जैन तीर्थंकर वर्धमान महावीर

—विनय कुमार विनायक
ज्ञातृक गण प्रमुख सिद्धार्थ और वज्जिसंघ लिच्छवि के
शिरोमणि चेटक कन्या त्रिशला के पुत्र वर्धमान महावीर!
कश्यपगोत्री ज्ञातृक व्रात्य क्षत्रिय सिद्धार्थ पिता राजा सर्वार्थ
और माता श्रीमती देवी अनुयायी थे पार्श्वनाथ के निर्ग्रन्थी!
मगधराज बिंबिसार पत्नी चेल्लना थी वर्धमान की मौसी!
वैशाली के राजपुत्र वर्धमान महावीर अजातशत्रु का मौसेरा भाई!

पांच सौ चालीस ई,पू.में वैशाली के पास कुंडग्राम में प्रकटित
तीस वर्षीय वर्धमान त्यागकर भार्या यशोदा और नन्ही सी बेटी,
पांच सौ दस ई.पू. में जा पहुंचे पारसनाथ शैल की ऊंची चोटी!
चार सौ अंठानबे ई.पू.में ऋजुपालिका नदी के उत्तरी तट पर,
जुंभिक गांव के वैवावृत्य चैतोद्यान में साल वृक्ष की छांव में,
बयालीस वर्षीय वर्धमान ने कैवल्य पाया बैठ शिला खण्ड पर!

काम,क्रोध,लोभ,मोह,ईर्ष्या,द्वेष,विषय वासना पर पाकर
विजय कहलाने लगे भगवान महावीर, मिली संज्ञा दर्जन भर!
कहलाए पूज्य ‘अर्हत्’ बंधन रहित ‘निर्ग्रन्थ’ ‘जिनेन्द्र’ ‘ज्ञातृपुत्र’
जितेन्द्रिय ‘जिन’ सर्वज्ञ ज्ञानी कैवल्य ‘केवलिन’ तपी ‘महावीर’
वैशाली के ‘वैशेली’ ‘कासव’ ‘श्रेयांस’ ‘यशांस’ ‘निगंठ नाटपुट्ट’
महावीर ने ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ किया राजगृह के विपुलाचल पर!

प्रथम उपदेश देकर त्रिशला पुत्र ने दिया मोक्ष प्राप्तार्थ दर्शन;
‘त्रिरत्न’ सम्यक श्रद्धा, सम्यक ज्ञान और आचरण सम्यक
महावीर ने पार्श्वनाथ के चातुर्थी व्रत में जोड़ कर ब्रह्मचर्य
बनाया अहिंसा,सत्य, अपरिग्रह,अस्तेय,ब्रह्मचर्य प॔चमहाव्रत,
कठिन पंचमहाव्रत श्रावकों का,पर गृहस्थ का सुगम अनुव्रत
जैनधर्म का मूल आधार अहिंसा: मनसा,वाचा,कर्मणा,
किसी भी प्राणियों को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचाना!

कर्ता-धर्ता-संहर्ता ईश्वर में वर्धमान महावीर को विश्वास नहीं था
किन्तु आत्मा और पुनर्जन्म में उनको थी संपूर्ण आस्था!
भगवान महावीर कथन था किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान
जनसामान्य ज्ञान से नहीं, सिर्फ कैवल्य ज्ञान से संभव
अस्तु; महावीर ने उपनिषद से प्रेरित होकर स्यात् वाद,
यानी शायद का प्रणयन किया था और वस्तु सत्य तक
पहुंचने हेतु सप्तभंगी सिद्धांत श्रमणों को प्रवचन दिया था!

यही सात मार्ग से सत्य तक पहुंचने का अनेकांत वाद है
महावीर ने पंच ज्ञान: मति, श्रुति,अवधि/ दिव्य ज्ञान,
मन:पर्याय और कैवल्य प्राप्ति का तीन स्रोत बतलाया,
जो प्रत्यक्ष, अनुमान और तीर्थंकरों के वचन से आता!
उन्होंने जीवों के आवागमन पर कर्म फल का सिद्धांत,
यानि कर्म क्षय या कर्म का अंत करके जीवों को मोक्ष
दिलाने को आवागमन से मुक्ति के मार्ग को प्रचलन में लाया था!

इच्छाओं के निग्रह से कर्म का स्वतः अंत हो जाता है
इच्छाओं का निग्रहव्रत, नित अभ्यास से संभव होता है
इच्छाओं का निग्रह यानि त्याग, त्याग,सिर्फ त्याग है
महावीर ने अंग के वस्त्र तक का त्याग कर दिया था!
पार्श्वनाथ ने श्वेत वस्त्र से देह ढकने का आदेश दिया
महावीर ने श्रमण को पूर्णतः वस्त्रहीन कर दिया था!

चार सौ अडसठ ई. पू. पावापुरी में निर्वाण मिला जिन को
जैन धर्म का दर्शन ग्रंथ कहलाता है ‘आगम’ जिसके
संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश में ढेर सारे हैं अवदान!
जैन आगमों की कुल संख्या छियालीस तक होती है
बारह अंग, बारह उपांग, दस पइन्ना, छ: छेद सूत्र,
चार मूल सूत्र, दो नन्दि और अनुयोग कहलाता है!

पहला धर्मसम्मेलन ‘पाटलीपुत्र वाचना’ पाटलीपुत्र में
महावीर निर्वाण के एक सौ साठ वर्ष के बाद हुआ!
दूसरा ‘माथुरी वाचना’ 827 या 840 वर्ष के बाद में
आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में हुआ था!
तीसरा नागार्जुन सूरि की अध्यक्षता में वल्लभी में,
चौथा महावीर निर्वाण के 980 या 993 वर्ष के बाद
देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वल्लभी में!

पहले धर्म सम्मेलन में ग्यारह अंगों का संकलन हुआ,
और चौथे में आगमों को अंतिम रूप दिया गया था!
आगम में जैन तीर्थंकरों के ज्ञान, ध्यान, मंत्रणा का संकलन,
जैसे निगम में समाहित होता वेद, उपनिषद, पुराण, ब्राह्मण!
आगम निगम सा प्राचीन, ब्रह्मापुत्र स्वयांभुवमनुवंशी ऋषभ से
जैन परम्परा चली, वेद ब्रह्मामुख से ब्राह्मण ऋषियों को मिला!
आगम वर्ण विरोधी ऋमण ज्ञान,निगम वर्णवादी ब्राह्मण ज्ञान!

एक तार्किक मानव चिंतन, दूसरा ब्राह्मण का वर्ण नियमन!
एक में समस्त जैन श्रमण, दूसरे में ब्राह्मण और अब्राह्मण!
एक मानव का एकीकरण, दूसरे में मानव वर्ण विभेदीकरण!
एक में कैवल्य ज्ञान से महान, दूजा जन्मना ब्राह्मण महान!
आगम में कर्म निग्रह,निगम में वैदिक कर्मकांड का प्रचलन!
एक अहिंसापरमोधर्मः का दर्शन, दूजा वैदिक हिंसा का धर्म!
—विनय कुमार विनायक

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