एक जर्मन कहावत है क़ि ” इतिहास हमें सिखाता है कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा” , लेकिन लगता है कि नरेंद्र मोदी इस कहावत को झुठला कर इतिहास से कुछ सीख कर ही दम लेंगे !! बलूचिस्तान की जनता पर हो रहे अत्याचार, उनकें मानवाधिकारों का हनन और राजनैतिक स्वनिर्णय की बहाली का नारा लाल किले से व अन्य मंचों से बुलंद करके भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नया राजनयिक मोर्चा खोल दिया है. निश्चित तौर पर वर्तमान हालातों में जब कि अमेरिका से मोदी-ओबामा की जुगलबंदी वाले राष्ट्रपति ओबामा विदा हो रहें हैं और नए अमेरिकी राष्ट्रपति से नरेंद्र मोदी या भारत के सम्बंध कैसे होंगे यह बात अभी भविष्य के गर्भ में है; उधर ब्रिटेन में यही परिस्थिति दोहराई जा रही है कि मोदी से कुशल तादात्म्य बैठा लेनें वाले कैमरान सत्ता से विदा हो गए है, रूस सहित अन्य वैश्विक मंचों पर भी कहीं न कहीं अनिश्चितता का वातावरण है, तब भारतीय प्रधानमंत्री का लाल किले से बलूचिस्तान की आजादी की ओर आवाज लगाना एक नई भारत-पाकिस्तान रणनीति का ही हिस्सा है. भारत द्वारा ऐसा करनें से जहां बलूचिस्तान की जनता का अंदरूनी और घोषित समर्थन नरेंद्र मोदी की मुहीम को मिल रहा है वहीं अफगानिस्तान रूस सहित कुछ अन्य देश भी बलूचिस्तान के संदर्भ में मोदी के सुर में सुर मिलानें लगें हैं. बलूचिस्तान के लोकप्रिय बुगती परिवार ने तो मोदी का गुणगान कर दिया है. आम बलूची जनता मोदी के चित्रों को लेकर जुलुस, प्रदर्शन कर रही है.
अपनें प्रधानमंत्रित्व काल के मध्यांतर के पूर्व ही नरेंद्र मोदी ने यदि बलूच और पीओके का बड़ा मुद्दा उठानें का राजनैतिक साहस बताया है तो निश्चित ही यह उनकी किसी बड़ी कूटनैतिक तैयारी का अंश है. वैसे जिस मिटटी, साहस व स्वभाव के मोदी बनें हैं और जिस प्रकार की उनकी कार्यशैली रही है उसके चलते इस प्रकार के निर्णय अनपेक्षित नहीं है. ऐसा लगता है कि वे इंदिरा गांधी के बांग्लादेश निर्माण के प्रहसन को पुनः मंचित करना चाहते हैं और बांग्लादेश निर्माण से इंदिरा गांधी को मिली कालजयी प्रसिद्धि का वरण वे भी करना चाहते हैं. बांग्लादेश निर्माण का इतिहास किसी से छिपा नहीं है. देश में आपातकाल लगाकर लोकतंत्र का गला घोट देनें जैसे घृणित कार्य करनें के बाद भी इंदिरा गांधी को देश की जनता नें क्षमा किया तो संभवतः उसके पीछे सबसे बड़ा कारण बांग्लादेश निर्माण व 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में उनके बेजोड़ नेतृत्व का ही था. देश की नेता के रूप में इंदिरा गांधी द्वारा किये गए तीन कार्य उन्हें सदा देश में स्मरणीय बनाये रखेंगे. तत्कालीन परिस्थितियों में जब इंदिरा गांधी ने ये तीन कार्य – बांग्लादेश निर्माण में सफल भूमिका, राजों रजवाड़ों के प्रिवीपर्स समाप्त करना व बैंको के राष्ट्रीयकरण का कार्य – किये थे तब परिस्थितियां कतई उनके अनुकूल नहीं थी किन्तु उनकी राजनैतिक दृढ़ता ही थी कि वे इन तीनों कार्यों को सफलता पूर्वक कर पाई थी. यद्दपि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर का 1971 के समय जैसा विरुद्धार्थी रवैया भारत के प्रति था वैसा अब अनपेक्षित ही है क्योंकि भारत तब की अपेक्षा अब अमेरिका के कहीं अधिक समीप है तथापि ओबामा के जानें व नए राष्ट्रपति के आनें के मध्य और उधर टेम्स नदी में बहे