प्रमोद भार्गव
आयरलैंड के भारतीय मूल के प्रधानमंत्री लियो वरडकर ने गर्भपात पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए जो जनमत संग्रह कराया था, उसका जनादेश कानून को रद्द करने के पक्ष में आ गया हैं। इस ऐतिहासिक बदलाव के पक्ष में 66.36 फीसदी लोग सहमत हैं। इसके पहले एग्जिट पोल में भी यही परिणाम आए थे। यह जनमत संग्रह आइरिस संविधान के उस आंठवें संशोधन को बदलने के लिए कराया गया है, जिसमें बेहद जरूरी परिस्थितियों को छोड़कर गर्भवती मां को गर्भपात की अनुमति नहीं है। आयरलैंड में यह कानून 1983 में बना था। इसके प्रावधान के अनुसार यदि कोई स्त्री गर्भ में पल रहे शिशु को नष्ट करती है तो उसे 14 साल तक की सजा भुगतने का नियम है। इस कारण 1983 से अब तक 1,70,000 आइरिस महिलाएं गर्भपात के लिए विदेश जा चुकी हैं। बावजूद इस कानून के बदलने का माहौल तब बना, जब भारतीय मूूल की दंत चिकित्सक सविता हलप्पनवार की अक्टूबर 2012 में समय पर गर्भपात नहीं हो सकने के कारण मौत हो गई थी। इसी के बाद से यहां इस कानून को बदलने के लिए बहस शुरू हुई। लोग डबलिंग की सड़कों पर उतरे और महिलाओं की रक्षा के लिए जुलूस निकाले। इससे कानून के विरुद्ध वातावरण का निर्माण हुआ और धीरे-धीरे लोग इसमें बदलाव के लिए आगे आने लगे। अब जनमत संग्रह ने तय कर दिया है कि जल्दी ही यह कानून रद्द हो जाएगा।
आमतौर से पश्चिमी देश दुनिया को मानवाधिकार और धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाते हैं। इन देशों में भी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश उनके निशाने पर प्रमुखता से रहते हैं। भारत को तो वे मदारी और सपेरों का ही देश कहकर आत्ममुग्ध होते रहते हैं। वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस्लामी मान्यताओं के चलते महिलाओं को मूलभूत अधिकारों से वंचित रखने की निंदा करते हैं। अलबत्ता आयरलैंड में भारतीय मूल की दंत चिकित्सक सविता हलप्पनवार की 2012 में जब मौत हुई थी, तब पता चला था कि चर्च के बाध्यकारी कानूनों का पालन करने वाला पश्चिमी समाज कितना पाखण्डी है ? सविता की कोख में 17 माह का सजीव गर्भ विकसित हो रहा था। परंतु गंभीर जटिलता के कारण गर्भपात की स्थिति निर्मित हो गई। 31 साल की सविता को गैलवे के अस्पताल में भर्ती कराया गया। चूंकि सविता खुद चिकित्सक थी, इसलिए जांच रिपोर्टों के आधार पर उसने जान लिया था कि गर्भपात नहीं कराया गया तो उसकी जान जोखिम में पड़ सकती है। इसलिए उसने खुद पति प्रवीण हलप्पनवार की सहमति से चिकित्सकों को गर्भपात के लिए कहा। लेकिन चिकित्सकों ने माफी मांगते हुए कहा, ‘दुर्भाग्य से आयरलैण्ड कैथोलिक ईसाई देश है। यहां के ईसाई कानून के मुताबिक हम जीवित भ्रूण का गर्भपात नहीं कर सकते हैं।’ तब हलप्पनवार दंपत्ति ने दलील दी थी कि हम हिंदू धर्मावलंबी हैं, लिहाजा हम पर यह कानून थोपकर हमारी जान खतरे में न डाली जाए।’ किंतु अंधविश्वासी आयरलैंड समाज के चिकित्सकों ने इन दलीलों को ठुकरा दिया और सविता की मौत हो गई। बाद में शव-परीक्षण से पता चला कि सविता की कोख में घाव था, जो सड़ चुकने के कारण सविता की दर्दनाक मौत का कारण बना।
