ईश्वर से स्वराज्य अर्थात् मोक्ष सुख की प्रार्थना

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स्वाध्याय, चिन्तन, जप, तप ध्यान से मोक्ष की ओर प्रस्थान

मनमोहन कुमार आर्य

अथर्ववेद का 10/7/31 मन्त्र है जिसमें स्वराज्य अर्थात् मोक्ष सुख की ईश्वर से प्रार्थना की गई है।। यह मन्त्र प्रस्तुत हैः

नाम नाम्ना जोहवीति पुरा सूर्यात् पुरोषसः।

यदजः प्रथमं सम्बभूव तत्स्वराज्यमियाय यस्मान्न परमन्यदस्ति भूतम्।।

 

मन्त्र के पदार्थ पर एक दृष्टि डालते हैं। (पुरा सूर्यात् पुरा-उषसः) सूर्योदय से पूर्व और उषा-पीली फटने से पूर्व (नाम्ना नाम जोहवीति) नमन से योगाभ्यास द्वारा आत्मसमर्पएा से ओ३म् नाम को पुनः पुनः या भली प्रकार अपने अन्दर जो धारण करता है (यत् अजः प्रथमं सम्बभूव) जो कि अजन्मा परमात्मा प्रथम से ही सम्यक् सत्तावान् था (सः ह तत् स्वराज्यम् इयाय) वह उपासक निश्चय उस स्वराज्य अर्थात् स्वातन्त्र्यरूप मोक्ष पद को प्राप्त होता है (यस्मात् परं भूतम् अन्यत् न अस्ति) जिससे बढ़कर वस्तु (भौतिक ऐश्वर्य वा पदार्थ) अन्य नहीं है।

 

इस मन्त्र पर स्वामी ब्रह्ममुनि जी का व्याख्यान का यत्र तत्र सम्पादन के साथ-सूर्योदय या उषा वेला से पूर्व योगाभ्यास द्वारा आत्मसमर्पण करते हुए परमात्मा के ओ३म् नाम को अपने अन्दर धारण करना अर्थात् उसका सार्थक जप करना चाहिए। जो ईश्वर अजन्मा व प्रथम सत्तावान् है, उसके अधीन मोक्षरूप स्वराज्य को ओ३म् नाम का जपकर्ता-उपासक प्राप्त होता है। ओ३म् से बढ़कर उपास्य देव और नाम अन्य नहीं है परन्तु परमात्मा के नाम का जप करना अन्य किसी नाम का नहीं अर्थात् जो केवल परमात्मा ही का नाम है अन्य किसी का नहीं, सो ऐसा तो ओ३म् नाम है जो केवल परमात्मा का ही नाम है। उसका भी अर्थ सहित जप करना, अन्यथा ऐसे जप का लाभ न होने के समान है। इसलिए अर्थहीन नाम जप निरर्थक होता है। वेद में अन्यत्र कहा है ‘‘अधेन्वा चरति माययैष वाचं शुश्रुवां अफलामपुष्पाम् (ऋग्वेद 10/71/5) जिसने वेद वाणी को अर्थ रहित और उचित प्रयोग के बिना सुना, पढ़ा और बोला है वह बिना दूधवाली गौ की भांति मिथ्या वाणी रूपी गौ को लेकर घूमता है। सार्थक जप योगाभ्यास की रीति से ही बनता है तभी कल्याण और मोक्ष पद को मानव प्राप्त करता है। योग दर्शन में ओ३म् के सार्थक जप का विधान है ‘‘तज्जपस्तदर्थभावनम् (योगदर्शन 1/28) ओ३म् का जप और उसके अर्थ को अपने अन्दर भावित, प्रतिष्ठित करना, अनुभव करना तथा धारण करना चाहिये। ओ३म् का विशेषार्थ तो माण्डूक्योपनिषद् में देखना चाहिये पर संक्षेप में संकेत में यहां ओ३म् का शाब्दिक अर्थ अवति रक्षतिइतिओ३म् रक्षा करने वाला है। माता रक्षा करती है, पिता रक्षा करता है, गुरु रक्षा करता है, मित्र रक्षा करता है, राजा रक्षा करता है, घर भी रक्षा करता है पर जो इन सबसे अधिक तथा सर्वदा सर्वथा रक्षा करता है सो परमात्मा ही है। अतएव वह परम माता, परम पिता, परम गुरु, परम मित्र, परम राजा और परम आश्रय होता हुआ व पूर्ण रक्षक होता हुआ ओ३म् नाम से जपा जाता है। वह ऐसा सर्वसम्बन्धयुक्त अनन्त रक्षक मेरे बाहर व भीतर सर्वत्र है। मैं उस अनन्त में और वह अनन्त मुझ एकदेशी में है। अपने शरीर इन्द्रियों को ढीला करते हुए, उन शरीर व इन्द्रियों से अपने को सम्बन्धरहित सा करते हुए उस अनन्त रक्षक ओ३म् में अपने को निमग्न करना, समझना और उसे पाना, बस यही ओ३म् का संक्षिप्त जप है कल्याण का साधक है।

 

मन्त्र में स्वराज्य शब्द आया है। इसका सामान्य अर्थ है अपना देश व उस पर अपने देश के लोगों का स्वतन्त्र राज्य। अपने वह होते हैं जो हमारे देश में उत्पन्न हुए हों व इस देश के प्रति सम्मान सहित अपना सर्वस्व बलिदान करने की भावना रखते हैं। ऐसे लोगों का राज्य व शासन ही स्वराज्य कहा जाता है। परन्तु आध्यात्मिक जगत में स्वराज्य का प्रयोग ईश्वर से मिलने वाला मोक्ष का सुख होता है। मुस्लिम शासन और अंग्रेजी शासन में यह स्वराज्य शब्द मुस्लिम व ब्रिटिश विदेशी लोगों से देश को मुक्त कराके इस देश में जन्में ईश्वर व वेद भक्तों को शासन सौंपने व दिलाने की प्रेरणा करता था। स्वराज्य शब्द वेद से जुड़ा है और वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। अतः स्वराज्य के अधिकारियों को भी वेद और ईश्वर से जुड़ा हुआ होना चाहिये। यदि ऐसा नहीं है तो यहऐसा न होना हमारा दुर्भाग्य है।

 

आध्यात्मिक जगत में स्वराज्य का अर्थ मोक्ष का सुख है। यह ईश्वर के नाम ओ३म् का अर्थ सहित जप करने से प्राप्त होता है। अन्य प्रकार से ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र, सदाचारयुक्त आचरण, परोपकार आदि कार्य भी मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं। इसके लिए सत्यार्थप्रकाश सहित उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। हमने वेद मन्त्र व उसके अर्थ आदि को स्वामी ब्रह्ममुनि ही की पुस्तक वैदिक वन्दन से किंचित सम्पादन के साथ प्रस्तुत किया है जिससे सामान्य पाठक भी वेद मन्त्र व स्वामी ब्रह्ममुनि जी के भावों को पूरा पूरा हृदयंगम कर सके। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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