जौनसार-बावर और जातिभेद

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tarun vijay
गत 20 मई को वरिष्ठ पत्रकार और उत्तराखंड से भा.ज.पा. के राज्यसभा सांसद तरुण विजय पर देहरादून जिले के पर्वतीय क्षेत्र ‘जौनसार-बावर’ में हमला हुआ। उसमें वे बुरी तरह घायल हो गये। उनकी गाड़ी भी कुछ लोगों ने खाई में धकेल दी। विवाद का विषय वहां के एक मंदिर में प्रवेश का था। तरुण विजय वहां दलित हिन्दुओं के साथ जाना चाहते थे; पर गांव वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। अतः बात बढ़ गयी और सांसद महोदय चोट खा बैठे।
इस दुर्घटना का विश्लेषण करने से पहले इस क्षेत्र के इतिहास और भूगोल को जानना जरूरी है।
देहरादून जिले का अधिकांश हिस्सा यों तो मैदानी है; पर इसकी एक तहसील ‘चकराता’ पूरी तरह पहाड़ी है। इसका काफी हिस्सा 4,000 फुट से भी अधिक ऊंचा है। चीड़ और देवदार के वृक्षों से भरे जंगलों के कारण सर्दियों में खूब हिमपात होता है। जनसंख्या के हिसाब से ये क्षेत्र बहुत विरल है; लेकिन प्रकृति ने मुक्त हस्त से यहां कदम-कदम पर सुंदरता का खजाना बिखेरा है।
चकराता एक सैन्य छावनी है तथा यहां सेना के कई प्रशिक्षण केन्द्र हैं। अतः यहां विदेशियों का प्रवेश वर्जित है। इस क्षेत्र में प्रवेश के सभी मार्गों पर इस सूचना के बोर्ड लगे रहते हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक कालसी, साहिया और चकराता में तीन ‘गेट’ बने थे। यहां हर वाहन को रुकना पड़ता था। सैनिक उनके नंबर लिखते थे। हर ढाई घंटे बाद गेट खुलता था और तब ही वाहन नीचे या ऊपर जाते थे। स्थानीय लोगों की परेशानी देखकर अब यह व्यवस्था समाप्त कर दी गयी है।
यह क्षेत्र मुख्यतः जौनसार और बावर नामक दो भागों मे बंटा है। ‘जौनसार’ का अर्थ है जमुना से आर। अर्थात यमुना के इस पार का क्षेत्र। इसी तर्ज पर यमुना से पार का क्षेत्र जौनपार (जमुना से पार) हुआ। यह टिहरी जिले का एक विकास खंड है, जो अब ‘जौनपुर’ कहलाता है। जौनपुर मुख्यतः प्रसिद्ध पर्यटन स्थल ‘मसूरी’ के पीछे की ओर बसा है। दूसरा क्षेत्र है ‘बावर’। यह नाम यहां की प्रमुख नदी ‘पावर’ के कारण पड़ा है। जानकारी के अभाव में लोग इसे ‘बाबर’ या ‘भावर’ भी बोल देते हैं।
जौनसार-बावर क्षेत्र की भाषा, बोली, रीति-रिवाज, संस्कृति, वेशभूषा, खानपान, विश्वास और अंधविश्वास..आदि हिमाचल से मिलते-जुलते हैं। किसी समय यह क्षेत्र हिमाचल में ही था; पर ब्रिटिश और गोरखा युद्ध के बाद 1828 में हुई एक संधि से यह देहरादून का हिस्सा बन गया। आजादी के बाद जब राज्यों का निर्माण हुआ, तो यह उत्तर प्रदेश और फिर उत्तरांचल (उत्तराखंड) में आ गया।
यहां का इतिहास महाभारत काल से प्रारम्भ होता है। यहां ‘लाखामंडल’ नामक एक गांव है। उसकी एक पहाड़ी पर प्राचीन गुफाएं हैं, जिनमें डर के कारण लोग नहीं जाते। कहते हैं कि यह वही ‘लाक्षागृह’ है, जिसे दुर्योधन ने पांडवों को माता कुन्ती सहित जलाकर मारने के लिए बनवाया था; पर विदुर के संकेतों के आधार पर पांडव बच निकले। इसके बाद पांडव इस क्षेत्र में भटकते रहे। यहां कई गांवों और स्थानों के नाम महाभारतकालीन हैं। चकराता को भी ‘एकचक्रा’ नगरी का अपभ्रंश बताते हैं, जहां भीम ने बकासुर राक्षस को मारा था।