पानी, और चीन के साथ भारतीय तनावों के चलते नरेंद्र मोदी को अतिशय सावधानी से काम लेना होगा और चौकन्ना रहना होगा. बांग्लादेश मुक्ति सेना को इंदिरा गांधी के समर्थन की घोषणा के बाद जो परिस्थितियां बनी थी उसमें तो इंदिरा गांधी के लिए एकदम विपरीत वातावरण था. इंदिरा गांधी जब समूचे बांग्लादेश प्रकरण में अपनें स्पष्टीकरण को व्यक्त करनें निक्सन के समक्ष वाशिंगटन पहुंची थी तब उन्हें बेहद विपरीत व्यवहार का सामना करना पड़ा था. अमेरिकी राष्ट्रपति ने तब भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पीठ पीछे उनकें लिए अभद्र भाषा तक का प्रयोग किया था. अमेरिकी राष्ट्रपति के बांग्लादेश मुद्दें पर और भारत पाक युद्ध में पाकिस्तान को एकतरफा पक्षपाती समर्थन की आलोचना तब अमेरिका के स्थानीय मीडिया ने भी की थी. तब और अब की परिस्थिति में साम्य यह है कि बांग्लादेश के निर्माण के समय अमेरिका ने चीन से समीपता बढ़ानें के लिए पाकिस्तान का प्रयोग किया था व भारत का विरोध किया था वहीं अब अमेरिका चीन से रणनीतिक संतुलन बैठाने के लिए भारत का समर्थन करनें को लगभग मजबूर रहेगा. भारत और नरेंद्र मोदी इस स्थिति को भली भांति समझ रहें हैं तभी इतनी विपरीत स्थिति में भी मोदी बलूचिस्तान के प्रश्न को और पाक अधिकृत कश्मीर के विषय को मजबूती से उठा पायें हैं. नरेंद्र मोदी द्वारा बलूच मुद्दा उठानें के तुरंत बाद जिस प्रकार उन्हें बलूचिस्तान के अन्दर वहां की जनता से और बाहरी देशों से जिस प्रकार का समर्थन मिला है उससे वे स्वाभाविक ही प्रसन्न होंगे. बलूचिस्तान का बुगती परिवार इन परिस्थितियों में भारत के लिए वैसा ही सिद्ध हो सकता है जैसे बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में भारत के लिए शेख मुजीबुरहमान सिद्ध रहे थे. एक मोर्चा और है जिस पर भी भारत बहुत अधिक सुरक्षित है और वह है घुसपैठियों का मुद्दा. बांग्लादेश निर्माण के समय भारत को बांग्लादेशी घुसपैठियों की बड़ी संख्या को भारत में बसाना पड़ी थी जो कि इंदिराजी की एक बड़ी असफलता थी. तब के लगभग एक करोड़ बांग्लादेशी आज भारत में एक बड़े जनसांख्यिकीय असंतुलन सहित कई दीर्घकालीन विकराल समस्याओं का कारण बन गए हैं. अब यदि नरेंद्र मोदी बलूचिस्तान स्वतंत्रता के मुद्दें पर आगे बढ़ते हैं तो एक ओर जहां वे कश्मीर मुद्दें पर पाकिस्तान को कड़ी चुनौती पेश कर पायेंगे वहीं दूसरी ओर बलुचिस्तानियों के भारत में किसी भी प्रकार से घुसपैठ करनें का कोई प्रश्न ही नहीं है. एक तुलनात्मक विश्लेषण यह भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में जाता है कि बांग्लादेश निर्माण के समय मानवाधिकार की चर्चा कमतर स्तर पर ही होती थी जबकि आज वैश्विक मंच पर मानवाधिकार एक बड़ा, संवेदनशील व तुरंत वैश्विक ध्यानाकर्षण वाला विषय बन गया है. बलूच नागरिकों के मानवाधिकार हनन के भीषणतम समाचारों से वैश्विक राजनय मंच जल्दी ही इस ओर आकर्षित होकर भारत के साथ खड़े हो सकता है. अब जबकि भारत ने बलूच मुद्दा निर्णायक तौर पर वैश्विक राजनैतिक आकाश में उछाल दिया है तब लगता है कि देश में एक स्पष्ट बहुमत धारी प्रधानमंत्री होनें के क्या अर्थ होतें हैं यह वस्तुतः देखने को मिलेगा. अब देखना है की नरेंद्र मोदी अपनी चाहत के अनुरूप किस प्रकार और कब इंदिरा गांधी की बांग्लादेश निर्माण वाली भूमिका को निभा पातें हैं?!
