ने का अनुरोध करता हूँ।

(१)संस्कृत व्याकरण

संस्कृत व्याकरण में, जैसा सक्षम, समृद्ध एवं सूत्रबद्ध शब्द रचना शास्त्र है, वैसा, संसार की अन्य कोई भाषा में उपलब्ध नहीं है। संसार की कोई भी भाषा संस्कृत से, शब्द रचना में, स्पर्धा कर नहीं सकती। पर हिन्दी संस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री होने के कारण हिन्दी को यह सारी शब्द-समृद्धि की धरोहर अनायास प्राप्त है। वैसे तो, भारत की समस्त भाषाओं को यह धरोहर प्राप्त है।

(२)अंग्रेज़ी की गुलामी ना होती।

यह बिन्दु हमारे नेतृत्व ने भी, इस की उचित गहराई तक समझा होता, तो आज अंग्रेज़ी की गुलामी ना होती। भारत की बहुसंख्य प्रजा शिक्षित होती, केवल अंग्रेज़ी जानने वाले ही समृद्ध ना होते, भ्रष्टाचार भी कम होता, और भारत कहीं का कहीं, आगे निकल चुका होता। संसार में आगे बढा होता। परम वैभवम् का स्वप्न साकार हुआ होता। इसी कारण से आप पाठकों को इस विषय में जानकारी देना चाहता हूँ। जानकारी किसी भी बदलाव का पहला चरण होता है।

(३)अतुल्य शब्द रचना शास्त्र

नया शब्द आवश्यकता पड़ने पर, अन्य परदेशी, भाषाओं में बहुतांश में, शब्द चुनकर उसपर अर्थ आरोपित किया जाता है। या फिर अन्य भाषाओं से, शब्द उधार लिया जाता है, क्योंकि, उधार लिए बिना शब्द उपजाने की निश्चित विधि उन के पास नहीं है।

एकमेव संस्कृत को छोडकर समस्त भाषाओं के पास ऐसा अतुल्य शब्द रचना शास्त्र भी नहीं है। इस बिन्दु को आगे कभी विस्तार सहित एक लेख में, प्रस्तुत करूंगा।

(४) “शब्द-वृक्ष”

इस लेख में, जिसे मैं ने “शब्द-वृक्ष” नाम दिया है, उस की परिकल्पना एक उदाहरण देकर स्पष्ट करता हूँ।

एक शब्द –’विचार’– के उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ। इस ’विचार’ शब्द के ’वि’ को हटा दीजिए। तो -’चार’ बचेगा। इस ’चार’ के आगे सं जोड़ दीजिए तो –> संचार बन जाता है। उप जोडने पर —-> उपचार बनता है। आ जोडनेपर —> आचार, प्र जोडने पर—> प्रचार, प्रचार के आगे भी अप जोडने पर —>अपप्रचार भी बन जाता है। कु जोडनेपर—> कुप्रचार भी बन सकता है।अभि जोडने पर अभिचार

और उसके आगे वि जोडनेपर —> व्यभिचार बनता है।

(५)उपसर्ग

ऐसे २० अंश है, जिन्हें आगे लगाया जा सकता है, इन अंशो को उपसर्ग कहते हैं।

ऐसे प्र, परा, अप, सम, अनु, अव, निस या निर, दुस, या दुर, वि, आ, नि, अधि, अपि, अति, सु, उद, अभि, प्रति, परि, उप ऐसे कुल २० उपसर्ग है।

{हरेक उपसर्ग के २ से ५ तक अर्थ होते हैं। जिसे इस लघु लेखमें समझाया नहीं है। एक झलक देनेका ही उद्देश्य है} }

एक अभ्यास के रूपमें आप ’हार’ शब्द के आगे ऐसे उपसर्ग जोडकर अभ्यास कर सकते हैं। जैसे सम+हार= संहार इत्यादि। ’योग’, और गति, के आगे भी जोडकर देखिए। कुछ शब्द बनेंगे, जिनका अर्थ आज आवश्यक हो, ना हो। पर उस अर्थ का शब्द जब चाहिए होगा, हमारे पास आरक्षित होगा।