लाखामंडल के खेतों में हजारों शिवलिंग दबे हैं, जो जुताई या गुड़ाई करते समय मिल जाते हैं। एक शिवलिंग तो ऐसा है, जिस पर पानी पड़ते ही उसमें चेहरा दिखने लगता है। संभवतः किसी समय हुए बड़े अनुष्ठान के लिए यहां लाखों शिवलिंग बने होंगे। हो सकता है लाखामंडल नाम इन लाखों शिविलिंग के कारण पड़ा हो। कालसी के आसपास पुराने यज्ञकुंडों के अवशेष मिलते हैं। वहां सम्राट अशोक का एक प्रसिद्ध शिलालेख भी है।
यहां विशेष अवसरों पर ‘पांडव नृत्य’ होता है। इसे करने वाले कुछ लोग ही होते हैं, जो उस समय बजने वाली ढोल की धुनों से आवेशित हो जाते हैं। यहां की ‘बहुपति प्रथा’ भी द्रौपदी के पांच पतियों वाले प्रसंग से जुड़ी है। यद्यपि अब यह लगभग समाप्त हो चुकी है। यहां भी विवाह प्रायः जल्दी हो जाते हैं। कुछ साल बाद गौने के समय लोग ढोल-नगाड़ों के साथ कन्या को वर के घर छोड़कर आते हैं। इसे ही लोग हंसी में कहते हैं कि यहां लड़की बारात लेकर जाती है।
इस क्षेत्र को केन्द्र और राज्य सरकार ने जनजातीय क्षेत्र माना है। जब तक यह उ.प्र. में था, तब तक यहां की विधानसभा सीट जनजाति के लिए आरक्षित थी। उत्तराखंड बनने के बाद इसके तीन टुकड़े हो गये और उनमें से एक आरक्षित है। जनजातीय क्षेत्र होने के कारण केन्द्र और राज्य सरकारें विकास के लिए प्रचुर धन देती हैं, जिसका काफी हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। अन्य स्थानों की तरह यहां भी कुछ राजनीतिक परिवार हैं, जो सत्ता सुख के लिए इधर-उधर घूमते रहते हैं।
यद्यपि जनजातियों में जातिप्रथा नहीं होती; पर यहां ब्राह्मण, राजपूत और अन्य छोटी जातियां हैं। इनमें भी फिर भेद और उपभेद हैं, जिनमें खानपान, विवाह, घर और मंदिर में प्रवेश जैसे कई प्रतिबंध हैं। वहां मुख्यतः महासू (महाशिव) की पूजा होती है। इसके अलावा कई अन्य स्थानीय देवी-देवता भी हैं, जिनकी पूजा के ढंग भी अलग हैं। कई जगह बलि भी दी जाती है।
ठंडा क्षेत्र होने के कारण यहां शराब और मांस का आम प्रचलन है। हल्की शराब हर घर में बनती है और उसे सरकारी अनुमति रहती है। दीवाली के एक महीने बाद ‘बूढ़ी दीवाली’ और बैसाखी अर्थात ‘बिस्सू’ यहां के दो मुख्य पर्व हैं। ये भीषण सर्दी के आने और जाने के पर्व हैं। लोग इनमें मिलजुल कर नाचते, गाते और खाते-पीते हैं। ‘मकर संक्राति’ भी उत्साह से मनायी जाती है। अतिथि चाहे जो भी हो, पूरा गांव उसे मान-सम्मान देता है।
देश में कई जगह व्याप्त ऊंच-नीच से यह क्षेत्र भी अछूता नहीं है। यद्यपि शिक्षा के प्रसार और कठोर कानूनों से ये कुप्रथाएं क्रमशः कम हो रही हैं। फिर भी कई लोग मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं हैं। अनेक सामाजिक संस्थाएं इसके लिए प्रयासरत हैं; लेकिन उन्हें लम्बा समय लगेगा। क्योंकि प्रथा अच्छी हो या खराब, उसे आने या जाने में समय लगता ही है।
जहां तक तरुण विजय वाला विवाद है, जानकारों के अनुसार उसका कारण सामाजिक के साथ ही राजनीतिक भी है। फिर भी इससे भारत में फैली एक सामाजिक कुरीति पर चर्चा हो रही है। इस चिंतन और मंथन में से भी कुछ अच्छा ही निकलेगा।
– विजय कुमार

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