बलूचिस्तान की जनता पर हो रहे अत्याचार, उनकें मानवाधिकारों का हनन और राजनैतिक स्वनिर्णय की बहाली का नारा लाल किले से व अन्य मंचों से बुलंद करके भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नया राजनयिक मोर्चा खोल दिया है. निश्चित तौर पर वर्तमान हालातों में जब कि अमेरिका से मोदी-ओबामा की जुगलबंदी वाले राष्ट्रपति ओबामा विदा हो रहें हैं और नए अमेरिकी राष्ट्रपति से नरेंद्र मोदी या भारत के सम्बंध कैसे होंगे यह बात अभी भविष्य के गर्भ में है; उधर ब्रिटेन में यही परिस्थिति दोहराई जा रही है कि मोदी से कुशल तादात्म्य बैठा लेनें वाले कैमरान सत्ता से विदा हो गए है, रूस सहित अन्य वैश्विक मंचों पर भी कहीं न कहीं अनिश्चितता का वातावरण है, तब भारतीय प्रधानमंत्री का लाल किले से बलूचिस्तान की आजादी की ओर आवाज लगाना एक नई भारत-पाकिस्तान रणनीति का ही हिस्सा है. भारत द्वारा ऐसा करनें से जहां बलूचिस्तान की जनता का अंदरूनी और घोषित समर्थन नरेंद्र मोदी की मुहीम को मिल रहा है वहीं अफगानिस्तान रूस सहित कुछ अन्य देश भी बलूचिस्तान के संदर्भ में मोदी के सुर में सुर मिलानें लगें हैं. बलूचिस्तान के लोकप्रिय बुगती परिवार ने तो मोदी का गुणगान कर दिया है. आम बलूची जनता मोदी के चित्रों को लेकर जुलुस, प्रदर्शन कर रही है.
अपनें प्रधानमंत्रित्व काल के मध्यांतर के पूर्व ही नरेंद्र मोदी ने यदि बलूच और पीओके का बड़ा मुद्दा उठानें का राजनैतिक साहस बताया है तो निश्चित ही यह उनकी किसी बड़ी कूटनैतिक तैयारी का अंश है. वैसे जिस मिटटी, साहस व स्वभाव के मोदी बनें हैं और जिस प्रकार की उनकी कार्यशैली रही है उसके चलते इस प्रकार के निर्णय अनपेक्षित नहीं है. ऐसा लगता है कि वे इंदिरा गांधी के बांग्लादेश निर्माण के प्रहसन को पुनः मंचित करना चाहते हैं और बांग्लादेश निर्माण से इंदिरा गांधी को मिली कालजयी प्रसिद्धि का वरण वे भी करना चाहते हैं. बांग्लादेश निर्माण का इतिहास किसी से छिपा नहीं है. देश में आपातकाल लगाकर लोकतंत्र का गला घोट देनें जैसे घृणित कार्य करनें के बाद भी इंदिरा गांधी को देश की जनता नें क्षमा किया तो संभवतः उसके पीछे सबसे बड़ा कारण बांग्लादेश निर्माण व 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में उनके बेजोड़ नेतृत्व का ही था. देश की नेता के रूप में इंदिरा गांधी द्वारा किये गए तीन कार्य उन्हें सदा देश में स्मरणीय बनाये रखेंगे. तत्कालीन परिस्थितियों में जब इंदिरा गांधी ने ये तीन कार्य – बांग्लादेश निर्माण में सफल भूमिका, राजों रजवाड़ों के प्रिवीपर्स समाप्त करना व बैंको के राष्ट्रीयकरण का कार्य – किये थे तब परिस्थितियां कतई उनके अनुकूल नहीं थी किन्तु उनकी राजनैतिक दृढ़ता ही थी कि वे इन तीनों कार्यों को सफलता पूर्वक कर पाई थी. यद्दपि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर का 1971 के समय जैसा विरुद्धार्थी रवैया भारत के प्रति था वैसा अब अनपेक्षित ही है क्योंकि भारत तब की अपेक्षा अब अमेरिका के कहीं अधिक समीप है तथापि ओबामा के जानें व नए राष्ट्रपति के आनें के मध्य और उधर टेम्स नदी में बहे पानी, और चीन के साथ भारतीय तनावों के चलते नरेंद्र मोदी को अतिशय सावधानी से काम लेना होगा और चौकन्ना