डॉ. राधे श्याम द्विवेदी ‘नवीन’
भारत का आखिरी गांव :- हिमालय में हिन्दुओं के तीर्थस्थल बद्रीनाथ से तीन किमी आगे राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर समुद्र तल से 19,000 फुट(3118 मीटर) की ऊंचाई पर बसा है भारत का अंतिम गांव माणा। भारत-तिब्बत सीमा से लगे इस गांव की सांस्कृतिक विरासत तो महत्तवपूर्ण है ही, यह अपनी अनूठी परम्पराओं के लिए भी खासा मशहूर है। बद्रीनाथ की यात्रा पर जाने वाले जिस भी तीर्थ यात्री को माणा का महत्व पता है वह इस गांव में जरूर जाता है। ऐसे में यह पर्यटन के लिहाज से भी महत्वपूर्ण स्थान बन गया है। बद्रीनाथ की तरह माणा भी छह महीने तक बर्फ से ढका रहता है। यह कह सकते हैं कि अक्तूबर – नवंबर से मार्च तक माणा गांव जनशून्य हो जाता है और यहां केवल सेना के जवान ही दिखायी देते हैं। इस दौरान माणा गांव के लोग पांडुकेश्वर, जोशीमठ, चमोली और गोपेश्वर आदि को अपना ठिकाना बना लेते हैं। अप्रैल से लेकर सितंबर तक हालांकि यहां अच्छी चहल पहल रहती है। विशेषकर मई और जून माणा गांव जाने के लिये आदर्श समय है क्योंकि बरसात में बद्रीनाथ मार्ग के टूटने या भूस्खलन के कारण उसके बंद होने की संभावना बनी रहती है। बच्चे छह महीने यहां और छह महीने पांडुकेश्वर में पढ़ते हैं। ऐसा वर्षों से चला आ रहा है। पांडुकेश्वर जोशीमठ और बद्रीनाथ के बीच में पड़ता है। माणा में मर्छिया या भोटिया जनजाति के लोग रहते हैं जो मंगोल प्रजाति से संबंध रखते हैं। गर्म कपड़े तैयार करना, तुलसी से बनी स्थानीय चाय और दाल में पड़ने वाला खासा मसाला ‘फरण’ बेचना इन लोगों का मुख्य व्यवसाय है। माणा गांव में प्रवेश करते ही आपको बुनाई करती हुई महिलाएं दिख जाएंगी। वे स्वेटर, टोपी, मफलर,स्कार्फ, कारपेट, आसन, पाखी, पंखी, पट्टू आदि बड़ी कुशलता से बना लेती हैं। इन कपड़ों और अन्य सामान को बेचने के काम में भी महिलाओं की भूमिका अहम होती है। गर्मियों में यहां आलू की खेती भी की जाती है। पहले यहां के लोग तिब्बत के साथ व्यापार भी करते थे। यहां के घर भी पहाड़ों के अन्य गांवों के घरों की तरह मिट्टी, पत्थरों और टिन के बने हुए हैं। छोटे से घर जिनमें छह महीने ताला लगा रहता है। अब कुछ ‘लेंटर वाले मकान’ भी बनने लग गये हैं। इस तरह के यहां लगभग 150 घर होंगे। इनमें से प्रत्येक घर में अमूमन दो कमरे होते हैं जिनमें जरूरत पड़ने पर पर्यटकों को भी ठहराया जाता है। माणा गांव की कुल जनसंख्या लगभग 600 है और यहां के लोग ‘गढ़वाली’ बोली ही बोलते हैं। यहां रडंपा जनजाति के लोग रहते हैं। पहले बद्रीनाथ से कुछ ही दूर गुप्त गंगा और अलकनंदा के संगम पर स्थित इस गांव के बारे में लोग बहुत कम जानते थे लेकिन अब सरकार ने यहां तक पक्की सड़क बना दी है। इससे यहां पर्यटक आसानी से आ जा सकते हैं, और इनकी संख्या भी पहले की तुलना में अब काफी बढ़ गई है। भारत की उत्तरी सीमा पर स्थित इस गांव के आसपास कई दर्शनीय स्थल हैं जिनमें व्यास गुफा, गणेश गुफा, सरस्वती मन्दिर, भीम पुल, वसुधारा आदि मुख्य हैं।माणा का सीधा संबंध महाभारत से जोड़ा जाता है। इस गांव के तुरंत बाद ही पड़ोसी देश यानि चीन की सीमा नहीं है। माणा से चीन या तिब्बत की सीमा लगभग 43 किमी दूर है लेकिन यह भारत का इस क्षेत्र में आखिरी गांव है। इसके बाद चीन की सीमा तक कोई भी रिहायशी इलाका नहीं है, क्योंकि आगे पहाड़ बेहद दुर्गम हैं जहां के बारे में कहा जाता है कि केवल कुछ साधुओं को ही यहां धुनी रमाये हुए देखा गया।
