जम्मू-कश्मीर वार्ताकार और मीडिया

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आशुतोष

जम्मू-कश्मीर के लिये गठित वार्ताकारों के दल ने राज्य में मीडिया की भूमिका पर भी गंभीर टिप्पणियां की हैं। उसने अपनी रिपोर्ट में राज्य से छपने वाले समाचार पत्रों के आर्थिक स्त्रोतों की जांच किसी सक्षम संस्था द्वारा कराये जाने की अनुशंसा की है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि एक ओर प्रकाशकों का कहना है कि जो समाचार पत्र सरकार के संकेतों पर नहीं चलते उनके विज्ञापन रोक दिये जाते हैं वहीं दूसरी ओर सरकार का आरोप है कि कुछ समाचार पत्र निराधार खबरें छापते हैं तथा सरकार के विरुद्ध निंदा अभियान चलाते हैं। रिपोर्ट में मीडिया संस्थानों द्वारा अपने प्रकाशनों की प्रसार संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बताने की भी बात कही गयी है।

प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया अथवा ऐडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा उक्त आरोपों की जांच तथा ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन द्वारा प्रसार संख्या की जांच करवाने की सिफारिश भी रिपोर्ट में की गयी है।

साथ ही, कुछ पत्रकारों द्वारा अपनी खबरों के लिये उद्धरणों के आविष्कार अर्थात स्वयं ही बयान गढ़ लेने की भी आलोचना की गयी है।

रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय मीडिया में, कुछ पत्रकारों को छोड़ कर अधिकांश प्रायः हिंसा की घटनाओं तथा आरोप-प्रत्यारोप तक ही सीमित रहते हैं। कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं जो चुनिंदा खबरों को ही लेते हैं और इस या उस राजनीतिक खेमे के पक्ष में रिपोर्टिंग करते हैं।

वार्ताकार दल के मुखिया दिलीप पड़गांवकर स्वयं एक जाने-माने पत्रकार हैं। उनके द्वारा मीडिया पर टिप्पणी का अपना अर्थ है। लेकिन उन्होंने जम्मू-कश्मीर की मीडिया पर जो आरोप लगाये हैं उनमें नया कुछ भी नहीं। उनकी नाक के नीचे दिल्ली में भी मीडिया में य़ही कुछ चलता है।

जम्मू-कश्मीर की मीडिया में यह स्थिति एक दिन में नहीं आयी है। जिस तरह से वहां कश्मीरी पंडितों से घाटी को खाली कराया गया उसी तरह से श्रीनगर स्थित तमाम पत्रकारों को वापस जाने को मजबूर किया गया। रेडियो और टीवी के पत्रकारों और कर्मचारियों को आतंकवाद के दौर में सरकार की नीति को प्रसारित करने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है। अनेक स्थानीय पत्रकार भी पत्रकारीय मूल्यों पर टिके रहने के कारण मारे गये। कई समाचार पत्रों के कार्यालय फूंक दिये गये। उनके हत्यारों में से एक को भी आज तक सजा नहीं हो सकी है।

इन परिस्थितियों में वातानुकूलित कार्यालयों में बैठ कर आपत्तियां जताना और उपदेश देना एक बात है और बिना सुरक्षा के अपने परिवार का पालन-पोषण करते हुए कश्मीर घाटी में पत्रकारिता करना दूसरी बात। पड़गांवकर ने अपने कश्मीर दौरे के बीच शायद यह जानने की कोशिश नहीं की कि आतंकवाद की आंधी के बीच भी अपने फर्ज को पूरा करते हुए जो पत्रकार मारे गये उनके परिवारों की क्या हालत है।

अगर ऐसा हुआ होता तो उन्होंने जिस तरह आतंकवादियों और पत्थरबाजों को रियायतें देने और खैरात बांटने की सिफारिशें की हैं, उस फेहरिस्त में इन पत्रकारों की विधवाओं और बच्चों के भी नाम होते।

राष्ट्रीय मीडिया के अधिकांश ब्यूरो आज भी श्रीनगर में हैं किन्तु उनके ब्यूरो चीफ अथवा संवाददाताओं में इने-गिने लोग ही गैर-कश्मीरी, गैर-मुस्लिम हैं। पिछले दो दशकों के इस अंधेरे के बाद अगर कुछ अखबार जिन्दा हैं तो सिर्फ इसलिये क्योंकि अलगाववादियों को भी अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिये उनकी जरूरत है। इसलिये यह अखबार अलगाववादी धड़ों के मुखपत्र के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं।

समाचार पत्रों के आर्थिक स्त्रोतों की जांच कौन, कैसे और किसलिये करेगा ? अमेरिका में रह कर आई एस आई के लिये लॉबिंग करने वाले डॉ गुलाम नबी फई के साथ कश्मीर के एक प्रमुख समाचार पत्र के संबंध जग-जाहिर हैं। क्या उसकी जांच से कोई नया तथ्य हाथ लग जायेगा। लेकिन क्या पड़गांवकर में हिम्मत है कि इसके लिये उक्त समाचार-पत्र के प्रबंधन के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश करें। वे खुद भी तो उसी फई की दावत कुबूल कर चुके हैं।

आईएसआई के पैसे पर विश्वभ्रमण करने और पांचसितारा होटलों में रुक कर बढ़िया दावतें पाने वालों में दर्जनों भारतीय स्वनामधन्य पत्रकार शामिल हैं। इन पत्रकारों की संपत्ति, उनकी विदेशयात्राओं के खर्चे का हिसाब, उनके आलीशान बंगलों और गाडियों के काफिलों के हिसाब की भी जांच की सिफारिश इस रिपोर्ट में होती तो क्या ही अच्छा होता। जांच का बिन्दु यह भी हो सकता है कि विदेशों में तफरीह के बाद लौट कर उन्होंने समाचार पत्रों में जो लेख लिखे उनका झुकाव भारत सरकार की नीतियों के समर्थन की ओर था अथवा फई की कांफ्रेस के संस्मरण ही उन्होंने लेख लिख डाले थे।

लेकिन यह तफरीह करने वाले तो लौटने के बाद कांफ्रेस का एजेण्डा भूल सकते हैं, तफरीह कराने वाले नहीं। इसलिये जब वार्ताकारों की रिपोर्ट में भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के एकीकरण के प्रयास सुझाये गये तो फई ने पड़गांवकर को टोकने में जरा भी समय नहीं लगाया। उसने उन्हें कश्मीर के एक स्वतंत्र इकाई होने की याद दिलाते हुए कहा कि न्यूयॉर्क घोषणा में यह स्पष्ट है कि नियंत्रण रेखा के दोनों ओर के जम्मू-कश्मीर के सभी लोगों को साथ लिये बिना कोई समझौता नहीं हो सकता। फई ने यह भी याद दिलाया कि 25 फरवरी 2005 को हुई न्यूयॉर्क घोषणा की ड्राफ्ट कमेटी के सदस्य स्वयं पड़गांवकर भी थे।

इस सबके बावजूद, दिलीप पड़गांवकर ने एक अच्छा मुद्दा उठाया है जिसे उठाने से मीडिया हमेशा बचती रही है। यदि उनकी सिफारिश मानते हुए इस प्रकार की कोई जांच होती है तो निस्संदेह मीडिया की जवाबदेही बढ़ेगी।

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