ज्ञान-विज्ञान के भारतीय स्रोत पुनः प्रवाहित होने चाहिए

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मनोज ज्वाला

क प्रसिद्ध ग्रंथ ‘स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन’ के अमेरिकी लेखक और इतिहासकार विल डुरांट ने भारत को दुनिया की समस्त सभ्यताओं की जननी कहा है। उन्होंने ‘दी केस फॉर इण्डिया’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है- ‘भारत से ही सभ्यता की उत्पत्ति हुई। संस्कृत सभी यूरोपियन भाषाओं की भी जननी है। हमारा समूचा दर्शन संस्कृत से ही उपजा है। विज्ञान और गणित इसकी ही देन हैं। लोकतंत्र और स्वशासन भी भारत से ही उपजा है। इसलिए भारत माता हम सब की माता हैं।’ इस पुस्तक में उन्होंने विस्तार से बताया है कि अंग्रेजी शासन से पहले भारत कैसा था? अंग्रेजों ने कैसे भारत को लूटा और कैसे भारत की आत्मा का ही हनन कर डाला। वे कोई दक्षिणपंथी लेखक अथवा संघी विचारधारा के विचारक नहीं थे, बल्कि अमेरिका व यूरोप के सर्वमान्य दार्शनिक थे। उन्होंने ‘द स्टॉरी ऑफ फिलॉसफी’ नामक पुस्तक भी लिखी, जो दुनियाभर में दार्शनिकों के बीच प्रसिद्ध है। विल डुरांट एवं उनकी पत्नी एरिएल डुरांट को सन् 1968 में अमेरिकी शासन के द्वारा पुलित्जर पुरस्कार एवं सन् 1977 में राष्ट्रपति का मेडल प्रदान किया गया था। विल डुरांट जैसे और भी कई पश्चिमी विद्वान, दार्शनिक व इतिहासकार हैं, जिनकी मान्यता है कि भारत के विभिन्न स्रोतों से ही दुनिया में ज्ञान-विज्ञान की धारा प्रवाहित हुई और ये स्रोत संस्कृत-साहित्य में छिपे हुए हैं। छिपे हुए इस कारण हैं क्योंकि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के द्वारा ये यत्नपूर्वक छिपाये गए हैं। संस्कृत-साहित्य का शिक्षण-संरक्षण व संवर्द्धन करने वाले गुरुकुलों को नष्ट कर एक योजना के तहत भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों का औपनिवेशिक हिसाब से बिकाऊ भाषाविदों के हाथों विकृत अनुवाद कराकर और शिक्षा की सुनियोजित पद्धति कायम कर अंग्रेजों ने इस षड्यंत्र को अंजाम दिया हुआ है। डुरंट ने अपनी पुस्तक में यह भी लिखा है कि अंग्रेज जब भारत आये तब यहां के सात लाख गांवों में लगभग इतने ही गुरुकुल थे। अंग्रेजी राजपाट कायम हो जाने के बाद उन्होंने सभी गुरुकुलों को नष्ट कर दिया। फिर लगभग एक सौ साल बाद काफी सोच-समझकर थॉमस मैकाले की योजनानुसार अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के स्कूलों का विस्तार किया। फिर उसके माध्यम से भारत की नई पीढ़ियों को यह पढ़ाया जाने लगा कि संस्कृत जाहिलों की भाषा रही है और संस्कृत-साहित्य में पूजा-पाठ के मंत्रों व ईश्वर-भक्ति की कथा-कहानियों के सिवाय कुछ भी नहीं है। गुरुकुलों के पराभव और स्कूलों के सुनियोजित उद्भव के बीच वाले उस लम्बे कालखण्ड में उन्होंने भारत के प्राचीन ग्रंथों-शास्त्रों से ज्ञान-विज्ञान को निकालकर उन्हें यूरोपियन विद्वानों-विशेषज्ञों की उपलब्धियों में शामिल करने का काम ऐसी चतुराई के साथ किया कि भारत में किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी।      