कहने को ग्रेट ब्रिटेन से 1922 में अलग हुआ आयरलैंड एक आधुनिक और प्रगतिशील देश है। दुनिया के सर्वाधिक धनी देषों में इसकी गिनती है। यहां के शत प्रतिशत नागरिक साक्षर व उच्च शिक्षित हैं। मानव विकास सूचकांक में आयरलैंड विकसित देशों की गिनती में अव्वल रहता है। इस सब के बावजूद चर्च के बाध्यकारी व अमानवीय कानूनों के चलते यह देश मानसिक रुप से कितना पिछड़ा है, इस तथ्य की तसदीक सविता की मौत ने कर दी थी। इस आधुनिक देश में रूढ़िवादी संविधान की आवश्यकता क्यों पड़ी, यह हैरानी में डालने वाली बात है ? हालांकि कट्टर ईसाई कानून की इस अमानवीयता ने दुनिया भर के संवेदनशील लोगों को झकझोरा था। आयरलैंड, ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका और भारत समेत दुनियाभर में हुए प्रदर्शनों में उमड़े जनसैलाव, मीडियाकर्मियों और सोशल साइटों पर आ रही प्रतिक्रियाओं ने सविता की मौत की कड़े शब्दों में निंदा की थी। साथ ही इस जानलेवा चर्च के कानून को तत्काल बदलने की मांग पुरजोरी से की थी। एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था पर भी जन प्रदर्शनकारियों ने दबाव बनाया था, कि वह आयरलैंड शासन प्रशासन पर पर्याप्त हस्तक्षेप कर इस रुढ़िवादी कानून को बदलवाए।
हालांकि इस कानून को बदला जाना इतना आसान नहीं था। क्योंकि आयरलैंड सरकार चर्च कानून के दिशा-निर्देशों से ही संचालित होती है। इसलिए वहां इस कानून में परिवर्तन के समर्थन में बहुमत का होना जरूरी था। करीब 25 साल पहले भी एक एक्स-प्रकरण ने भी आयरलैंड को झकझोरा था। इस मामले में 14 साल की एक स्कूली छात्रा दुष्कर्म के चलते गर्भवती हो गई थी। इस छात्रा के पालकों ने प्रशासन से गर्भपात की अनुमति मांगी थी। किंतु कानून की ओट लेकर इजाजत नहीं दी गई और लड़की ने आत्महत्या कर ली थी। तब आयरिश की सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि भ्रूण और मां दोनों को जीने का समान अधिकार है। इसलिए आत्महत्या की आषंका के चलते गर्भपात की इजाजत मिलनी चाहिए। लेकिन न्यायालय की इस दलील को खारिज कर दिया गया और इस क्रूर व अमानवीय कानून में कोई बदलाव संभव नहीं हो सका था।
दरअसल आयरलैंड में गर्भपात न किए जाने का जो कानून वजूद में है, उसके पीछे मूल-भावना यह निहित हो सकती है कि जीवन को किसी भी हाल में नष्ट न किया जाए। यह कानून तब तक तो ठीक था, जब तक अल्ट्रासाउंड जैसी आधुनिक चिकित्सा-जांच प्रणाली का आविष्कार नहीं हुआ था और यह समझना मुश्किल था कि कोख में शिशु किस हाल में हैं। किंतु अब ऐसी जांच तकनीकें अस्तित्व में आ गई हैं, जिनसे कोख में विकसित हो रहे शिशु की पल-पल की जानकारी ली जा सकती है। सविता के मामले में भी जांचों से साफ हो गया था कि कोख में घाव पक रहा है। इसलिए सविता का गर्भपात किया जाना नितांत जरुरी था। ऐसा नहीं हुआ, इसलिए अजन्मे शिशु के साथ सविता की भी मौत हो गई थी। यदि अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून को ही सही मानें तो मां के जीवन के खतरे को यदि भांप लिया जाए तो कानून के दायरे में गर्भपात कराना महिला का मौलिक अधिकार है। किंतु ‘कानून’ शब्द आ जाने से इस दलील की अंतरराष्ट्रीय, किसी देश की राष्ट्रीयता के दायरे में आ जाती है और आयरलैंड में चर्च कानून किसी भी प्रकार के गर्भपात पर रोक लगाता है। लिहाजा इस कानून पर पुनर्विचार होना और इसे चर्च की जड़ता से मुक्त किया जाना जरूरी हो गया था।