यहां की गुफा में महाभारत की रचना:- माणा महाभारत काल का गांव है। इसलिए कहा जा सकता है कि यह उत्तराखंड के सबसे प्राचीन गांवों में से एक है। कहा जाता है कि वेदव्यास ने माणा गांव में ही महाभारत की रचना की थी और पांडव स्वर्गारोहिणी इसी गांव से होकर गये थे। इन दोनों घटनाओं के कुछ चिन्ह अब भी यहां विद्यमान हैं। माणा गांव में व्यास गुफा और गणेश गुफा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार व्यास ने इसी गुफा में महाभारत का सृजन किया था। व्यास के आग्रह पर भगवान ब्रह्मा ने गणेश जी को महाभारत लिखने का काम सौंपा था। कहा जाता है कि तब गणेश ने व्यास के सामने शर्त रखी थी कि उन्हें बीच में रूकना नहीं होगा और लगातार बोलते रहना होगा। व्यास ने भी गणेश से कहा कि वह जो भी कहेंगे उसका अर्थ समझने के बाद ही उन्हें उसे लिखना होगा। इससे व्यास को समय मिल जाता था। यह भी कहा जाता है कि लगातार लिखते रहने से गणेश की कलम टूट गयी थी और उन्होंने तब अपनी सूंड का उपयोग कलम के रूप में किया था। व्यास गुफा लगभग सात वर्ग फीट की होगी जहां पर व्यास ने कई महीने बिताये थे। इससे थोड़ी दूर नीचे गणेश गुफा है जहां पर गणेश जी ने बैठकर महाभारत लिखी थी। माना जाता है कि ये गुफाएं 5000 से भी अधिक साल पुरानी हैं।
सरस्वती नदी का उदगम स्थल:-माणा गांव से थोड़ी दूर पर सरस्वती नदी है। इस नदी पर पत्थर से बना पुल है। इसे भीमपुल कहते हैं। इसके बारे में कहा जाता है कि जब पांडव स्वर्गारोहिणी के लिये आगे बढ़ रहे थे तो द्रौपदी सरस्वती नदी को पार नहीं कर पायी। पांडवों ने इसके बाद सरस्वती से रास्ता देने का आग्रह किया लेकिन सरस्वती नहीं मानी। पांडवों में सबसे बलशाली भीम ने तब दो बड़े पत्थर लुढकाकर पुल बना दिया। भीम ने तब अपनी गदा जोर से सरस्वती नदी पर मारी थी जिससे यह विलुप्त हो गयी। यह नदी थोड़ा आगे बढ़कर अलकनंदा में मिलती है लेकिन ऐसा आभास होता है जैसे कि यह विलुप्त हो रही हो। इसके विलुप्त होने के पीछे एक और कहानी भी है। गणेश जब महाभारत लिख रहे थे तो सरस्वती बड़ा शोर करते हुए बह रही थी। गणेश ने उससे शोर कम करने को कहा लेकिन सरस्वती नहीं मानी। इससे क्रोधित होकर गणेश ने सरस्वती को विलुप्त होने का श्राप दे दिया था। इस तरह से यह नदी अपने उदगम से कुछ मीटर बहने के बाद ही विलुप्त हो जाती है लेकिन आज भी भीमपुल के पास वह पूरी गर्जना के साथ बहती है। कहा जाता है कि यह नदी आगे जाकर प्रयाग में गंगा और यमुना से मिलती है लेकिन वहां पर भी यह दिखती नहीं है। भीमपुल में संभलकर चलें तो बेहतर है क्योंकि इस पुल से नीचे गिरने का मतलब जान से हाथ धोना है। यहां पर अब भी सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं किये गये हैं।
पांडव स्वर्गारोहण:-पांडव स्वर्गारोहण के लिये जब सरस्वती नदी से आगे बढ़े तो उन्होंने एक एक करके देहत्याग करनी शुरू कर दी थी। सबसे पहले द्रौपदी ने देह त्याग की थी। केवल युद्धिष्ठर और उनके साथ एक कुत्ता ही सशरीर स्वर्ग गये थे। यह कुत्ता कोई और नहीं बल्कि धर्म था। पांडव शरीर छोड़ने से पहले जिस आखिरी स्थल पर रूके थे वह वसुधारा है। माणा से लगभग छह किमी दूर इस जगह पर पांडवों ने स्नान किया था। कहा जाता है कि जिसने पाप किये हों उस पर इसका