(६) प्रत्यय शब्द के अंत में जुड़ता है

अब प्रचार के अंत में ’क’ जोडिए तो, —> प्रचारक बनता है। वैसे ही विचारक, संचारक इत्यादि भी बन सकते हैं; उपचारक, कुप्रचारक इत्यादि भी बन सकते हैं। प्रचारक से फिर प्रचारकीय, वैसे ही संचारकीय, उपचारकीय इत्यादि शब्द भी बन सकते हैं।

शब्द के आगे जुडनेवाले अंश जैसे कि प्र, वि, आ, अप इत्यादि को “उपसर्ग” कहा जाता है, यह ऊपर आ चुका है ही। उपसर्ग को एक इन्जन की भाँति शब्द के आगे लगनेवाला अंश मान सकते हैं।

ऐसे जो शब्द रचे जाते हैं, उस रचना प्रक्रिया को एक बीज से अंकुरित होकर बडा होने वाले वृक्ष की भाँति देखा जा सकता है। ऐसा बीज, जिसे “धातु” कहा जाता है, उसे ले कर, उस के आगे, उपसर्ग के शब्दांश जोडकर २० तक डालियां बन जाती है।

फिर ऐसी हरेक डाली पर ८० तक प्रत्यय जो शब्द के अंतिम छोरपर लगते हैं, वैसे लगाने पर हरेक डालीपर ८० तक नए शब्द बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य प्रक्रियाओं से भी शब्द गढे जा सकते हैं। और, सारा का सारा शब्द-वृक्ष खड़ा हो जाता है।

(७) कृ धातु का उदाहरण।

एक और धातु बीज के शब्दों का विस्तार आपके सामने रखकर इस संक्षिप्त लेख को समाप्त करता हूँ। एक धातु है “कृ”। कृ करोति। कृ का अर्थ होता है, किसी भी प्रकार का करना, उत्पन्न करना, खडा करना, नया बनाना, गढ़ना, लिखना, चित्र बनाना, कविता लिखना, निर्माण करना, बांधना इत्यादि और भी अर्थ है। इस “कृ” बीज धातु का वृक्ष निहारिए। इसे मूल(जड़, बीज, धातु)-सहित, धड की या तने की उपमा दी जा सकती है।

इसके पश्चात इस धड से जो शाखाएं फूटती हैं। उनका अवलोकन करिए।

ऐसे एक एक धड से २० शाखाएं फूट सकती है।

और प्रत्येक शाखा पर फिर अनेकों शब्द पत्ते या फूल की भाँति लग सकते हैं।

“कृ” से जन्मी एक शाखा लेते हैं–>”कृति” अब इस कृति की शाखापर फूटे पत्तों को या खिले फूलों को देखिए।

इनमें से प्र से प्रकृति, सम से संस्कृति, दुष् से दुष्कृति, वि से विकृति, आ से आकृति, सु से सुकृति, प्रति से प्रतिकृति, उप से उपकृति, ऐसे शब्द बने हुए हैं। विकृति” “प्रकृति” “संस्कृति” “सुकृति” “कुकृति” “झंकृति” “दुष्कृति”, “निष्कृति”।

और हमारे पास और भी शब्द बचते हैं। जिनको सुरक्षित रखा हुआ है। जब नए शब्दों की आवश्यकता होगी, जो इन उपसर्गों के अर्थों से मेल खाएंगे, तो देववाणी के असीम कोष से इन शब्दों का निर्माण किया जाएगा।

अभी हमारे पास निम्न शब्द आरक्षित है। पराकृति, अपकृति, अनुकृति, अवकृति, निष्कृति, अधिकृति, अपिकृति, उद्कृति, अभिकृति, परिकृति, उपकृति —- जब इनके अर्थ के अनुरूप शब्द की आवश्यकता पडेगी, तब इनका उपयोग चलन में लाया जाएगा।

