-गोपाल बघेल ‘मधु’-
(मधुगीति १५०५२६-५)
जादूगरी जो जानते, स्मित नयन बस ताकते;
जग की हक़ीक़त जानते, बिन बोलते से डोलते।
सब कर्म अपने कर रहे, जादू किए जैसे रहे;
अज्ञान में जो फिर रहे, उनको अनौखे लग रहे ।
हैं नित्य प्रति आते यहाँ, वे जानते क्या है कहाँ;
बतला रहे बस वही तो, आते रहे हैं तभी तो ।
जो जब कभी आते रहे, वे मार्ग ना जाने रहे;
यात्री वे कहलाये रहे, पथ जानना वे ही चहे ।
कुछ पूछते कुछ बताते, उनका जगत हैं चलाते;
मालिक को जो पहचानते, ‘मधु’ विश्व अपना जानते ।
सुन्दर सुशोभित साँवरे
(मधुगीति १५०५२६-६)
सुन्दर सुशोभित साँवरे, हैं मेघ गर्जन कर रहे;
आनन्द की अद्भुत छटा, वे जटाओं से झर रहे ।
नभ फिर रहे सुर फुर रहे, दश दिशा सुरभित कर रहे;
आलोक हर कण दे रहे, आल्ह्वाद विकरण कर रहे ।
आकाश गंगा ओज में, नव संतति की खोज में;
क्या क्या कौतूहल कर रही, हर तारिका वधु लग रही ।
नीहारिकाएं उल्लसित, बन हार केन्द्रित हो रहीं ;
लग रचयिता के वे गले, नव सृष्टि सर्जित कर रहीं ।
मज्जन किए मर्मर हिये, परमात्म का रस चख लिये;
‘मधु’ बादलों में बृह्म लखि, हो तरंगित भव रम रहे ।