प्रमोद भार्गव
१९९३ के मुंबई बम धमाकों में मिल याकूब मेमन की फांसी की सजा बरकरार रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्सीय खंडपीठ ने उसकी दया याचिका दो मिनट के भीतर खारिज कर दी। हालांकि इस याचिका के पहले भी दो बार न्यायालय याकूब की याचिका खारिज कर चुकी है। इसके पहले राष्ट्रपति से भी दया याचिका खारिज हो चुकी है। राष्ट्रपति से याचिका खारिज होने के बाद अपवादस्वरूप ही सुप्रीम कोर्ट किसी याचिका पर सुनवाई करता है। टाडा अदालत ने २००७ में याकूब को फांसी की सजा सुनाई थी। चूंकि इस अदालत की अपील उच्चतम न्यायालय में करने का प्रावधान नहीं है,इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में ही टाडा से सजा पाए अपराधियों की अपील की जा सकती है और अपील पर निराकरण के बाद दया याचिका लगाई जा सकती है। याकूब की दया याचिका पर दो बार सुनवाई करके शीर्ष न्यायालय ने यह साफ कर दिया है कि आरोपी याकूब को न्याय के अधिकार के सभी विकल्प मुहैया कराए जाए।
याकूब मेमन ने याचिका में दया की गुजारिश करते हुए कहा था कि वह पिछले २१ साल से जेल में है और मुबंई धमाकों का मुख्य साजिशकर्ता नहीं है,इसलिए उसे राहत दी जाए। हालांकि वह अपने कबूलनामे और टाडा अदालत को दिए बयान में पहले ही स्वीकार चुका था,कि वह साजिश में शामिल जरूर रहा है,लेकिन मुख्य मास्टरमांइड नहीं है। किंतु पुलिस तफ्तीश में पाया गया कि वह न केवल मुख्य साजिशकर्ता था,बल्कि उसके घर में ही बम बनाए गए और उन्हें उसी की कार में ले जाकर घनी आबादी वाले इलाकों में भी रखा गया। जब ये बम विस्फोट हुए तो पूरी मुंबई दहल गई। इस देशघाती हमले में २५७ लोग मारे गए थे और ७१२ जख्मी हुए थे। साथ ही कई करोड़ की चल-अचल संपत्ति नष्ट हो गई थी। यही नहीं देश में यह ऐसा पहला हमला था जिसमें पहली बार देश के भीतर आरडीएक्स और एके-५७ तथा एके-४७ जैसे घातक विस्फोटक व हथियारों का इस्तेमाल हुआ था। नागपुर के केंद्रीय कारागर में बंद याकूब मेमन को अब ३० जुलाई को फांसी दे दी जाएगी।
इतना बड़ा देशद्रोही होने के बावजूद चंद स्वंय सेवी संगठन एवं कुछ आरटीआई कार्यकर्ता याकूब को मृत्युदंड की बजाय आजीवन करावास की मांग कर रहे थे। इन्होंने मृत्युदंड को नए सिरे से बहस का मुद्दा बना दिया था। जबकि भारतीय दंड संहिता में जब तक मौत की सजा का प्रावधान है, तब तक जघन्य अपराधों में अदालत मौत की सजा देती रहेंगी। इस सजा को खत्म करने का अधिकार केवल संसद को है। और संसद एकमत से हत्या की धारा ३०२ और देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने की धारा १२१ को विलोपित करने का विधेयक पारित करा ले,ऐसा निकट भविष्य में संभव भी नहीं है। याकूब मेमन भारत देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोपी था। इसी प्रकृति के संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू और मुंबई हमले के पाकिस्तानी हमलावर अजमल आमिर कसाब को मृत्युदंड के बाद फांसी के फंदे पर लटकाया जा चुका है। ये तीनों ही मामले दुर्लभतम होने के साथ देश की संप्रुभता को चुनौती देने की राष्ट्रद्रोही मुहिम से जुड़े थे।
यहां यह भी गौरतलब है कि खालिस्तान समर्थक आतंकी देविदंर पाल सिंह भुल्लर का अपराध भी याकूब,अफजल और कसाब की प्रकृति का है,इसीलिए भुल्लर मामले में १२ अप्रैल २०१३ को अदालत ने कहा भी था कि दया याचिका पर फैसले में देरी फांसी की सजा माफ करने का आधार नहीं बन सकती है। दरअसल जघन्य से जघन्यतम अपराधों में त्वरित न्याय की तो जरूरत है ही,दया याचिका पर जल्द से जल्द निर्णय लेने की जरूरत भी है। शीर्ष न्यायलय ने कहा भी था कि दया याचिका पर तुरंत फैसला हो,लेकिन राष्ट्रपति के लिए क्या समय सीमा होनी चाहिए,यह सुनिश्चित नहीं नही है। लिहाजा अकसर राष्ट्रपति दया याचिकाओं पर निर्णय को या तो टालते हैं या फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल देते हैं। हालांकि महामहिम प्रणब मुखर्जी इस दृष्टि से अपवाद हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद अफजल गुरू,अजमल कसाब और याकूब की दया याचिकाएं उन्होंने ही खारिज करते हुए,इन देशद्रोहियों को फांसी के फंदे पर लटकाने का रास्ता साफ किया था। जबकि पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने या तो दया याचिकाएं टालीं या मौत की सजा को उम्र कैद में बदला। यहां तक कि उन्होंने महिला होने के बावजूद बलात्कार जैसे दुष्कर्म में फांसी पाए पांच आरोपीयों की सजा आजीवन कारावास में बदलीं थीं।