अब एक दूसरी डाली लेते हैं। जिसमें “कार” पीछे जोडेंगे।

आकार, विकार, संस्कार, प्रतिकार, सुकार, कुकार, परिकार, प्रकार, बहिष्कार, तिरस्कार, पुरस्कार, झंकार, अलंकार, ।

लोहकार, चर्मकार, कुंभकार, नमस्कार, चमत्कार, सत्कार, क्रिकेट का षटकार, और चौकार, मकार, आकार, सत्कृति, कर्म, अकर्म, विकर्म, कुकर्म, सुकर्म, सत्कर्म, प्रकर्म,

इस शाखा पर भी और शब्द आरक्षित हैं, जिनके अर्थ वाले शब्द की आवश्यकता नहीं पडी है, जब ऐसी आवश्यकता पडेगी तब निकाल कर उनका प्रयोग चलन में लाया जाएगा।

(८)

यही धातु कृ धातु अंग्रेज़ी में क्रि बन गया है। स्पेलिंग होती है cre या crea

अब इस पर गढे गए शब्द कुछ डिक्षनरी में देखिए। सरलता से निम्न शब्द मिल पाएंगे। और भी होंगे।

1. Creant 2. Create 3. Creation 4. Creational 5. Creationary 6. Creative 7. Creator 8. Creature 9. Re-create 10. Recreation 11. Recreational 12. Recreationist 13. Procreate 14. Procreation

15. Procreant 16. Procreative 17. Procreatory 18. Uncreative

तो आप कह सकते हैं कि, यह शब्द वृक्ष सामान्य वृक्ष नहीं एक बट वृक्ष हैं। जिसका मूल भारत की देववाणी का “कृ” अपना पूरा वृक्ष विकसित करते हुए, जिसका दूसरा तना अंग्रेज़ी के cre बन कर और नया वृक्ष खड़ा कर सकता है। ऐसे और अन्य उपवृक्ष भी होंगे जो कहीं रुसी, जर्मन, फ्रान्सीसी इत्यादि भाषाओं में विकास कर रहें होंगे।

लिखते लिखते भी मेरा भारतीयत्व जाग जाता है, गौरव अनुभव करता हुआ सीना तन जाता है। कौनसा भारतीय यह जान कर गौरव अनुभव नहीं करेगा?

(९)

इस लघु लेख द्वारा, एक झलक दिखाने का ही उद्देश्य कुछ मात्रा में सफल होगा, तो लेखक का प्रयास सार्थक है। जिन्हें अधिक उत्सुकता हो, वे संस्कृत व्याकरण की पुस्तक में उपसर्ग और प्रत्ययों के विषय में पढ सकते हैं। अन्य व्याकरण पढने की आवश्यकता नहीं है।

बहुत कठिन तो नहीं लगा ना? कुछ पाठक प्रतिक्रिया दे, तो जान पाऊं, आगे के सुधार के लिए उपयुक्त होगा।

सन्दर्भ: (१) डॉ. रघुवीर की पुस्तकें। (२) The True History and the Religion of India- Prakashanand SaraswatI. (३) sanskrit Grammar-M R Kale (४) WAVES Conferences में लेखक के शोध पत्र 

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डॉ. मधुसूदन
मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।

25 COMMENTS

  1. सदा की भाँति सरल भाषा में संस्कृत एवं हिन्दी के शब्दों की रचना पर एक अत्यन्त ग्यानवर्धक आलेख के लिये लेखक डॉ. मधुसूदन जी को अनेकश: साधुवाद ।

    • नमस्कार । बहन शकुन्तला जी। जानकार टिप्पणियों से मुझे लिखनेका उत्साह मिल जाता है। काफी सारे धातुओंपर ऐसा ही विस्तार बनेगा। ऐसे हमारे धातु अंग्रेज़ी में इतस्ततः फैले हुए हैं।
      धन्यवाद।

  2. Madhusudhanji– it felt very good reading about the “word-tree” (shabda-vraksha) via the addition of pratyay and upsarg, and how the branches seem to have transplanted themselves into English (the “create” example). Thank you ! This is inspiring me to properly study Sanskrit. That is a huge task, but I hope to take a small step in this lifetime.