यूरोपीय देशों के राष्ट्र बनने और ईसा का जन्म होने से हजारों साल पहले के भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों यथा- वेद, उपनिषद, ब्राह्मण आरण्यक में ब्रह्माण्ड के सबसे जटिल व अनसुलझे विषयों की भरमार है। इसीलिए महर्षि दयानंद सरस्वती ने कहा कि ‘वेद समस्त सत्य विद्याओं का  सार है।’ महर्षि भारद्वाज ने हजारों वर्ष पहले ही वेदों के अनुसंधान से ‘विमान शास्त्र’ नामक ग्रंथ रच कर 76 प्रकार के विमानों की रचना का विज्ञान प्रस्तुत कर रखा है, जिनमें यात्री विमान से लेकर युद्धक विमान तक शामिल हैं। ‘अंशुबोधिनी’ ग्रन्थ में महर्षि भारद्वाज ने सूर्य और नक्षत्रों की किरणों की शक्ति और उन्हें मापने की विधि का वर्णन किया है। इन्हीं ऋषि का एक और ग्रन्थ ‘अक्ष-तन्त्र’ नाम का है, जिसमें आकाश की परिधि और उसके विभागों का वर्णन किया गया है। उसमें बताया गया है कि मनुष्य आकाश में कहां तक जा सकता है एवं उसके बाहर जाने से किस प्रकार वह नष्ट हो सकता है। ‘रत्नप्रदीपिका’ में कृत्रिम हीरा बनाने की विधि के सूत्र-समीकरण दिए गए हैं। इसी तरह से अगस्त्य ऋषि-रचित ‘अगस्त्य संहिता’ ग्रंथ में विद्युत-उत्पादन की विधि का आविष्कार हजारों वर्ष पहले ही किया जा चुका है। चिकित्सा के क्षेत्र में प्लास्टिक सर्जरी जैसी तकनीक तो सुश्रुत ऋषि यूरोप के मेडिकल साइंस का जन्म होने से पहले ही दे चुके हैं। हमारे आयुर्वेद में कायाकल्प के तो चमत्कार ही चमत्कार हैं, किन्तु उसे भी पश्चिम के मेडिकल साइंस का मोहताज बना दिया गया है। ‘वैदिक गणित’ में तो ऐसे-ऐसे सूत्र-समीकरण भरे पड़े हैं कि उनके प्रयोग से वृक्षों की पत्तियां तक गिनी जा सकती हैं। आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे हमारे महान खगोलविदों व गणितज्ञों के ग्रंथों को खंगाला जाए तो एक से एक ऐसे-ऐसे सूत्र-समीकरण मिलेंगे, जिनके उपयोग से भारतीय प्रतिभा पूरी दुनिया को अचम्भित कर सकती है। दुर्भाग्य है कि हमारे बच्चों को आज भी पश्चिम से आयातित गणित और विज्ञान पढ़ाये जाते हैं। गणित के शून्य व दशमलव का आविष्कार करने वाले भारत के वे तमाम ऋषि-मनीषी वशिष्ठ, विश्वामित्र, कणाद, अगस्त्य, सुश्रुत, भारद्वाज, द्रोण, आर्यभट्ट और वराहमिहिर आदि अंग्रेजों द्वारा कपोल-कल्पित पौराणिक पात्र बना दिए गए और उनके ज्ञान-विज्ञान से भारतीयों को वंचित कर उन्हें यूरोपीय जूठन परोसा जाने लगा, जो आज भी जारी है। इससे नुकसान यह हो रहा है कि हमारी प्रतिभाओं का जितना विकास होना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है। अतएव अब जरूरी है कि ज्ञान-विज्ञान के भारतीय स्रोतों को, जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए बाधित व अपहृत कर रखा था, उन्हें पुनः प्रवाहित किया जाए। यह अपेक्षा मोदी की सरकार से ही की जा सकती है।(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।) 

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