हालांकि किसी भी देश के उदारवादी लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था आंख के बदले आंख या हाथ के बदले हाथ जैसी प्रतिशोघात्मक मानसिकता से नहीं चलाई जा सकती है,लेकिन जिन देशों में मृत्युदंड का प्रावधान है,वहां यह मुद्दा हमेशा ही विवादित रहता है कि आखिर मृत्युदंड सुनने का तार्किक आधार क्या हो? इसीलिए भारतीय न्याय व्यव्स्था में लचीला रुख अपनाते हुए गंभीर अपराधों में उम्र कैद एक नियम और मृत्युदंड अपवाद है। इसीलिए देश की शीर्षस्थ अदालतें इस सिद्धांत को महत्व देती हैं,कि अपराध की स्थिति किस मानसिक परिस्थिति में उत्पन्न हुई? अपराधी की समाजिक,आर्थिक और मनोवैज्ञानिक स्थितियों व मजबूरियों का भी ख्याल रखा जाता है। क्योंकि एक सामान्य नागरिक सामाजिक संबंधों की जिम्मेदारियों से भी जुड़ा होता है। ऐसे में जब वह अपनी बहन,बेटी या पत्नि को बलात्कार जैसे दुष्कर्म का शिकार होते देखता है तो आवेश में आकर हत्या तक कर डालता है। भूख,गरीबी और कर्ज की असहाय पीड़ा भोग रहे व्यक्ति भी अपने परिजनों को इस जलालत की जिदंगी से मुक्ति का उपाय हत्या में तलाशने को विवश हो जाते हैं। जाहिर है,ऐसे लाचारों को मौत की सजा के बजाय सुधार और पुनर्वास के अवसर मिलने चाहिए। क्योंकि जटिल होते जा रहे समय में दंड के प्रावधानों को तात्कालिक परिस्थिति और दोषी की मनोवैज्ञानिक स्थिति पर भी आंकना जरूरी है। हमारे देश में न्याय को अपराध के विभिन्न धरातलों की कसौटियों पर कसना इसलिए भी जरूरी है,क्योंकि हमारे यहां पुलिस व्यक्ति की सामाजिक,राजनीतिक,शैक्षिक व आर्थिक हैसियत के हिसाब से भी दोषी ठहराने में भेद बरतती है। इसीलिए देश में सामाजिक आधार पर विश्लेषण करें तो उच्च वर्ग की तुलना में निचली जातियों से जुड़े लोगों को ज्यादा फांसी दी गई हैं। यही स्थिति अमेरिका में है। वहां श्वेतों की अपेक्षा अश्वेतों को ज्यादा फांसी दी गई हैं। इस समय पश्चिमी एशियाई देशों में भी फांसी की सजा देने में तेजी आई हुई है। इनमें ईरान,इराक,सउदी अरब और यमन ऐसे देश हैं,जहां सबसे ज्यादा मृत्युदंड दिए जा रहे हैं।
दया याचिका पर सुनवाई के लिए यह मांग हमारे यहां उठ रही है कि इसकी सुनवाई का अधिकार अकेले राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में न हो? इस बाबत एक बहुसदस्सीय जूरी का गठन हो। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष,उप राष्ट्रपति,लोकसभा अध्यक्ष,विपक्ष के नेता और कुछ अन्य विशेषाधिकार संपन्न लोग भी शामिल हों? यदि इस जूरी में भी सहमति न बने तो इसे दोबारा शीर्ष अदालत के पास प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के लिए भेज देना चाहिए। इससे गलती की गुंजाइश न्यूनतम हो सकती है? इसके उलट एक विचार यह भी है कि राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने का प्रावधान खत्म करके सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही अंतिम फैसला माना जाए ? यह विचार ज्यादा तार्किक है। क्योंकि न्यायालय अपराध की प्रकृति और अपराधी की प्रवृति के विश्लेषण के तर्कों से सीधे रूबरू होती है। फरियादी का पक्ष भी अदालत के समक्ष रखा जाता है। जबकि राष्ट्रपति के पास दया याचिका पर विचार का एकांगी पहलू होता है?जाहिर है न्यायालय के पास अपराध और उससे जुड़े दंड को देखने के कहीं ज्यादा साक्ष्यजन्य पहलू होते हैं। लिहाजा तर्कसंगत उदारता अदालत ठीक से बरत सकती है ? बहरहाल याकूब का मृत्युदंड यदि आजीवन कारावास में बदल दिया जाता तो इससे आतंकवादियों के हौसले बुलंद होते,लिहाजा इसे फांसी के फंदे पर लटकाया जाना जरूरी था।