    Vishwanath

  3. मुद्गलजी कृ से कृति, वि+कृति=विकृति, वैसे ही बहुत सारे लेखमें दर्शाएं हैं।जैसे प्रकृति, अनुकृति, झंकृति और कृ धातु से ही कर करण करणीय कर्म इत्यादि भी व्युत्पादित होते हैं। सारे लोहकार चर्मकार कुंभकार इत्यादि का अंतिम अंश “कार” भी कृ का ही रूप है।

  4. आपकी प्रतिभा के दर्शन तो गूगल के शब्दचर्चा, हिंदी अनुवादक आदि समूहों पर होते रहे हैं। यह आलेख निश्चय ही सारगर्भित और ज्ञानवर्धक है। हिंदी दुनिया की एक मात्र संपूर्ण भाषा है। अन्य भाषाओं की कुछ न कुछ सीमाएँ हैं। संस्कृत और लैटिन के बाद हिंदी ही एक मात्र भाषा है जिसका वैज्ञानिक आधार और तार्किक शब्दोत्पत्ति प्रणाली है। साधुवाद।
    -विनोद शर्मा

  5. बहुत कुछ जानने को मिला इस आलेख से। अपने छठी कक्षा के अध्यापक की समृति ताजा हो गई। जो ये सब बातें सिखाते थे लेकिन विद्यार्थी उन पर ध्यान नहीं देते थे कि ये सब परीक्षा में नहीं पूछे जाने वाला है।

  6. आदरणीय विश्वमोहनजी, डॉ. कपूर, बहन रेखा, दिवस, शशि, भू जी, और B N G जी।.
    आप सभी के शब्दों के योग्य प्रयास करता रहूंगा। नियन्ता की कृपासे ही,कुछ समय मिलने लेख डालूंगा। बिना हिचकिचाए(असम्मति भी) प्रामाणिक टिप्पणियां करते रहिए।.
    १७ मार्च को प्रवास से मुक्त हो पाऊंगा| फिर कुछ और विषय पर प्रयास करूँगा|
    अंग्रेज भी मुझे लगता है, कि (शायद गलत हूँ) संस्कृत कि सूक्ष्मताएं समझ नहीं पाएंगे|
    पर हमारे देशवासी “मूढः पर प्रत्ययनेय बुद्धि: ” क्यों है?
    प्रोत्साहन के लिए ==> अनेकानेक धन्यवाद।

  7. आदरणीय विश्वमोहनजी, डॉ. कपूर, बहन रेखा, दिवस, शशि, भू जी, और B N G जी।
    आप सभी के शब्दों के योग्य प्रयास करता रहूंगा। नियन्ता की कृपासे ही,कुछ समय मिलने लेख डालूंगा। बिना हिचकिचाए(असम्मति भी) प्रामाणिक टिप्पणियां करते रहिए।
    अनेकानेक धन्यवाद।

  8. अति उत्तम. सचमुच प्रो. मधुसुदन जी का यह आलेख आंग्ल विद्वानों पर भारी पड़ रहा है. कमाल तो यह है की ये भाषा विज्ञान के विद्वान न होने पर भी इतने गहन ज्ञाता हैं ? साधुवाद !

    • दुर्लक्षित हो गयी डॉ. राजेश कपूर जी की टिपण्णी|
      राजेश जी इसका बड़ा श्रेय मेरे दो संस्कृत शिक्षक (१) श्री काले और (२) रानडे शास्त्री जी और (३)मेरे पिता जी| सभीके कन्धोपर चढ़कर उंचाई बढ़ जाती है| मैं सकुचा रहा हूँ|
      धन्यवाद|
      आप बहुत उदार हैं|

  9. धन्यवाद सच में बहुत गर्व हुआ . ये लेख उनके मुह पर तमाचा जो कहते हे की हिंदी में तकनीकी शब्दों की कमी हे वन्दे मातरम

  10. अद्भुत रचना, आपने बिलकुल सही कहा की इसको धीरे-धीरे पढना. आपके गहन अध्यन से ऐसे सारबद्ध लेख पड़ने को मिलते है, यह कुछ कम नहीं है|