पानी नहीं पड़ता है। यहां पर विष्णु गंगा या अलकनंदा 122 मीटर की ऊंचाई से नीचे गिरती है। बसुधारा का पानी भी गंगाजल की तरह लोग अपने घरों में रखते हैं। माणा से लगभग 18 किमी की दूरी पर सतोपंथ ताल भी है। कहा जाता है कि यहां किसी पवित्र दिन पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्नान करते हैं। यहां से नीलकंठ पर्वत भी देखा जा सकता है। बसुधारा और सतोपंथ ताल के बीच लक्ष्मीवन पड़ता है जिसने धानो ग्लेसियर के नाम से भी जाना जाता है।
श्रापमुक्त गांव:- इस गांव को श्रापमुक्त जगह का दर्जा प्राप्त है. हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि व्यक्ति के जीवन में जो भी कष्ट हैं वह उसके द्वारा किए पापों के चलते होता है. यहां आने पर व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है.यह जगह है उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित देश का सबसे अंतिम गांव माणा. यहीं पर माना पास है जिससे होकर भारत और तिब्बत के बीच वर्षों से व्यापार होता रहा था. इस यह गांव का नाम भगवान शिव के भक्त मणिभद्र देव के नाम पर पड़ा था.इस गांव में आने पर व्यक्ति स्वप्नद्रष्टा हो जाता है. जिसके बाद वह होने वाली घटनाओं के बारे में जान सकता है. माणिक शाह नाम एक व्यापारी था जो शिव का बहुत बड़ा भक्त था. एक बार व्यापारिक यात्रा के दौरान लुटेरों ने उसका सिर काटकर कत्ल कर दिया. लेकिन इसके बाद भी उसकी गर्दन शिव का जाप कर रही थी. उसकी श्रद्धा से प्रसन्न होकर शिव ने उसके गर्दन पर वराह का सिर लगा दिया. इसके बाद माना गांव में मणिभद्र की पूजा की जाने लगी.शिव ने माणिक शाह को वरदान दिया कि माणा आने पर व्यक्ति की दरिद्रता दूर हो जाएगी. मणिभद्र भगवान से बृहस्पतिवार को पैसे के लिए प्रार्थना की जाए तो अगले बृहस्पतिवार तक मिल जाता है.
प्रधानमंत्री सैनिकों के साथ दिवाली मनाएंगे:- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बार की दिवाली भारत तिब्बत सीमा पुलिस के जवानों के साथ उत्तराखंड में चीन की सीमा से लगे माणा गांव में मनाएंगे। तेल एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धमेंद्र प्रधान ने आज ट्विटर पर यह जानकारी दी। उन्होंने कहा,‘‘आनन्द की बात है, माननीय प्रधानमंत्री जी दीपावली के दिन माणा गाँव का दौरा करेंगे। जनता में बहुत उत्साह है। यह उत्तराखंड सैनिकों का प्रान्त है।मोदी दिवाली के मौके पर इस बार उत्तराखंड के चमोली जिले में भारत-चीन सीमा पर माणा में तैनात आईटीबीपी के जवानों के साथ दिवाली मनाएंगे। दिवाली पर प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को बेहद गोपनीय रखा गया है। जानकारी के अनुसार प्रधानमंत्री 29 अक्टूबर को सुबह दिल्ली से वायुसेना के विशेष विमान से और एमआई 17 हेलीकॉप्टर से गौचर पहुंचेंगे। उनके साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार अजित डोभाल भी होंगे। पीएम मोदी सुबह भगवान बद्रीनाथ के दर्शन करेंगे। विशेष पूजा अर्चना के बाद वह माणा में मौजूद आईटीबीपी और सेना के जवानों के साथ दिवाली मनाएंगे। पीएम मोदी सीमा पर जवानों के साथ जलपान भी करेंगे। इससे पहले भी मोदी दिवाली के मौके पर जवानों के साथ सीमा पर जा चुके हैं। वह प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी पिछली दो दिवाली सेना के जवानों के साथ सीमा पर मना चुके हैं।