रहना होगा. बांग्लादेश मुक्ति सेना को इंदिरा गांधी के समर्थन की घोषणा के बाद जो परिस्थितियां बनी थी उसमें तो इंदिरा गांधी के लिए एकदम विपरीत वातावरण था. इंदिरा गांधी जब समूचे बांग्लादेश प्रकरण में अपनें स्पष्टीकरण को व्यक्त करनें निक्सन के समक्ष वाशिंगटन पहुंची थी तब उन्हें बेहद विपरीत व्यवहार का सामना करना पड़ा था. अमेरिकी राष्ट्रपति ने तब भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पीठ पीछे उनकें लिए अभद्र भाषा तक का प्रयोग किया था. अमेरिकी राष्ट्रपति के बांग्लादेश मुद्दें पर और भारत पाक युद्ध में पाकिस्तान को एकतरफा पक्षपाती समर्थन की आलोचना तब अमेरिका के स्थानीय मीडिया ने भी की थी. तब और अब की परिस्थिति में साम्य यह है कि बांग्लादेश के निर्माण के समय अमेरिका ने चीन से समीपता बढ़ानें के लिए पाकिस्तान का प्रयोग किया था व भारत का विरोध किया था वहीं अब अमेरिका चीन से रणनीतिक संतुलन बैठाने के लिए भारत का समर्थन करनें को लगभग मजबूर रहेगा. भारत और नरेंद्र मोदी इस स्थिति को भली भांति समझ रहें हैं तभी इतनी विपरीत स्थिति में भी मोदी बलूचिस्तान के प्रश्न को और पाक अधिकृत कश्मीर के विषय को मजबूती से उठा पायें हैं. नरेंद्र मोदी द्वारा बलूच मुद्दा उठानें के तुरंत बाद जिस प्रकार उन्हें बलूचिस्तान के अन्दर वहां की जनता से और बाहरी देशों से जिस प्रकार का समर्थन मिला है उससे वे स्वाभाविक ही प्रसन्न होंगे. बलूचिस्तान का बुगती परिवार इन परिस्थितियों में भारत के लिए वैसा ही सिद्ध हो सकता है जैसे बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में भारत के लिए शेख मुजीबुरहमान सिद्ध रहे थे. एक मोर्चा और है जिस पर भी भारत बहुत अधिक सुरक्षित है और वह है घुसपैठियों का मुद्दा. बांग्लादेश निर्माण के समय भारत को बांग्लादेशी घुसपैठियों की बड़ी संख्या को भारत में बसाना पड़ी थी जो कि इंदिराजी की एक बड़ी असफलता थी. तब के लगभग एक करोड़ बांग्लादेशी आज भारत में एक बड़े जनसांख्यिकीय असंतुलन सहित कई दीर्घकालीन विकराल समस्याओं का कारण बन गए हैं. अब यदि नरेंद्र मोदी बलूचिस्तान स्वतंत्रता के मुद्दें पर आगे बढ़ते हैं तो एक ओर जहां वे कश्मीर मुद्दें पर पाकिस्तान को कड़ी चुनौती पेश कर पायेंगे वहीं दूसरी ओर बलुचिस्तानियों के भारत में किसी भी प्रकार से घुसपैठ करनें का कोई प्रश्न ही नहीं है. एक तुलनात्मक विश्लेषण यह भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में जाता है कि बांग्लादेश निर्माण के समय मानवाधिकार की चर्चा कमतर स्तर पर ही होती थी जबकि आज वैश्विक मंच पर मानवाधिकार एक बड़ा, संवेदनशील व तुरंत वैश्विक ध्यानाकर्षण वाला विषय बन गया है. बलूच नागरिकों के मानवाधिकार हनन के भीषणतम समाचारों से वैश्विक राजनय मंच जल्दी ही इस ओर आकर्षित होकर भारत के साथ खड़े हो सकता है. अब जबकि भारत ने बलूच मुद्दा निर्णायक तौर पर वैश्विक राजनैतिक आकाश में उछाल दिया है तब लगता है कि देश में एक स्पष्ट बहुमत धारी प्रधानमंत्री होनें के क्या अर्थ होतें हैं यह वस्तुतः देखने को मिलेगा. अब देखना है की नरेंद्र मोदी अपनी चाहत के अनुरूप किस प्रकार और कब इंदिरा गांधी की बांग्लादेश निर्माण वाली भूमिका को निभा पातें हैं?!