  11. आदरणीय मधुसुदन जी, कुछ ही उदाहरणों से आपने एक बेहतरीन लेख दिया है। तकनीकी से जुड़े होने के बाद भी आपका हिन्दी भाषा व्याकरण का इतना ज्ञान व अध्ययन सच में सुख दे गया।
    इस लघु लेख द्वारा, एक झलक दिखाने का ही उद्देश्य कुछ मात्रा में नहीं अपितु आप पूर्णत: सफल रहे।
    मुझे भी गर्व है भारतीय होने पर, हिन्दी भाषी होने पर।
    साधुवाद

  12. यह क्या रहस्य है की एक कंप्यूटर पर दिए गए और प्रकाशित किये गए विचार दुसरे कंप्यूटर पर उपलभ नहीं हैं – क्या कोई तकनिकी समस्या ?

  13. प्रो० मधुसुदन जी का साधुवाद – संस्कृत और हिंदी भाषा की अतुल शब्द सम्पदा और उन के बीज, वृक्ष के रूप में प्रस्फुटन, शाखाओं के रूप में विस्तार, उपसर्गों और प्रत्यों से शब्द समृद्धि और इन सब का सरल भाषा में प्रस्तुतीकरण आप जैसा एक विद्वान ही कर सकता था | यह आप के गहन अध्ययन का प्रतीक है | आप अमेरिका में रहते हैं, इंजीनियरिंग के अध्यापक हैं. जिस के बारे में कहा जाता है की यह हिंदी वालों का विषय नहीं है – इस के लिए आप को हार्दिक बधाई | खेद की बात यह है की भारत के नेता, नौकरशाह और अब सामान्य जनता को भी यह भ्रम हो गया है की देश के लिए हिंदी नहीं वरन अंग्रेजी आवश्यक है | इस सम्बन्ध में मैं तीन विदेशी नाम देना चाहूँगा जो अँगरेज़ (विदेशी) होते हुए भी हिंदी और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित रहे हैं – ये हैं – रुपर्ट स्नेल, डेविड फ्रावले और कामिल बुल्के – अनेक भारतीयों की तुलना में ये तीनो अधिक भारी पड़ते हैं | वैसे और भी कुछ लोग हैं जो भारतीय इतर होते हुए भी भारतीय भाषा और संस्कृति के पोषक रहे हैं लेकिन डाक्टर मधुसुदन इन सब पर भारी हैं | धन्यवाद |

  14. विनायक जी, शशि जी, जित जी, अनुनाद जी, मोहन जी, और दूर भाष (फोन ) से, हासित भाई, एवं मृदुल कीर्ति जी —
    आप सभी का प्रोत्साहन मेरे लिए पुरस्कार समान है|
    आप, किसी भी संस्कृत व्याकरण की पुस्तक में –>उपसर्ग, प्रत्यय, समास, संधि इत्यादि की सामान्य जानकारी पाएंगे|
    ऐसा ही मैं ने भी किया है|
    सुझाव:
    राष्ट्र भाषा के हित में अनेक लोगों ने इस विषय का अध्ययन करना चाहिए| कुछ छोटे छोटे (२ या अधिक मित्र मिलकर) अध्ययन मंडल बने, सप्ताह में एक बार मिलें, और पढ़ें चर्चा करें|
    कहीं न कहीं हमें इस गिलहरी जैसे छोटे काममें और देश की एकता के हितमें काम करना आवश्यक है|
    आप के शब्द, जिन के विद्वान् कन्धों पर हम सभी भारतीय खड़े हैं, वैसे स्व, डॉ. आचार्य रघुवीर, जिन्हें आधुनिक युगके पाणिनि मानने में मुझे कोई संकोच नहीं उनके अधिकार के हैं|
    बहुत बहुत धन्यवाद|

  15. प्रो. मधुसूदन जी ने अपने लेख से यह स्पष्ट किया हैं के हिंदी में शब्द रचना की अतुल्य शक्ति हैं I किन्तु इसके बाबजूद हिंदी में अंग्रेजी और उर्दू भासा का कचरा भरा पड़ा हैं स्वंतत्र भारत में सभी सरकारों और व्यापारियो ने अंग्रेजी को अधिक महत्व दिया हैं I व्यापारियो के सब विगापन अंग्रेजी में होते हैं. लेबलो पर केवल अंग्रेजी लिखी जाती हैं चीन के बने हुआ पथार्थ जो बिदेशो में विकते हैं पर केवल चीनी भाषा लिखी होती हैं उनमे अंग्रेजी का एक भी शब्द लिखा हुआ नहीं होता i हिंदी फिल्म उद्योग हिंदी के नाम पर पैसा कमाता पर हिंदी फिल्म की नामावली का तो क्या कहना हिंदी फिल्म का नाम भी हिंदी मैं नहीं लिखा जाता. भारत में अंग्रेजी शिक्षा बिना नौकरी नहीं मिलती भारत का हर व्यक्ति अपने बच्चे को अंग्रेजी में शिक्षा दिलाना चाहता हैं जबके यह बात अनुसब्धन द्वारा सिद्ध हो चुकी हैं के अंग्रेजी द्वारा शिक्षा आरंभ करने से बच्चे की सिखने की कश्मता कम हो जाती हैं कई बिद्वान पुरशो और नेताओ ने जैसे मह्रिषी दयानंद और नेताजी सुबाश चंदर बोसे नें सुजाब दया हैं के हर भारतवासी को हिंदी सीखना चहिये किन्तु फिर भी भारत में कई जग्हू पर प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी से चालू होती हैं
    श्री मधुसूदन जिअद्द्नो शोध कार्या द्वारा हमेशा मौलिक ज्ञानवर्धक और रास्त्राहित के लेख पर्स्तुत करते हैं श्री मधुसूदन जी को हार्दिक अभिनन्दन

  16. श्री विनायकजी की बात से १००% सहमत.
    एक संग्रहनीय लेख. मैं इसे फुर्सत में बार-बार पढ़ना चाहूंगा.
    संस्कृत को वैज्ञानिक-तार्किक दृष्टि से देखने के डॉक्टर मधु के प्रयास को नमन.

  17. झवेरी जी,
    सदा की भांति यह लेख भी विचारोत्तेजक, सारगर्भित और ज्ञानवर्धक है। भारत
    की शिक्षा-व्यवस्था में ऐसे लेख बताए ही नहीं जाते जिससे अपने ही बारे
    में हमे पता ही नहीं होता। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों और
    गणितज्ञों/खगोलशास्त्रियों/वैज्ञानिकों/दार्शनिकों ने कठिन से कठिन
    संकल्पनाओं (कांसेप्ट्स) के लिये इतने सार्थक नाम दिये हैं जिनकी शोभा
    देखते ही बनती है।

    — अनुनाद

    (पता नहीं मैं आपके ब्लॉग पर कमेंट क्यों नहीं कर पा रहा हूँ।)

  18. maine prathmik vidhayala mein hindi padaane ka36 saalon tak kaam kiya jab sanskrit padi tab thoda gyaan badha per kabhi yeh nahin janane ki koshish ki yeh bhasha itani amir hai ki apane mein h sampurn hai aaj yeh jaan pai iss bhasha ki sachaai –aapko shat shat pernaam jinhone yeh shabd vraksh taiyaar kiya—– humko jaan kaari —- woh bhi itani vistrit—- issi terah aage bhi humara marg darshan kare rahen —bahu t bahut dhanyavaad

  19. हिंदी भाषा और व्याकरण का इतना गहन अध्ययन और उसका आंग्ल भाषा के शब्दों का तुलनात्मक विश्लेषण केवल हिंदी भाषा के प्रकांड पंडित ही कर सकते हैं. अचरज है की अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर द्वारा यह सब अध्ययन कर लिपिबद्ध करना……ham तो केवल नत मस्तक सकते है. प्रवक्ता को भी साधुवाद की उसने ऐसे ज्ञानवर्धक आलेख को स्थान दिया है….!

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